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जार-जार रोई है कमरे में कैद जिंदगी

गाजीपुर न्यूज़ टीम, गोरखपुर, अखबारों में पढ़ता था, स्कूली बच्चों के खाने में कीड़े मिले हैं। मन खिन्न हो उठता था। लेकिन नियति जब सामने खड़ी हो गई, तो कमरे में कैद जिंदगी फूट-फूट कर रोने लगी। लॉकडाउन में राशन नहीं बचा, पैसे भी खत्म हो गए। घर लौट पाएंगे भी या नहीं, इसका भी ठिकाना नही था। कंपनी के सहारे थे। सब्जी-चावल में कीड़े दिखाने पर कंपनी का मैनेजर कहता, वापस जाओ, नहीं तो जो दे रहा हूं सो खाओ। हम जिंदा तो थे, लेकिन लाश की तरह। अपनी माटी पर पहुंचाकर रेलवे और रोडवेज ने नई जिंदगी दी है।

जो जहां थे वहीं लॉक हो गए
यह किसी फिल्म की पटकथा नहीं, बल्कि उन मेहनतकश मजदूरों की व्यथा है, जो अपने खून-पसीने से परदेस को सींच रहे थे। लॉकडाउन हुआ, तो जो जहां थे वहीं लॉक हो गए। दिन-रात साथ रहने वाले बेगाने हो गए। शुरुआत में तो किसी तरह पेट की आग बुझ गई, लेकिन लॉकडाउन बढ़ा तो जिंदगी खुद को बोझ बनने लगी। श्रमिक एक्सप्रेस से साबरमती से गोरखपुर पहुंचे भदोही के चेरापुर निवासी मंगल ने कहा कि संयोग अच्छा रहा कि टे्रन मिल गई, नहीं तो कोरोना वायरस से पहले कोई दूसरी बीमारी जरूर जकड़ लेती। दो दिन पहले हाथ में रेल टिकट आया तो लगा जैसे कोई बड़ा खजाना मिल गया है। ट्रेन में बैठा तो घर पहुंचने की खुशी में भूख-प्यास भी भूल गया।

मकान मालिक कहता था कमरा खाली करो, मैनेजर कहता था घर जाओ
मंगल के पास खड़े दोस्त राजेंद्र फफक पड़े। बोले, मकान मालिक कहता था कमरा खाली करो, कंपनी का मैनेजर कहता था घर जाओ। मैनेजर की बात लगी तो लगभग 80 मजदूर पैदल ही घर के लिए चल पड़े। अब हमारी हिम्मत भी जवाब दे रही थी। खैर, यूपी सरकार को अपनों की याद आई, तो ट्रेन भेज दी। गुजरात में अभी भी हजारों मजदूर फंसे हैं। अधिकतर के पास तो टिकट के लिए भी पैसे नहीं हैं। हमने तो साथियों से सौ-सौ रुपये लेकर टिकट ले लिया, लेकिन उनका क्या होगा।

मार्च, अप्रैल की पगार तक नहीं दी
वाराणसी के आशीष और विजय ने बताया कि कंपनी के मैनेजर ने मार्च और अप्रैल की पगार तक नहीं दी।  टिकट के लिए पैसे नहीं थे। किसी तरह पैसे जुटाकर टिकट लेने गए तो 640 की जगह एक हजार वसूला गया। संतोष यही है कि अब हम घर पहुंच गए हैं। अब नहीं जाएंगे।
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