कहानी: एक घर उदास सा
मीनाक्षी की आधुनिकता के आगे मीरा स्वयं को बौना महसूस करने लगी थी. लेकिन उस के घर जा कर उसे मीनाक्षी की बातें खोखली क्यों लगने लगीं?
बह का काम जल्दीजल्दी निबटा कर जब मैं सुपर मार्केट पहुंची तो 12 बज चुके थे. स्कूल से बच्चों के वापस आने से पहले घर भी पहुंचना था. जल्दीजल्दी सूची से सामान मिलाते हुए मैं टोकरी में डालती जा रही थी कि अचानक मीनाक्षी दिख गई.
हां, मीनाक्षी ही तो थी. पर पहले से कितनी मोटी हो गई थी. फिर भरी दोपहरी में मेकअप से पुता उस का चेहरा और जोगिया रंग का रेशमी सूट आंखों को दूर से ही खटक रहा था.
उस ने भी देखा तो मेरी तरफ दौड़ पड़ी, ‘‘अरे मीरा, तुम यहां कैसे?’’ गले मिलते हुए उस ने प्रश्न किया.
‘‘शादी के बाद से तो यही शहर मेरा घर है,’’ मैं ने बताया, ‘‘पर तुम कब से यहां हो?’’
‘‘मैं भी 1 साल से यहीं डेरा डाले हूं. पर देखो, मिल आज रहे हैं,’’ वह हंस कर बोली.
कालेज के दिनों का साथ था हमारा. पढ़ाई खत्म होते ही शादी के बाद कालेज के संगीसाथी सब पीछे छूट गए थे. नया घर, नया परिवार, नया शहर सब अपने हो गए थे.
मीनाक्षी को लगभग 10 साल के बाद देख कर पिछले मस्तीभरे दिनों की याद ताजा हो गई. तब चाहे वह मेरी अभिन्न मित्र न रही हो पर उस से मिल कर ऐसा लगा मानो मैं अपनी अंतरंग सखी से मिल रही हूं.
चंद मिनट भूलीबिसरी यादों को ताजा कर, एकदूसरे से अपनेअपने पतों का आदानप्रदान कर के मैं अपनी खरीदारी की तरफ लपकी.
लेकिन अचानक पलट कर मीनाक्षी ने मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘आज तुम मेरे साथ चलो,’’ हाथ में पकड़े थैले में उस ने जूस के 10-15 पैकेट रखे हुए थे.‘‘क्यों, आज घर में कोई पार्टी है क्या?’’ मैं ने जिज्ञासा प्रकट की.
‘‘नहीं, आज हमारी महिला मंडली की मीटिंग है, यहीं पास में ही वीणा के घर,’’ उस ने मेरी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा.
‘‘ओहो, तो तुम समाजसेविका बन गई हो. सच, कुछ सार्थक कार्य तो करना ही चाहिए. मुझे तो बस घर के कामों से ही फुरसत नहीं मिलती. पता नहीं क्यों, हमेशा भागमभाग लगी रहती है. अभी भी तुम्हारे साथ चलना मुश्किल है, स्कूल से बच्चों के लौटने का वक्त हो गया है. अब घर ही भागूंगी,’’ मैं जल्दी से बोली.
‘‘क्यों, घर में ताला लगा कर आई हो क्या?’’
‘‘नहींनहीं, मेरे सासससुर हैं घर में. लेकिन बच्चों को खाना देना है, फिर मां और पिताजी के खाने का भी समय हो रहा है. सब्जी बना कर आई हूं. बस, गरमगरम रोटियां सेंकूंगी और सलाद काटूंगी,’’
मैं ने अपनी व्यस्तता बताई.
‘‘अब छोड़ो भी, आज रोटियां सेंकने और सलाद काटने का काम अपनी सास को ही करने दो. फिर एक दिन उन्होंने अपने पोतेपोती की खातिर कुछ काम कर भी दिया तो कौन सी बड़ी बात हो जाएगी. वे बच्चों से लाड़प्यार कर के उन्हें बिगाड़ने के लिए ही हैं क्या?’’ मीनाक्षी ने कटाक्ष किया.
‘‘नहीं बाबा, मैं न चल पाऊंगी. मांजी देर होने से चिंता करेंगी.’’
‘‘तो यों कहो न कि घर में सासूमां की तानाशाही है. तुम अपनी मरजी से कहीं आजा नहीं सकतीं,’’ उस ने बिना किसी लागलपेट के मेरी सास पर सीधा आक्षेप किया और मेरी स्वतंत्रता को चुनौती दी.
पता नहीं, सखी सरीख सास पर लगे आक्षेप के कारण या अपने स्वतंत्र अस्तित्व के आगे प्रश्नचिह्न को मिटाने के लिए मैं उस के साथ चलने को तैयार हो गई. वैसे उसे यह समझाना मुश्किल ही लग रहा था कि जिस तरह बेटी के देर से घर लौटने पर मां चिंतित हो जाती हैं, उसी भांति बहू के बिना बताए अधिक देर बाहर रुकने पर सास का परेशान होना भी स्वाभाविक ही है.
सुपर मार्केट से निकल कर 10 मिनट लगे वीणा के घर तक पहुंचने में. इस बीच मीनाक्षी का एकतरफा संवाद जारी रहा, ‘‘मैं तो भई, चौबीस घंटे घरपरिवार की हो कर, बंध कर बैठ नहीं सकती. हर नई जगह पर देरसवेर अपना एक गु्रप बन ही जाता है. फिर समाजसेवा तो एक शगल है. छोटीमोटी सामाजिक समस्याओं पर भाषण देने के बाद हम सभी गपबाजी करती हैं, साथ मिलबैठ कर खातीपीती हैं. फिर ताश की बाजी जम जाती है और इस तरह सूरज ढलने के बाद ही घर पहुंचते हैं.’’
मीनाक्षी ने बिना किसी झिझक के सचाई से अवगत कराते हुए आगे भाषण जारी रखा, ‘‘फिर घर में जितना ज्यादा काम करो, अपेक्षाएं उतनी अधिक होती जाती हैं. मैं तो मस्ती में दिन काटती हूं. घर में सासससुर तो हैं ही. खुद भी खाएंगे, मेरे बच्चों को भी खिला देंगे. फिर आजकल तो मेरी दिल्ली वाली ननद भी आई हुई हैं, सबकुछ मिलजुल कर निबटा ही लेंगे ठीकठाक.’’
बहुत ही अजीब लगा सुन कर पति की बहन कुछ समय के लिए भाई के पास आए और भाभी अपने में मगन रहे. कब और कैसे बदल गए हमारे पारिवारिक मूल्य? सोच कर मैं हैरान हुई.
मीनाक्षी ने अपनी सखियों से परिचय कराया, ‘‘यह रीना, यह शीला, यह मधु, यह सुमेधा, यह गायत्री, यह राधिका वह सब से मिलवाती जा रही थी. मैं अपने पारंपरिक विचारों को परे झटक बदले में हाथ जोड़ कर मुसकराती रही.
‘‘यह है कालेज के दिनों की मेरी सहेली, मीरा,’’ अंत में उस ने मेरा भी सब को परिचय दिया.
मेकअप में सजेसंवरे चेहरे, रंगीन परिधान, विदेशी इत्र की भीनीभीनी महक, ऐसे वातावरण में मैं अचानक अपनी सूती साड़ी के प्रति ज्यादा सचेत हो ठी.
मैं ने अनुमान लगाया कि शीला के पति शायद फिल्म वितरण के व्यवसाय में हैं. ऐसे ही अनर्गल वार्त्तालाप के बीच खानेपीने का दौर चलता रहा.
यह शायद गायत्री बोल रही थी.
प्रारंभिक परिचय और ‘हैलोहैलो’ के बाद सब छोटेछोटे समूहों में बैठ कर गपशप करने लगीं.
‘‘तुम्हारी कामवाली का क्या हाल है? क्या अभी भी उस का आदमी उसे पीटता है?’’ किसी ने पूछा.
‘‘अरे, उस की कुछ न पूछो, मैं तो उस को बोलती हूं कि घर जाओ ही नहीं. यहीं रहो, मेरा घर संभालो और बदले में खाओपीओ, पर उसे तो मार खाने की आदत है. सो, रोज भागती चली जाती है,’’ यह शायद गायत्री बोल रही थी.
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‘‘पर उस का 1 बच्चा भी तो है, उसे भी तुम रख लोगी?’’ गायत्री ने झट से प्रश्न किया.
‘‘न बाबा न, सालभर के बच्चे के साथ वह काम क्या करेगी. फिर मेरे घर में इतनी जगह भी कहां है,’’ गायत्री ने अपनी मजबूरी बताई.
‘‘तेरी पड़ोसिन गृहलक्ष्मी यानी ‘घर की रानी’ का क्या हाल है, रीना? कभी उसे भी साथ ले आ न,’’ यह सुमेधा थी.
स्त्रियों की खिलखिलाहट से गूंज उठा
‘‘पर उसे सासससुर की सेवा से फुरसत हो तब न, बच्चों का गृहकार्य देखने से और पति महाशय को रूमाल, तौलिया व जुराबें पकड़ाने से. मैं तो ऐसी गंवार औरतों को जरा भी सहन नहीं कर पाती,’’ रीना मुंह बिचका कर बोली तो सब खिलखिला कर हंसने लगीं.
‘‘अरे भई शीला, अपने मियां को बोल कर एक ‘चैरिटी शो’ करवाओ उन की फिल्म का. किसी नामी स्त्री सेवा समिति को चैक दान करते हुए बस एक फोटो छप जाए अखबार में तो सालभर तक इस समाजसेवा के चक्कर से निकल जाएंगे,’’ रीना ने अपना सोने से भी खरा सुझाव दिया.
कमरा फिर स्त्रियों की खिलखिलाहट से गूंज उठा.
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मैं ने अनुमान लगाया कि शीला के पति शायद फिल्म वितरण के व्यवसाय में हैं. ऐसे ही अनर्गल वार्त्तालाप के बीच खानेपीने का दौर चलता रहा. प्रत्येक महिला अपने साथ एक व्यंजन बना कर लाई थी या कौन जाने पास के होटल से ही खरीद लाई हो.
खानेपीने के बाद ताश की महफिल सज गई. इस बीच मैं ने उठने की कई बार कोशिश की, पर हर बार मीनाक्षी हाथ पकड़ कर रोक लेती, ‘‘बस यार, दो मिनट.’’
‘‘अरे, ऐसी भी क्या जल्दी है. अभी तो महफिल जमी भी नहीं और आप जाने की सोचने लगीं,’’ कोई न कोई टोक देती.
‘क्या अपना घर भी न दिखाओगी?
चिंतित सासससुर और स्कूल से लौटे बच्चों का वास्ता दूंगी तो फूहड़ और गंवार जान कर हंसी की पात्र बना जाऊंगी, यह सोच चुप रह जाती. पर अब साढ़े 3 बज चुके थे, स्थिति मेरे लिए असह्य हो चुकी थी.
मैं बिना कुछ बोले उठ खड़ी हुई. दरवाजे की तरफ लपकते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘फिर मिलेंगे, मीनाक्षी.’’
‘‘क्या अपना घर भी न दिखाओगी?’’
मुड़ कर देखा तो मीनाक्षी भी चली आ रही थी. बिना आमंत्रण वह भी साथ हो ली.
‘‘मैं ने सोचा, तुम शायद अभी ताश खेलोगी,’’ मैं ने सफाई दी.
‘‘हां, ताश की बाजी तो दिन ढलने तक चलेगी. पर आज तो शाम की चाय तुम्हारे साथ ही पीऊंगी,’’ उस ने बेबाकी से कहा.
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‘‘हांहां, जरूर.’’
शायद वह यह देखने को उत्सुक थी कि एक आज्ञाकारिणी बहू अगर बिना बताए कुछ समय बाहर बिताती है तो उस के सासससुर उस के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, सोच कर मैं मन ही मन मुसकरा उठी.
बाहर निकलते ही मैं ने आटो कर लिया. जल्द से जल्द घर पहुंचने की उत्सुकता और आतुरता के कारण मुझ से बोला भी न जा रहा था. रास्तेभर
मीनाक्षी कुछ न कुछ बोलती रही और मैं ‘हांहूं’ के उत्तर से काम चलाती रही.
घर के गेट के पास आटो के रुकते ही पिताजी बरामदे में चक्कर काटते दिखे. उन्होंने मेरी चिंता में सारी दोपहर ऐसे ही बिताई होगी, यह सोच कर मन ग्लानि से क्षुब्ध हो उठा. परिवार के सदस्यों को ऐसी ऊहापोह और असमंजस की स्थिति में डालने से तो कहीं बेहतर था कि मैं फूहड़ और गंवार ही ठहराई जाती.
आटो को अपने गेट पर रुकता देख वे आंखों को हथेली से ढक क्षणभर को खड़े हो गए. दूर से ही उतरने वाले को पहचानने के प्रयास में उन की भृकुटि भी तन गई थीं. फिर शायद मुझे पहचानते ही वे अंदर की ओर मुड़ गए.
गेट खोलने से पहले मैं ने सिर पर साड़ी का हलका सा पल्लू रख लिया. मीनाक्षी मेरे इस अंदाज पर किंचित व्यंग्य से मुसकरा दी, मानो कह रही हो, ‘वाह री आदर्श बहू.’
‘‘बहुत देर कर दी बेटी,’’ मांजी का स्वर शांत और स्निग्ध था.
‘‘हां मां, यह मेरी सहेली मीनाक्षी मिल गई. इसी के साथ देर हो गई.’’
‘‘मैं तो इन्हें समझा रही थी कि किसी काम में देर हो गई होगी परंतु इन की आदत तो तू जानती है, सारी दोपहरी बरामदे में ही चक्कर काटते रहे.’’
फिर मीनाक्षी के नमस्ते के उत्तर में वे मुसकराईं, ‘‘तेरा गुड्डू भी पूछपूछ कर बस अभी सोया है, रुचि जागती होगी. रुचि बेटी, मां के लिए पानी ले कर आ. बाहर कितनी गरमी है. मैं भी बस अपनी कहानी ले कर बैठ गई. तुम दोनों सहेलियां गपशप करो, मैं अब सोऊंगी, थक गई हूं,’’ कहतेकहते मांजी उठ गईं.
फिर अचानक जैसे कुछ याद आने पर वापस मुड़ कर बोलीं, ‘‘तेरे लिए भी 2 रोटियां सेंक कर रखी हैं, सब्जी भी पड़ी है. 2 रोटियां और सेंक कर सहेली के साथ मिल कर खा ले.’’
‘‘मैं ने खाना खा लिया है, अब आप आराम से जा कर सो जाइए,’’ मैं हंस कर बोली.
‘‘आज आप कहां चली गई थीं?’’ पानी के 2 गिलास ले कर आई 8 साल की रुचि की आंखों और स्वर में हैरानी थी, ‘‘गुड्डू तो आप के बिना सोता ही नहीं था, मुझे भी नींद नहीं आई,’’ गिलास मेज पर रख कर मेरे गले में बांहें डाल कर वह लाड़ करने लगी.
मैं ने भी पुचकार कर उसे गोदी में उठा लिया.
ग्लानि की भावना ने एक बार फिर मुझे परेशान कर दिया कि बेकार ही वहां रुक गई और यहां सब परेशान होते रहे. बच्चों के स्कूल से लौटने के समय मैं हमेशा ही घर में रहती थी. दूर से ही वे दौड़ कर होड़ लगाते आते कि कौन मां को पहले छुएगा. फिर टांगों से लिपट कर मां के स्पर्श का सुख पा कर सबकुछ भूल जाते.
बच्चों की मीठीमीठी बातों के बीच दोपहर का खानापीना निबटता. फिर मैं दोनों को दाएंबाएं लिटा कर खुद बीच में लेट जाती. बातें करतेकरते वे कब सो जाते, मुझे स्वयं भी पता न चलता.‘‘कहां गुम हो गई?’’ मीनाक्षी ने प्रश्न किया तो मैं वर्तमान में लौट आई.
‘‘रुचि, तुम मौसी से तो मिली ही नहीं, यह मेरी सहेली है,
कालेज की,’’ मैं ने बताया तो रुचि ने क्षणभर उसे निहारा, फिर नमस्ते कर शरमा कर भाग गई. नींद से उस की आंखें भारी थीं. मेरी उपस्थिति का आश्वासन पा कर अब वह सो जाएगी, इस का मुझे भरोसा था.
‘‘यार, तुम ने तो अपने बच्चों को बहुत बिगाड़ा हुआ है,’’ मीनाक्षी के प्रश्न पर मैं हैरान रह गई. उसे क्या जवाब देती, बस मुसकरा कर रह गई.
मीनाक्षी को घर जाने की कोई जल्दी न थी. इधरउधर की बातें और बेकार की गपशप करतेकरते मैं उकता गई. सुबह उस से अचानक मिलने पर जो उत्साह मन में उठा था, वह उस के व्यवहार के कारण कब का भीतरभीतर दब चुका था. सुबह से मैं ने कुछ काम भी न किया था, फिर भी बहुत थकावट लग रही थी.
5 साढ़े 5 बजे के बीच मीनाक्षी को एक फिल्मी पत्रिका पकड़ा कर मैं बच्चों को जगाने चली गई. हाथमुंह धुला कर, दूध पिला कर उन्हें बाहर खेलने भेज कर रसोई का रुख किया. मां और पिताजी की चाय का समय कब का हो चुका था.
सुबह समोसों के लिए मैदा गूंध कर मसाला भी बना रखा था. मांजी ने मेरी अनुपस्थिति में मसाला भर कर समोसे बांध कर रख दिए थे. गैस पर एक तरफ चाय का पानी चढ़ा कर दूसरी तरफ समोसे तल लिए.
मां और पिताजी को उन के कमरे में चाय, नाश्ता दे कर अपना और मीनाक्षी का चाय, नाश्ता ले कर फिर उस के पास आ बैठी. वह पत्रिका के पृष्ठों में खोई हुई थी. मैं सोचने लगी, ‘इस के बच्चे भी कब के स्कूल से आ चुके होंगे और यह महारानी यहां कैसे निश्चिंत बैठी है.’
तीसरे दिन मीनाक्षी का फोन आया तो उसने सभई बात की जानकारी दी.
अभी चाय, नाश्ता चल ही रहा था कि रवि भी दफ्तर से आ गए.
वैसे तो वे आते ही ब्रीफकेस वहीं रख कर टाई की गांठ ढीली कर सोफे पर ही पसर जाते थे, पर अचानक एक अपरिचिता को देख कर वे कुछ ठिठके. फिर परिचय करवाने पर नमस्ते का आदानप्रदान कर उन्होंने अंदर का रुख किया.
‘‘मीरा, मेरा तौलिया और कपड़े कहां हैं?’’ रवि ने पुकारा तो मैं चाय का प्याला छोड़ उन का ब्रीफकेस उठाते हुए अंदर चली गई.
मैं वापस आई तो मीनाक्षी उठ खड़ी हुई, ‘‘अब तुम अपने मियांजी की सेवाटहल करो, मैं चली,’’ उस ने एक आंख दबा कर कहा.
मैं एक बार भी उस से बैठने का आग्रह न कर सकी. सोचा, क्या पता सचमुच ही बैठ जाए. उस के कारण मेरी सारी दिनचर्या चौपट हो गई थी.
‘‘फिर कभी आऊंगी, तुम भी आना,’’ जातेजाते मुड़ कर वह बोली.
‘‘जरूर आऊंगी,’’ मैं भी मुसकरा पड़ी.
उस के जाते ही राहत की एक ठंडी सांस स्वत: ही निकल पड़ी, मानो सिर से मन भर का बोझ हट गया हो.
तीसरे दिन मीनाक्षी का फोन आया.
‘‘मीरा, आज 11 बजे तैयार रहना. नेहा के घर चलेंगे. वहां आज सावन के गीतों का प्रोग्राम है,’’ वह चहक रही थी.
प्रस्ताव काफी लुभावना था. ऐसी रासरंग की महफिलों में बरसते, हरियाले लोकगीतों की छमछम से तन तो क्या मन भी भीगभीग जाता है. लेकिन वास्तविकता पर मुझे कुछ संदेह हुआ. ऐसे रसीले प्रोग्राम की आड़ में न जाने कितनी सासों, ननदों के निंदापुराण खुलें, न जाने कितनी अनुपस्थित महिलाओं की खिल्ली उड़े.
एक बार झेली हुई उकताहट फिर मेरे ऊपर छाने लगी और अनचाहे ही मैं इनकार कर बैठी, ‘‘आज नहीं चल पाऊंगी. घर में थोड़ा काम है.’’
‘‘तुम तो बहुत बोर हो यार, घर के काम तो चलते ही रहते हैं,
कभी खत्म होते हैं क्या? तुम जैसी औरतों के कारण, जो हर घड़ी सीने से जिम्मेदारियां चिपकाए रहती हैं, सब गड़बड़ हो जाता है. सास तुम्हें देखते ही थक जाती हैं, पतिदेव को तौलिए और कपड़ों की जरूरत हो आती है, बच्चों को लोरी के बिना नींद ही नहीं आती. तुम तो भई, सिर पर पल्लू डाल कर सतीसावित्री बनी रहो,’’ वह बेशर्मी से हंसती जा रही थी.
गुस्से से मुझ से कुछ बोला न गया. मैं ने चुपचाप रिसीवर रख दिया.
कहना न होगा कि फिर मीनाक्षी से मिलने की इच्छा ही मर गई. उस ने भी शायद मेरा क्रोध भांप लिया था. तभी तो न स्वयं आई न ही फोन किया. मैं ने भी सोचा कि चलो, जान बची, नहीं तो ऐसी दोस्ती निभाना मेरे लिए तो मुश्किल हो जाता.ऐसे ही कई महीने बीत गए.
मीनाक्षी से फिर भेंट न हो सकी.
अचानक एक दिन यों ही किशोरावस्था के अल्हड़ मस्तीभरे दिनों की याद मन पर सावन के बादलों की भांति उमड़नेघुमड़ने लगी. अनायास ही मीनाक्षी की याद भी मन में कौंध गई. न जाने क्यों, उस से मिलने का मन किया.
बच्चे उस दिन स्कूल की तरफ से पिकनिक पर गए हुए थे. दोपहर का खाना जल्दी ही निबटा कर मैं डेढ़ बजे ही घर से निकल गई. मीनाक्षी के दिए पते पर मैं आसानी से पहुंच गई थी.
दरवाजे की घंटी बजाने पर स्थूलकाय, अस्तव्यस्त, उदास सी आंखों वाली एक अधेड़ स्त्री ने दरवाजा खोला. शायद मीनाक्षी की सास होंगी, मैं ने मन ही मन अनुमान लगाया.
‘‘मीनाक्षी घर पर है? मैं उस की सहेली मीरा हूं,’’ मैं ने मुसकरा कर पूछा.
‘‘मीनाक्षी तो बाहर गई है, शायद अभी आती होगी. तुम अंदर आ जाओ. थोड़ी देर इंतजार कर लो.’’
उन महिला के आमंत्रण पर मैं अंदर चली गई.
मीनाक्षी से मिलने की आतुरता में मैं यह भूल बैठी थी
कि वह महिला मंडली के साथ भी व्यस्त हो सकती है. अब न जाने कब लौटेगी. पर इतनी दूर से आ कर यों दरवाजे से ही लौटने की भी इच्छा न हुई.
अंदर हौल में सोफे पर पत्रिकाएं और कैसेट बिखरे पड़े थे. दीवान पर धुले कपड़ों का ढेर लगा था.
‘‘मैं मीनाक्षी की सास हूं,’’ उन महिला ने अपना परिचय दिया तो मैं ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया.
‘‘आज कामवाली आई ही नहीं, सब काम ऐसे ही पड़ा है,’’ उन्होंने अस्तव्यस्त, बिखरे हुए सामान के विषय में शायद सफाई दी. कपड़ों का ढेर उठाते हुए उन्होंने मेरे बैठने की जगह बनाई. फिर कपड़े उठा कर वे अंदर चली गईं. घर का मुख्यकक्ष ही गृहिणी की घर के प्रति उदासीनता की कहानी कह रहा था. कमरे की हर वस्तु में एक सुगृहिणी के स्पर्श का अभाव खटक रहा था.
हौल के साथ बाहर बालकनी में रखे गमलों में पौधे मुरझाए हुए थे. शायद उन में पानी नहीं डाला गया था. मैले परदे, कुशन कवर, धूल की परत से अटा फर्नीचर, यानी शानोशौकत की हर वस्तु होने के बावजूद कमरा बेजान और शुष्क लग रहा था.
‘‘तुम्हें पहले कभी नहीं देखा,’’ वे मेरे लिए पानी का गिलास ले आई थीं.
‘‘मैं मीनाक्षी से कुछ महीने पहले ही मिली हूं. असल में हम दोनों कालेज में एक साथ पढ़ती थीं,’’ मैं ने उन की समस्या का समाधान किया.
‘‘अच्छाअच्छा,’’ वे मुसकरा पड़ीं.
इतने में उढ़के हुए दरवाजे को जोर से धकेलते दो बच्चे भीतर आ गए. स्कूल से बच्चों के आगमन के साथ ही हंसी, चुहल, शोर, खिलखिलाहट का जो एक झोंका घर में अचानक ही घुस आता है, ऐसा वहां कुछ भी न था.
थके, उदास बच्चों में घर वापस पहुंचने पर कोई उत्साह न था. दोनों ने बस्ते वहीं सोफे पर पटक दिए और वहीं अपने लिए जगह बनाते हुए पत्रिकाओं के पन्ने उलटने लगे.
‘‘नंदा, नीरज, अपनी मौसी को नमस्ते करो,’’ मीनाक्षी की सास ने आदेश दिया, पर वे सुनाअनसुना करते हुए निर्विकार भाव से यों ही बैठे रहे, मां की अनुपस्थिति से उदासीन, एक अपरिचिता की उपस्थिति से तटस्थ.
‘‘कुछ खाने को दो, दादीमां, भूख लगी है.’’
‘‘अच्छा,’’ कह कर वे उठ गईं. रसोई में पहुंच कर उन्होंने तुरंत आवाज दी, ‘‘नंदा बेटी, इधर आना तो.’’
बच्ची उठ कर पैर घसीटती हुई रसोई में चली गई. हौल से ही सटी रसोई में हो रही खुसुरफुसुर साफ सुनाई दे रही थी.
‘‘तेरी मां तो आई नहीं, तू जा, यह डब्बा ले कर और सामने वाले होटल से डोसे व सांभर ले आ,’’ मीनाक्षी की सास की आवाज में याचना थी.
‘‘क्या दादीमां, रोजरोज ऐसे ही करती हो. मैं बहुत थक गई हूं. मैं नहीं जाती. कितनी जोर से तो भूख लग रही है.’’
‘‘अच्छाअच्छा, धीरे बोल, मैं तेरे दादाजी को बोलती हूं,’’ उन की आवाज में अकारण ही गुस्सा झलकने लगा था.
जब वे हौल में आईं तो उन का चेहरा और भी उदास व परेशान था.
‘‘अच्छा मांजी, अब मैं चलूंगी. बहुत देर हो गई है,’’ मैं ने उन्हें असमंजस की स्थिति से उबारने के लिए प्यारभरी मुसकराहट से देखा.
‘‘अच्छा बिटिया, फिर आना,’’ उन का स्वर थकाहारा था.
इस से पहले कि उस घर की उदासी मेरे तनमन को जकड़ लेती, मैं बाहर निकल आई. बाहर आ कर बहुत अच्छा लगा. सोचा, अगर नारी मुक्ति आंदोलन का ध्येय पारिवारिक दायित्वहीनता से है तो मैं परतंत्र ही भली. अगर आजादी का तात्पर्य परिवारजनों के क्लांत, उदास चेहरे हैं तो मैं तो घर की दासी ही भली.
बहुत ही अजीब लगा सुन कर. पति की बहन कुछ समय के लिए भाई के पास आए और भाभी अपने में मगन रहे. कब और कैसे बदल गए हमारे पारिवारिक मूल्य, सोच कर मैं हैरान हुई.