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कहानी: लंच बौक्स

रश्मि बिना पहल किए कोई भी कदम नहीं उठाती थी, किसी से दोस्ती करने से पहले दस बार पहल करती.

क्या बात है रश्मि, बौस का लंच बौक्स बड़े प्यार से भरा जा रहा है,” नरेश ने शैतानी से मुसकरा कर आंखें नचाते हुए कहा.

“हां, हां, क्यों नहीं,” रश्मि मुसकरा कर बोली, “आखिर बौस किस का है.”

रश्मि सब के लंच बौक्स पैक कर रही थी – पति का, बेटे का, बेटी का, और अपना खुद का, तभी पति की ओर से यह टिप्पणी मिली.

इस बीच नरेश ने रश्मि को छेड़ने के लिए अपना मनपसंद गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया, ‘‘चाहने वाले तुम्हें और भी हैं.’’

इसे भी नजरअंदाज कर रश्मि दफ्तर जाने के लिए कपड़े बदलने के लिए चली गई.

हर कामकाजी महिला की तरह रश्मि की सुबह का एकएक मिनट गिना हुआ होता था, जिस में किसी तरह के नए काम के लिए स्थान नहीं था, चाहे वह मजाक पर हंसना या उस का जवाब देना ही क्यों न हो.

हालांकि खाना बनाने का काम नौकरानी करती थी, लेकिन लंच पैक करने का काम वह खुद ही करती थी.

दफ्तर, परिवार, घर, इन सब के बीच समय कहां उड़ जाता था, पता ही नहीं चलता था. फिर भी वह समय निकाल कर घर के छोटेछोटे काम खुद ही करने की कोशिश करती थी, जिस से सब लोगों के प्रति उस के प्रेम का प्रदर्शन होता था और उसे खुशी का एहसास होता था.

इस समय उसे अपनी दादी और नानी (मुहावरे के तौर पर नहीं) दोनों याद आती थीं. उस की दादी बहुत ही ऐशोआराम में पली थीं. उसे अपनी उंगली तक हिलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी.

उधर नानी के पास सबकुछ था, लेकिन वे खुद काम करने में विश्वास रखती थीं और हर समय दौड़तीभागती ही रहती थीं. रश्मि हमेशा चाहती थी कि दादी की तरह जिंदगी गुजरे, लेकिन नियति ने उसे नानी की जिंदगी गुजारने पर ला कर छोड़ दिया था.

रश्मि बडे़ उमंग से औफिस जाने की तैयारी कर रही थी. क्यों न हो, उस का साथी कर्मचारी अनिल अब उस का बौस बन कर जो आ गया था. इस से पहले वह क्षेत्रीय कार्यालय में काम करता था. उस की पत्नी और बेटा कोलकाता में रहते थे. वह मुख्यालय में अकेला ही आया था.

रश्मि अनिल को उस दिन से जानती थी, जब वह पहले दिन इस दफ्तर में आई थी. इस से पहले वह बड़े पब्लिक स्कूल में काम किया करती थी.

यों तो रश्मि का सरकारी नौकरी के प्रति कोई आकर्षण नहीं था, लेकिन परिवार के लोगों और मित्रों ने जब जोर दे कर कहा कि उसे यह नौकरी कर लेनी चाहिए, क्योंकि सरकारी नौकरी में कुछ और हो न हो, नौकरी की सुरक्षा जरूर रहती है, तो वह इस नौकरी में चली आई, और अब हर पल पछताती रहती थी कि उस ने लोगों की बात क्यों मानी.

प्राइवेट स्कूल का माहौल अलग था, जबकि सरकारी दफ्तर का माहौल बिलकुल अलग. दोनों में जमीनआसमान का अंतर था. स्कूल का परिवेश साफसुथरा था और हर समय जैसे जगमगाता रहता था.
स्कूल में सब लोग सजेधजे, साफसुथरे काम पर आते थे और तहजीब से पेश आते थे. लेकिन, यहां इतनी साफसफाई, नफासत और सलीका न तो परिवेश में ही था और न ही लोगों में.

रश्मि अपने परिवेश को देखती थी और लोगों को देखती थी. अकसर वह कुढ़ती रहती थी कि किस घड़ी में उस ने फैसला किया कि स्कूल को छोड़ कर यहां इस सरकारी दफ्तर में आ मरी.

लेकिन, जब उस ने अनिल को देखा, जो बिलकुल हीरो जैसा लगता था, तो उसे लगा कि चलो, यहां भी कुछ लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें देखा जा सकता है.

रश्मि पहले दिन दफ्तर में खूब सजधज कर गई. जल्द ही सभी उस से प्रभावित हो गए. उस की चर्चा पूरे औफिस में थी.

एक दिन अनिल किसी काम से उस के विभाग में आया और उस के पास आ कर बहुत संजीदगी से बोला, “क्या मैं आप से एक बात पूछ सकता हूं?”

“हां, हां, क्यों नहीं?” रश्मि ने कहा.

“यह आज चांद दिन में कैसे निकला है?”

इस के जवाब में रश्मि ने तुरंत खिड़की से बाहर देखते हुए कहा था, “अच्छा देखूं.”

खिड़की के बाहर कोई चांद नहीं था. इस बीच मौका देख कर अनिल वहां से खिसक गया.

रश्मि की समझ में नहीं आया था कि आखिर उस ने यह सवाल क्यों पूछा था.

पूरे दिन यह बात उस के दिमाग में घूमती रही और जब वह घर वापस जा रही थी तब उसे समझ आया कि वह क्या कहना चाहता था. इस पर वह खूब हंसी थी.

हालांकि दोनों का ही आमनासामना बहुत कम होता था, क्योंकि दोनों के विभाग अलगअलग थे.

अनिल को अकसर लोग खासतौर से लड़कियां और महिलाएं घेरे रहती थीं, और रश्मि का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह अपनी ओर से पहल कर के किसी तरह की दोस्ती की तरफ कदम बढ़ाए.

फिर वे एक लंबे अरसे तक एकदूसरे के संपर्क में नहीं रहे. अनिल कुछ सालों के लिए काम के सिलसिले में विदेश चला गया.

जब अनिल विदेश का अपना कार्यकाल समाप्त कर के लौटा, तो उस की तरक्की हो गई और उस का क्षेत्रीय केंद्र में तबादला कर दिया गया.

एक बार रश्मि की बेटी को मैडिकल प्रतियोगिता की परीक्षा में भाग लेने के लिए उस शहर में आना था, जहां अनिल की पोस्टिंग थी, तो रश्मि ने हालांकि कुछ संकोच के साथ उसे फोन कर के इस बारे में जानकारी दी और पूछा कि क्या वह इस सिलसिले में उस की बेटी और उस के साथ जा रहे पति के लिए कुछ व्यवस्था कर सकता है?

रश्मि ने जैसे अपना फैसला सुनाते हुए कहा, “जरूरत थी, इसीलिए लाई हूं. और अब हर रोज मैं लंच ले कर आऊंगी
क्षेत्रीय निदेशक होने के नाते अनिल के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी. उस ने अपने रसूख का इस्तेमाल कर के न केवल उन के आनेजाने की व्यवस्था कर दी, बल्कि शहर में रहने का अच्छा इंतजाम भी कर दिया.

इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि अनिल को कुछ महीनों के लिए दिल्ली यानी रश्मि के कार्यालय में काम करना पड़ा.

इस दौरान उन की दोस्ती थोड़ी और आगे बढ़ी. दोनों अकसर ही दोस्तों के साथ चाय वगैरह के समय मिल जाते थे और कुछ हंसीमजाक और आपसी बातों के लिए समय निकाल लेते थे.

यह सिलसिला ज्यादा समय तक नहीं चल पाया, क्योंकि अनिल जल्दी ही वापस लौट गया. लेकिन उन की दोस्ती का सिलसिला चल निकला. दोनों अकसर फोन पर बातें करते. एकदूसरे से बात कर के दोनों को खुशी मिलती थी.

जब भी निजी तौर पर या काम के सिलसिले में अनिल मुख्यालय आता, तो कोई न कोई ऐसी व्यवस्था हो जाती थी कि दोनों की मुलाकात होती.

अंगरेजी की एक कहावत है कि समान पंखों वाले पक्षी एकसाथ उड़ते हैं. मतलब, अगर हम में कुछ समानताएं हैं, तो हम एकदूसरे की तरफ आकर्षित होते हैं.

लेकिन, क्या यह इतना सीधा है? ऐसा भी होता है कि जब हमें हमारी पूरक चीज मिलती है तो भी हम उस की तरफ आकर्षित हो सकते हैं.

वहीं बात यह भी हो सकती है कि जहां हमें सम्मान मिलता है, या जहां हमें सुख मिलता है, हम वहां रहने की ज्यादा कोशिश करते हैं.

अनिल की फिर से तरक्की हुई और वह रश्मि के विभाग का निदेशक बन कर मुख्यालय में आ गया. इस में प्रकट रूप से सब से ज्यादा खुशी रश्मि को ही हुई. उस ने न केवल उस का भरपूर स्वागत किया, बल्कि कह भी दिया कि वह इस बात से बहुत खुश है. उस के स्वागत में उस ने पारिवारिक लंच भी रखा.

बातोंबातों में अनिल ने बताया कि वह अकेला ही आया है और मुख्यालय में काम के दौरान उसे अकेले ही शहर में रहना है.

रश्मि ने स्वाभाविक रूप से उस के खाने, रहने और बाकी इंतजामों के बारे में पूछताछ की. अनिल ने बताया कि वह बाहर से खाना मंगवा लेता है और घर की सफाई, कपड़ों की धुलाई वगैहर के लिए नौकरानी आती है.

इस बातचीत के अगले ही दिन दफ्तर में रश्मि ने इंटरकौम पर अनिल को बताया कि वह उस के लिए लंच लाई है. साथ ही, उस ने जोर देते हुए कहा, “लंच खा लेना.”

यह सुन कर अनिल को झटका सा लगा, उस के मुंह से निकला, “क्यों…?”

“क्योंकि, दोपहर को भूख लगती है?” रश्मि ने कहा.

“मेरा मतलब है कि लंच लाने की जहमत क्यों की?” अनिल ने बात साफ की.

रश्मि ने सरलता से कहा, “खाने के लिए?”

अनिल ने संकोच से कहा, “लेकिन, तुम्हें इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत थी?”

रश्मि ने कहा, “इस में तकलीफ जैसी कोई बात नहीं है. मेरे घर में खाना बनाने के लिए नौकरानी आती है. मेरा काम सिर्फ इसे लाने का है. इस से कम से कम तुम्हें दिन के समय तो घर का खाना मिल जाएगा. और इस में ज्यादा बहस करने की गुंजाइश नहीं है. चुपचाप खाना खा लेना.”

अनिल को अभी भी संकोच था, “इस की क्या जरूरत थी भला?”

रश्मि ने जैसे अपना फैसला सुनाते हुए कहा, “जरूरत थी, इसीलिए लाई हूं. और अब हर रोज मैं लंच ले कर आऊंगी.”

अनिल रश्मि द्वारा लंच लाने की बात से खुश तो था कि हां, कोई तो ध्यान रखने वाला है, लेकिन वह यह भी नहीं चाहता था कि इस के लिए रश्मि को परेशानी उठानी पड़े.

दूसरी बात यह थी कि अगर रश्मि रोज लंच ले कर आएगी, तो यह बात छिपी नहीं रहेगी और दफ्तर में सब को पता चल जाएगा. इस पर तरहतरह की बातें बनेंगी, हंसीमजाक बनेगा. बल्कि यह भी संभावना थी कि दोनों के परिवार के लोगों, मतलब एक के पति और दूसरे की पत्नी में भी इस बात को ले कर कुछ मनमुटाव हो सकता है.

उसे चिंता इस बात को ले कर भी थी कि रश्मि का पति क्या सोचेगा? साथ ही, यह भी चिंता थी कि खुद उस की पत्नी ऐसी बातें जान कर क्या कहेगी.
लेकिन, इन सब के बावजूद वह इस प्यार के व्यवहार को स्वीकार करने से मना नहीं कर सका.

ऐसा नहीं था कि रश्मि को अनिल के लिए खाना लाने के लिए घर से कुछ छिपाने की जरूरत हो. यह काम उस ने अपने पति की सहमति के साथ किया था.

पति को इस बात से कोई एतराज नहीं था, इसलिए उस ने हां कर दी थी. यहां तक कि वह इस काम का समर्थन दर्शाने के लिए नया लंच बौक्स भी खरीद कर ले आया था.

बौस के लिए लंच लाने के काम को रश्मि ने बड़ी शिद्दत से निभाया. जब कभी उस की नौकरानी छुट्टी पर होती, तो वह खुद ही लंच बनाती और ले जाती.

नरेश और रश्मि का प्रेम विवाह हुआ था. रश्मि ने उसे 5 साल तक अपने आगेपीछे चक्कर लगाने के बाद ही शादी के लिए हां की थी.

इस बीच नरेश की बहन भी रश्मि को मनाने के लिए उस से मिली थी. यह विवाह बहुत आसान नहीं था, खासतौर से रश्मि के लिए. क्योंकि दोनों ही अलगअलग समाज के थे.

रश्मि का समाज थोड़ा पुरातनपंथी था और अपने समाज से बाहर विवाह करने के बारे में वे लोग सोच भी नहीं सकते थे.

रश्मि ने तो इस शादी के लिए हां कर दी, लेकिन उस के पिता ने ना कर दी और कह...

रश्मि की बात सुन कर नरेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बहुत मानमनौव्वल की और अपनी बेचारगी जैसा कुछ समझाया, माफी मांगी और वादा किया कि वह उस लड़की का साथ छोड़ देगा.

रश्मि ने इस काम के लिए अपने चाचा की मदद लेने की सोची. किसी तरह उस ने अपने चाचा के साथ नरेश को मिलाने का इंतजाम करवाया.

चाचा उस से मिले, लेकिन उन्होंने भी बिना लागलपेट के कह दिया, “हमें यह शादी मंजूर नहीं है. हम रश्मि के लिए अपने समाज में ही लड़का ढूंढ़ रहे हैं.”

नरेश यह सुन कर मायूस हुआ, पर उस ने हिम्मत नहीं हारी. उस ने संभल कर कहा, “ठीक है, आप ढूंढ़ लीजिए, और अगर लड़का नहीं मिला, तो प्लीज, मेरी शादी रश्मि से करवा दीजिएगा.”

चाचा ने कहा, “ऐसी कोई बात नहीं है. लड़का मिल जाएगा. ऐसे कामों में समय लगा करता है. आप भी कब तक इंतजार करेंगे.”

इस पर नरेश ने कहा, “जब तक आप कहेंगे, मैं इंतजार करूंगा.’’

चाचा ने कहा, “इस में सालों भी लग सकते हैं.”

नरेश ने जवाब दिया, “फिर भी मैं इंतजार करूंगा.”

चाचा को नरेश की इस बात ने बहुत प्रभावित किया. मतलब, नरेश का तीर सही निशाने पर लगा था.

चाचा ने अपने भाई को बताया कि लड़का बहुत ही नेक और शरीफ है. वह रश्मि को खुश रखेगा. रश्मि से शादी के लिए इस पर विचार किया जा सकता है.

इस तरह काफी जद्दोजहद के बाद नरेश को रश्मि मिल पाई.

शादी के बाद इतने सालों बाद भी नरेश को कभी नहीं लगा कि उस ने रश्मि के साथ शादी कर के कोई गलती की है, क्योंकि रश्मि ने ईमानदारी और निष्ठा से अपना पत्नी धर्म निभाया था. उस ने पूरा घर संभाला, नरेश को पूरा सुख दिया.

कहते हैं कि सुंदरता के सभी शिकारी… रश्मि की सुंदरता के कारण लोग उस के आगेपीछे घूमते थे, उस से बातें करना चाहते थे और दोस्ती करना चाहते थे.

रश्मि सीमा में रह कर लोगों से मिलतीजुलती थी. इस संबंध में वह पहले ही नरेश को सबकुछ बता दिया करती थी, ताकि किसी तरह की कोई गलतफहमी न रहे.

उस ने तय किया था कि वह चोरीछिपे ऐसा कोई काम नहीं करेगी, ताकि उन के विवाह के संबंध में कोई तनाव आए.

नरेश रश्मि को “चाहने वाले तुम्हें और भी हैं” गाना सुना कर इस बात के लिए छेड़ा करता था. दोनों इस पर खूब हंसा करते थे. दोनों इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि वे दोनों एकदूसरे के प्रति ईमानदार हैं.

ऐसा नहीं था कि दोनों में कभी गलतफहमी हुई ही नहीं, ऐसे में रश्मि यह समझा कर नरेश को शांत करती कि दुनिया में कोई किसी का स्थान नहीं ले सकता.

तुम मेरे पति हो और पति के स्थान पर ही रहोगे, कोई दूसरा इस स्थान पर नहीं आ सकता.
ठीक इसी तरह से अगर कोई मेरा दोस्त है, तो वह दोस्त ही रहेगा और उस का स्थान कोई नहीं ले सकता यानी नरेश खुद भी नहीं ले सकता. हालांकि, उस ने उस का नाम नहीं लिया.

जया के आने से पहले सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. जया नरेश के औफिस में एक सहकर्मी थी, जो उस पर लट्टू हो गई.

जया की अभी शादी नहीं हुई थी और वह नरेश के साथ अपने संबंध को परिणति देना चाहती थी. सप्ताहांत पर वह गाहेबगाहे जानबूझ कर ऐसे मौकों पर और ऐसे समय पर नरेश को फोन करने लगी, जो आपत्तिजनक था.

एक दिन रश्मि अपनी सहेली के साथ फिल्म देखने गई और उस ने अगली सीट पर ही नरेश और जया को बैठे देखा.

फिल्म खत्म होने के बाद रश्मि ने अपने पति नरेश को फोन किया और पूछा कि वह कहां है? तो उस ने साफ झूठ बोला कि वह तो औफिस की मीटिंग में बिजी है.

नरेश रात को काफी देर से आया. पूछने पर उस ने बताया कि मीटिंग काफी लंबी चली.

यह सुन कर उसे काफी तकलीफ हुई. एक तरह से उस का विश्वास ही हिल गया. वह बहुत ही विचलित हो गई. उसे लगा, जैसे उस का संसार ही उजड़ा जा रहा है. न तो उस का दफ्तर के काम में मन लगता, न घर में ही. बच्चे कुछ बात करते, तो वह झल्ला उठती और बातबेबात उन्हें डांटने लगती.

नरेश तो खैर उस के सामने ही नहीं पड़ता था. रश्मि की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बात भी कुछ ऐसी ही थी कि वह किसी को बता भी नहीं सकती थी. क्योंकि सब उसी का दोष निकालते कि वह पति को काबू में नहीं रख पाई.

बौस अनिल ने रश्मि को इस हालत में देखा तो पूछा, “क्या बात है? तुम्हारी तबीयत ठीक तो है न?”

अब तो जैसे सब्र का बांध ही टूट गया. रश्मि लगभग रो दी, और उस ने सारी बात उसे बता दी.

उस ने रश्मि को समझाया कि यह कोई अनोखी बात नहीं है. पतिपत्नी के बीच अकसर ऐसा हो जाता है. वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है, इसलिए उसे किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है.

इस मामले में वह अपना मत बिना किसी लागलपेट और शर्मलिहाज के पति के सामने स्पष्ट कर दे.

अनिल से बात कर के रश्मि की हिम्मत लौट आई. उसे रास्ता साफ होता नजर आया. उस ने वही किया.

रश्मि की बात सुन कर नरेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बहुत मानमनौव्वल की और अपनी बेचारगी जैसा कुछ समझाया, माफी मांगी और वादा किया कि वह उस लड़की का साथ छोड़ देगा.

इस पर रश्मि ने बहुत सपाट ढंग से बस इतना ही कहा, “इसी में सब की भलाई है.”

लेकिन, रश्मि नरेश की इस बेईमानी को माफ नहीं कर पाई. उसे लगा कि अगर वह नरेश के साथ इतनी ईमानदारी से चल रही है, तो फिर नरेश ने उसे धोखा देने की हिम्मत कैसे की.

उस के सामने बारबार एक ही सवाल खड़ा हो जाता था कि आखिर नरेश ने उसे धोखा क्यों दिया?

उसे लगा कि वह तो पूरी ईमानदारी से अपना धर्म निभा रही है, लेकिन मर्द तो मर्द ही होता है की तर्ज पर नरेश ऐसा नहीं कर रहा. रश्मि के दिल में एक तरह से बदले की भावना ने जन्म ले लिया.

उसे लगा कि नरेश को सबक सिखाने की जरूरत है, परिवार के महत्व और परिवार से इतर संबंधों का मतलब समझाने की जरूरत है.

रश्मि भूल गई कि बदला लेने के जुनून में हम समझ नहीं पाते कि सामने वाले व्यक्ति को जितना दुख पहुंचाते हैं, उस से ज्यादा नुकसान हम अपना करते हैं.

रश्मि ने खासतौर पर अनिल के लिए उस के मनपसंद रसगुल्ले बनाए और लंच में उस की पसंद की चीजें रखीं. जबकि नरेश के लिए साधारण लंच रखा. यह सब उसे जलाने के लिए किया था.

विवाह से पहले ही समाज की विभिन्न स्थितियों ने, लोगों की उस पर पड़ने वाली नजरों ने, समाज में स्त्रियों के प्रति होते जघन्य अपराधों ने, समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मानहीनता की भावना ने, उस के अपने मातापिता ने, और खुद उस की विवेक बुद्धि ने रश्मि को समझा दिया था कि स्त्री होने का मतलब एक ही चीज है और कोई भी पुरुष उसी चीज की लालसा से स्त्री के पास आता है और स्त्री का एकमात्र काम उस चीज को बचाए रखना है.

उसे सिमोन डे बौयर की वह बात याद आती थी, जिस में उस ने बहुत अच्छे शब्दों में कहा था कि स्त्री जन्म नहीं लेती, उसे स्त्री बनाया जाता है.
पराए मर्दों को अपना दुश्मन समझना और एक तरह से घरघुसिया हो कर ही रह जाना, रश्मि को स्त्री का यही धर्म समझाया गया था, और यही उस ने अपना लिया था.

विवाह से पहले रश्मि अपने मातापिता के संरक्षण में सुरक्षित रही और विवाह के बाद उस ने अपने पति, बच्चों और रिश्तेदारों को ही अपना दायरा मान लिया.

उस ने देखा था कि अगर कोई स्त्री किसी पुरुष से हंस कर दो बातें भी कर लेती है, तो वह और दूसरे लोग भी उसे उस की  प्रेमिका समझने में देर नहीं लगाते. तुरंत बातें होने लगती हैं और यहां तक पहुंच जाती हैं कि दोनों में शारीरिक संबंध हैं.

स्त्री जहां पुरुषों में मित्रता, सहृदयता, उदारता, करुणा और अपनेपन की भावना तलाशती है, तो वहीं पुरुष की उस के रूपरंग, शरीर के आकारप्रकार पर ही नजर रहती है. अंतर बस इतना हो सकता है कि कुछ इस मामले में इतने निर्लज्ज होते हैं कि अपनी अंतिम भावनाओं को छिपाते नहीं हैं, और कुछ इतने संवेदनशील, इतने संकोची होते हैं कि अपनी भावनाओं का पता ही नहीं चलने देते.

लेकिन, कुलमिला कर दोनों प्रकार के लोगों का लक्ष्य एक ही होता है. जिस काम के लिए स्त्री को खुद को भावनात्मक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है, उस के लिए पुरुष को केवल स्थान की जरूरत होती है.

ऐसा नहीं था कि रश्मि को पुरुषों का साथ पसंद नहीं था. हकीकत यह थी कि वह स्त्रियों के मुकाबले पुरुषों का साथ ज्यादा पसंद करती थी. उस ने स्त्रियों के व्यवहार में एक तरह की रूटीन बातें देखी थी. वे ही घिसीपिटी घरगृहस्थी की बातें या दफ्तर की गौसिप. वहां उसे स्वार्थपरता और संकीर्णता भी नजर आती थी.

वहीं, पुरुषों में यह स्वार्थपरता और संकीर्णता नजर नहीं आती थी, लेकिन वहां स्वार्थपरता और संकीर्णता के दूसरे ही मायने हो जाते थे. यही वजह थी कि वह इन चीजों से दूर ही रहती थी. उस ने अपने लिए एक ऐसा कवच जैसा बना लिया था, जिसे भेद पाना पुरुषों के लिए मुश्किल था.
रश्मि को ऐसी फिल्में भी पसंद नहीं आती थीं, जिस में स्त्री को केवल प्रदर्शन की वस्तु के रूप में दिखाया जाता, यानी उसे ज्यादातर हिंदी फिल्में पसंद नहीं आती थीं. उस की अकसर लोगों से खूब बहस हो जाती थी, जब वे स्त्री की कुशलता, बुद्धिमत्ता, कर्मठता आदि को मान्यता देने के बजाय इस बारे में बात करते थे कि स्त्री के आगे बढ़ने का कारण मुख्य रूप से उस का स्त्री होना ही है.

उन की बातें सुन कर रश्मि अकसर सोचा करती थी कि अगर सिर्फ बुद्धिमत्ता, कर्मठता, कुशलता आदि ही ज्यादा महत्व की वस्तुएं हैं, तो स्त्रियां इतना सजतीसंवरती क्यों हैं? वे किस के लिए सोलह सिंगार कर के घर से बाहर निकलती हैं? ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि वे ऐसा अपने लिए ही करती हैं, क्योंकि सजनेधजने के बाद वे चाहती हैं कि लोग उन्हें देखें, उन की तारीफ करें, उन्हें पसंद करें.
खुद उसे भी अच्छे ढंग से रहना, बननासंवरना, अच्छे कपड़े पहनना पसंद आता था. लोग उसे देखें, पसंद करें, तारीफ करें, यह अच्छा लगता था. लेकिन इस सब के माध्यम से अगर पुरुष उस के साथ सिर्फ शारीरिक संबंध ही बनाना चाहते थे, तो यह उस की समझ के परे की बात थी. ऐसे में वह नरेश से कैसे बदला ले कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

नरेश के सामने अपनी अहमियत जताने के इरादे को अंजाम देने के लिए सब से पहले रश्मि को अनिल की याद आई.

रश्मि ने उसे फोन किया और उस के साथ अपनी दोस्ती को प्रेम में बदलने का निश्चय किया. दोनों एकदूसरे के साथ बाहर जाने लगे, जिस के द्वारा रश्मि यह दिखाना चाहती थी कि नरेश की तरह वह भी कर सकती है, उस के पास किसी तरह की कमी नहीं है.

इस संबंध में भी रश्मि ने अपनी सीमा को बनाए रखा. उस ने किसी तरह की लक्ष्मण रेखा पार नहीं की. और शायद यही कारण था कि यह संबंध बहुत आगे नहीं जाने वाला था.

एक बार ऐसा हुआ कि उस ने अनिल के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बनाया. रश्मि तो वहां समय पर पहुंच गई, पर वह बिना कोई सूचना दिए नहीं आया.

रश्मि को आघात जैसा लगा. उस की समझ में नहीं आया कि इस धोखे को वह किस तरह से बरदाश्त करे.

जब रश्मि को कुछ और नहीं सूझा, तो उस ने बिना सोचेसमझे नरेश को फोन किया, सारी स्थिति बताई और कहा कि वह बहुत बेचैन है. वह उसे तुरंत आ कर ले जाए.

नरेश रश्मि को लेने चला गया. उस का मूड ठीक करने की नरेश ने भरसक कोशिश की. अच्छा खाना खिलाया और मौल में घुमाया. उस के लिए उपहार खरीदे. यहां तक कि उसे खुश करने के लिए अनिल को फोन भी किया.

नरेश के लिए इस सारे प्रसंग में आशा की एक किरण यह थी कि वह समझ रहा था कि इस घटना के बाद शायद अनिल के साथ रश्मि का मिलनाजुलना कम हो जाए.

हालांकि रश्मि द्वारा अनिल के लिए रोजरोज लंच लाने की बात उसे जंच नहीं रही थी. जब  रश्मि को छुट्टी लेनी पड़ती थी, ऐसे दिनों में वह नरेश से उस के लिए लंच ले जाने की पेशकश करती थी.

कहा जाता है कि पुरुष के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर गुजरता है. पता नहीं, यह बात यहां कितनी लागू होती है, लेकिन यह जरूर हुआ कि उन दोनों की प्रगाढ़ता बढ़ने लगी. वे अकसर बाहर मिलते, दफ्तर से घर पहुंचने पर फोन पर लंबीलंबी बातें होतीं.

रश्मि अनिल की एकएक चीज के बारे में पता करने की कोशिश करती और दूर रहते हुए भी उस की हर जरूरत का खयाल रखने की कोशिश करती. उसे सलाह देती, कोंचकोंच कर पूछती रहती थी कि खाना खाया कि नहीं?

कुलमिला कर वह अनिल के लिए एक तरह से भौतिक और मानसिक दोनों तरह का संबल बनती चली गई. उधर रश्मि का पति, बेटा और बेटी, उस की मां, बहन, भाई, सहेलियां और बाकी दूसरे रिश्तेदार भी उस से हमेशा शिकायत करने लगे कि भई तू रहती कहां है? जब भी फोन करते हैं, तो तेरा फोन बिजी रहता है. तू हम से बहुत कम मिलती है.

जवाब में या तो रश्मि मुसकरा देती या इस का जवाब टाल देती, क्योंकि उसे पता था कि उस का ज्यादातर समय अब अनिल के लिए निर्धारित हो गया था, जिसे वह किसी को बता नहीं सकती थी.

नरेश को कुछ संदेह होने लगा था कि यह बात अब लंच ले जाने तक ही सीमित नहीं रही और आगे बढ़ चुकी है.

वह रश्मि पर संदेह नहीं करना चाहता था, लेकिन शायद उस दायरे में घुसने की कोशिश करने लगा था.

एक बार जब नरेश ने रश्मि को दफ्तर में फोन कर के बताया कि आज का लंच बहुत अच्छा था, तो रश्मि ने कहा कि हां, क्यों अच्छा नहीं होगा. आखिर किस की देखरेख में बनता है. और तुम ही नहीं, बहुत सारे लोग तारीफ करते हैं.

नरेश समझ गया कि उस का इशारा अपने बौस की तरफ था, लेकिन वह कुछ बोला नहीं. बोलता भी क्या.

एक बार नरेश का जन्मदिन था, तो उस ने देखा कि रश्मि रसोई में कुछ काम कर रही है और फोन पर बातें भी कर रही है.

यह देख नरेश को गुस्सा आ गया. वह चिल्ला कर बोला, “यह क्या मतलब है? किसी दिन तो हमारे लिए भी समय निकाल लिया करो.”

रश्मि ने फोन काट दिया. लेकिन, वह अपनी नाराजगी दिखाने से बाज नहीं आई. उस ने नरेश को सख्ती से कहा, “इस तरह की झल्लाहट ठीक नहीं है. अगर तुम्हें कोई चीज गलत लगती है, तो सीधेसीधे कह दो. मैं उसे तुरंत बंद कर दूंगी.”

नरेश को बात बदल कर कहना पड़ा, “भई, आज मेरा जन्मदिन है. आज का दिन तो मेरा अपना दिन है. इसलिए तुम्हारा सारा समय मेरे लिए होना चाहिए.”

और इस तरह से बात को रफादफा करने की कोशिश की, लेकिन इस का खमियाजा उसे कुछ दिन तक तो रश्मि को मनाने में लगाना पड़ा, क्योंकि इस बात से रश्मि का मन फिर से उखड़ गया था.

नरेश को सबक सिखाने के चक्कर में रश्मि अपने और अनिल के रिश्ते को खुद ही समझ नहीं पा रही थी. वह नरेश से बहुत प्यार करती थी, पर उसे सबक भी सिखाना चाहती थी. इसी उधेड़बुन में वह बीमार रहने लगी. उस ने कुछ दिनों के लिए औफिस से छुट्टी ले ली.

अब अनिल को लंच कैसे पहुंचाया जाए, यह समस्या उस के सामने खड़ी थी. उस ने नरेश को ही यह काम सौंपा. नरेश न चाहते हुए भी इस काम के लिए तैयार हो गया

अगली सुबह रश्मि ने खासतौर पर अनिल के लिए उस के मनपसंद रसगुल्ले बनाए और लंच में उस की पसंद की चीजें रखीं. जबकि नरेश के लिए साधारण लंच रखा. यह सब उसे जलाने के लिए किया था. नरेश ने अपनी चिढ़ छिपाते हुए स्थिति को संभालने की कोशिश की.

और फिर नरेश ने रश्मि को छेड़ने के लिए कहा, “क्या बात है, बहुत प्यार से बौस के लिए लंच लगाया जा रहा है. आज तो मैं इसे ले जाऊंगा.”

रश्मि ने नरेश की बात को मजाक समझ कर टाल दिया, लेकिन हंसीहंसी में जानबूझ कर नरेश बौस का ही लंच बौक्स ले कर चलता बना.

रश्मि रसोईघर में लौटी, तो उस ने देखा कि नरेश का लंच बौक्स वहीं पड़ा है और बौस का नदारद है.

यह देख रश्मि को नरेश पर बेहद गुस्सा आया कि देखो, बौस का लंच खुद खाने के चक्कर में अनिल क्या खाएगा, यह भी नहीं सोचा.

अगले दिन भी नरेश ने यही किया. यह देख रश्मि बेहद परेशान थी. वह सोचने लगी कि अब क्या वह बौस के लिए अपने पति का लंच बौक्स ले कर जाए.

वह तुरंत तैयार हो कर पति नरेश का लंच ले कर औफिस के लिए निकल पड़ी. वहां अनिल उसे देख कर बोला, ‘‘अरे, बीमारी की हालत में तुम क्यों औफिस आई हो?’’

इस पर रश्मि ने लंच न पहुंचाने के लिए माफी मांगी और पति नरेश वाला लंच बौक्स उसे दिया. अनिल ने बेहद हैरान होते हुए कहा, ‘‘माफी किसलिए…? लंच तो रोज नरेश दे कर जा रहे हैं.’’

अब रश्मि हैरानपरेशान थी. उस ने मन में सोचा कि फिर नरेश इतने दिनों से क्या खा रहे हैं ?

वह जानती थी कि नरेश बाहर का खाना नहीं खाते हैं, वह उसी समय नरेश के औफिस पहुंची. और वह लंच नरेश को भिजवाया. नरेश उसे बेहद प्यार करते हैं, उसे यह समझ में आ चुका था.

नाहक ही नादानी में वह उस से बदला लेने चली थी. एक अनिल था, जो उसे लेने तक नहीं आया और एक नरेश हैं, जो नाराज हो कर भी अपनी पत्नी का वादा निभा रहे हैं. एक उस का प्यार है, जो बदला चाहता है और पति नरेश नाराजगी भी खुद भूखे रह कर बड़े प्यार से निभा रहे हैं.

‘चाहने वाले तुम्हें और भी हैं,’’ जितना सहज हो कर नरेश कहते हैं, क्यों वह उस के लिए सहज नहीं हो पाई. आज उसे लंच बौक्स में प्यार की एक नई परिभाषा समझ में आई.
 
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