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कहानी: इतना बहुत है

एक लेखक और साहित्यप्रेमी होने के नाते मेरे लेखन पर घर वालों की उदासीनता मुझे दुखी करती थी लेकिन जन्मदिन पर घर वालों के सरप्राइज और उन के प्यार की उष्मा ने मेरी उदासी को खुशी में बदल दिया.
घर के कामों से फारिग होने के बाद आराम से बैठ कर मैं ने नई पत्रिका के कुछ पन्ने ही पलटे थे कि मन सुखद आश्चर्य से पुलकित हो उठा. दरअसल, मेरी कहानी छपी थी. अब तक मेरी कई कहानियां  छप चुकी थीं, लेकिन आज भी पत्रिका में अपना नाम और कहानी देख कर मन उतना ही खुश होता है जितना पहली  रचना के छपने पर हुआ था.

अपने हाथ से लिखी, जानीपहचानी रचना को किसी पत्रिका में छपी हुई पढ़ने में क्या और कैसा अकथनीय सुख मिलता है, समझा नहीं पाऊंगी. हमेशा की तरह मेरा मन हुआ कि मेरे पति आलोक, औफिस से आ कर इसे पढ़ें और अपनी राय दें. घर से बाहर बहुत से लोग मेरी रचनाओं की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन मेरा मन और कान तो अपने जीवन के सब से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और रिश्ते के मुंह से तारीफ सुनने के लिए तरसते हैं.


पर आलोक को साहित्य में रुचि नहीं है. शुरू में कई बार मेरे आग्रह करने पर उन्होंने कभी कोई रचना पढ़ी भी है तो राय इतनी बचकानी दी कि मैं मन ही मन बहुत आहत हो कर झुंझलाई थी, मन हुआ था कि उन के हाथ से रचना छीन लूं और कहूं, ‘तुम रहने ही दो, साहित्य पढ़ना और समझना तुम्हारे वश के बाहर की बात है.’

यह जीवन की एक विडंबना ही तो है कि कभीकभी जो बात अपने नहीं समझ पाते, पराए लोग उसी बात को कितनी आसानी से समझ लेते हैं. मेरा साहित्यप्रेमी मन आलोक की इस साहित्य की समझ पर जबतब आहत होता रहा है और अब मैं इस विषय पर उन से कोई आशा नहीं रखती.

कौन्वैंट में पढ़ेलिखे मेरे युवा बच्चे तनु और राहुल की भी सोच कुछ अलग ही है. पर हां, तनु ने हमेशा मेरे लेखन को प्रोत्साहित किया है. कई बार उस ने कहानियां लिखने का आइडिया भी दिया है. शुरूशुरू में तनु मेरा लिखा पढ़ा करती थी पर अब व्यस्त है. राहुल का साफसाफ कहना है, ‘मौम, आप की हिंदी मुझे ज्यादा समझ नहीं आती. मुझे हिंदी पढ़ने में ज्यादा समय लगता है.’ मैं कहती हूं, ‘ठीक है, कोई बात नहीं,’ पर दिल में कुछ तो चुभता ही है न.


10 साल हो गए हैं लिखते हुए. कोरियर से आई, टेबल पर रखी हुई पत्रिका को देख कर ज्यादा से ज्यादा कभी कोई आतेजाते नजर डाल कर बस इतना ही पूछ लेता है, ‘कुछ छपा है क्या?’ मैं ‘हां’ में सिर हिलाती हूं. ‘गुड’ कह कर बात वहीं खत्म हो जाती है. आलोक को रुचि नहीं है, बच्चों को हिंदी मुश्किल लगती है. मैं किस मन से वह पत्रिका अपने बुकश्ैल्फ  में रखती हूं, किसे बताऊं. हर बार सोचती हूं उम्मीदें इंसान को दुखी ही तो करती हैं लेकिन अपनों की प्रतिक्रिया पर उदास होने का सिलसिला जारी है.

मैं ने पत्रिका पढ़ कर रखी ही थी कि याद आया, परसों मेरा जन्मदिन है. मैं हैरान हुई जब दिल में जरा भी उत्साह महसूस नहीं हुआ. ऐसा क्यों हुआ, मैं तो अपने जन्मदिन पर बच्चों की तरह खुश होती रहती हूं. अपने विचारों में डूबतीउतरती मैं फिर दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई. जन्मदिन भी आ गया और दिन इस बार रविवार ही था. सुबह तीनों ने मुझे बधाई दी. गिफ्ट्स दिए. फिर हम लंच करने बाहर गए. 3 बजे के करीब हम घर वापस आए. मैं जैसे ही कपड़े बदलने लगी, आलोक ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो, अभी चेंज मत करो.’’

‘‘थोड़ा लेटने का मन है, शाम को फिर बदल लूंगी.’’

‘‘नहीं मौम, आज नो रैस्ट,’’ तनु और राहुल भी शुरू हो गए.

मैं ने कहा, ‘‘अच्छा ठीक है, फिर कौफी बना लेती हूं.’’

तनु ने फौरन कहा, ‘‘अभी तो लंच किया है मौम, थोड़ी देर बाद पीना.’’

मैं हैरान हुई. पर चुप रही. तनु और राहुल थोड़ा बिखरा हुआ घर ठीक करने लगे. मैं और हैरान हुई, पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ कोई कुछ नहीं बोला. फिर दरवाजे की घंटी बजी तो राहुल ने कहा, ‘‘मौम, हम देख लेंगे, आप बैडरूम में जाओ प्लीज.’’


अब, मैं सरप्राइज का कुछ अंदाजा लगाते हुए बैडरूम में चली गई. आलोक आ कर कहने लगे, ‘‘अब इस रूम से तभी निकलना जब बच्चे आवाज दें.’’

मैं ‘अच्छा’ कह कर चुपचाप तकिए का सहारा ले कर अधलेटी सी अंदाजे लगाती रही. थोड़ीथोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजती रही. बाहर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. 4 बजे बच्चों ने आवाज दी, ‘‘मौम, बाहर आ जाओ.’’

मैं ड्राइंगरूम में पहुंची. मेरी घनिष्ठ सहेलियां नीरा, मंजू, नेहा, प्रीति और अनीता सजीधजी चुपचाप सोफे पर बैठी मुसकरा रही थीं. सभी ने मुझे गले लगाते हुए बधाई दी. उन से गले मिलते हुए मेरी नजर डाइनिंग टेबल पर ट्रे में सजे नाश्ते की प्लेटों पर भी पड़ी.

‘‘अच्छा सरप्राइज है,’’ मेरे यह कहने पर तनु ने कहा, ‘‘मौम, सरप्राइज तो यह है’’ और मेरा चेहरा सैंटर टेबल पर रखे हुए केक की तरफ किया और अब तक के अपने जीवन के सब से खूबसूरत उपहार को देख कर मिश्रित भाव लिए मेरी आंखों से आंसू झरझर बहते चले गए. मेरे मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली. भावनाओं के अतिरेक से मेरा गला रुंध गया. मैं तनु के गले लग कर खुशी के मारे रो पड़ी.

केक पर एक तरफ 10 साल पहले छपी मेरी पहली कहानी और दूसरी तरफ लेटेस्ट कहानी का प्रिंट वाला फौंडेंट था, बीच में डायरी और पैन का फौंडेंट था. कहानी के शीर्षक और पन्ने में छपे अक्षर इतने स्पष्ट थे कि आंखें केक से हट ही नहीं रही थीं. मैं सुधबुध खो कर केक निहारने में व्यस्त थी. मेरी सहेलियां मेरे परिवार के इस भावपूर्ण उपहार को देख कर वाहवाह कर उठीं. प्रीति ने कहा भी, ‘‘कितनी मेहनत से तैयार करवाया है आप लोगों ने यह केक, मेरी फैमिली तो कभी यह सब सोच भी नहीं सकती.’’ सब ने खुलेदिल से तारीफ की, और केक कैसे, कहां बना, पूछती रहीं. फूडफूड चैनल के एक स्टार शैफ को और्डर दिया गया था.


मैं भर्राए गले से बोली, ‘‘यह मेरे जीवन का सब से खूबसूरत गिफ्ट है.’’  अनीता ने कहा, ‘‘अब आंसू पोंछो और केक काटो.’’

‘‘इस केक को काटने का तो मन ही नहीं हो रहा है, कैसे काटूं?’’

नीरा ने कहा, ‘‘रुको, पहले इस केक की फोटो ले लूं. घर में सब को दिखाना है. क्या पता मेरे बच्चे भी कुछ ऐसा आइडिया सोच लें.’’

सब हंसने लगे, जितनी फोटो केक की खींची गईं, उन से आधी ही लोगों की नहीं खींची गईं.

केक काट कर सब को खिलाते हुए मेरे मन में तो यही चल रहा था, कितना मुश्किल रहा होगा मेरी अलमारी से पहली और लेटेस्ट कहानी ढूंढ़ना? इस का मतलब तीनों को पता था कि सब से बाद में कौन सी पत्रिका आई थी. और पहली कहानी का नाम भी याद था. मेरे लिए तो यही बहुत बड़ी बात थी.


मैं क्यों कुछ दिनों से उलझीउलझी थी, अपराधबोध सा भर गया मेरे मन में. आज अपने पति और बच्चों का यह प्रयास मेरे दिल को छू गया था. क्या हुआ अगर घर में कोई मेरे शब्दों, कहानियों को नहीं समझ पाता पर तीनों मुझे प्यार तो करते हैं न. आज उन के इस उपहार की उष्मा ने मेरे मन में कई दिनों से छाई उदासी को दूर कर दिया था. तीनों मुझे समझते हैं, प्यार करते हैं, यही प्यारभरी सचाई है और मेरे लिए इतना बहुत है.

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