Today Breaking News

कहानी: एक गृहिणी की आउटिंग

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाट भण्डार की दुकान दिखाई दी. और सामने ही अपना गोल गोल मुँह फुलाये गोलगप्पे नज़र आए.

“थक गई मैं घर के काम करते-करते. वही एक जैसी दिनचर्या सुबह से शाम, शाम से सुबह.” “घर का सारा टेंशन लेते-लेते मैं परेशान हो चुकी हूँ, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ.”


शोभा जी अक्सर ये बातें किसी न किसी से कहती रहती थीं. एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा जी ने अपनी दोनों बेटियों के साथ इतवार को फ़िल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा जी ने तय किया इस आउटिंग में वो बिना कुछ चिंता किये सिर्फ़ और सिर्फ़ आनन्द उठाएँगी. मध्यमवर्गीय गृहिणियों को ऐसे इतवार कम ही नसीब होते हैं, जिसमें वो घरवालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों ख़र्च करें, इसीलिए इस इतवार को लेकर शोभा जी का उत्साहित होना लाज़िमी था. ये उत्साह का ही कमाल था कि इस इतवार की सुबह, हर इतवार की तुलना में ज़्यादा जल्दी हो गई थी.


उनको जल्दी करते-करते भी, सिर्फ़ नाश्ता करके तैयार होने में ही साढ़े बारह बज गए. शो डेढ़ बजे का था, वहाँ पहुँचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहाँ पहुँचने के लिए बस की जगह ऑटो ही एक विकल्प दिख रहा था. और यहीं से शोभा जी के मन में ‘चाहत और ज़रूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.


ऑटो का मीटर बिल्कुल पढ़ी लिखी गृहिणियों की डिग्री की तरह, जिससे कोई काम नहीं लेना चाहता पर हाँ जिनका होना भी ज़रूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसीलिए किराये का भाव-ताव तय करके सब ऑटो में बैठ गए.


शोभा जी वहाँ पहुँचकर, जल्दी से टिकट काउन्टर में जाकर लाइन में लग गयीं. जैसे ही उनका नम्बर आया तो उन्होंने अन्दर बैठे व्यक्ति को झट से तीन उँगली दिखाते हुए कहा- “तीन टिकट” कि बाहर के शोरगुल से भाई तुम सुन न पाओ तो उँगलियों को तो गिन ही सकते हो. अन्दर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गर्दन ऊपर किये, नीचे पड़े काँच में उन उँगलियों की छाया देखकर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया-“बारह सौ”.


शायद शोभा जी को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वो साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को बारह सौ बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया- “कितने”? इस बार अन्दर बैठे व्यक्ति ने सच में उनकी आवाज़ नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. अब उसने ज़ोर से कहा- “बारह सौ”. शोभा जी की अन्य भावनाओं की तरह, उनकी आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुन्दर थी पर ज़्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी, और धप्प करके ज़मीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा करके उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब बारह सौ उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिये. हाथ में टिकट लेकर वो थिएटर की तरफ़ बढ़ गईं.


दस मिनट पहले दरवाज़ा खुला तो हॉल में अन्दर जाने वालों में शोभा जी बेटियों के साथ सबसे आगे थीं. अपनी-अपनी सीट ढूँढकर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों का अम्बार झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के क़िस्से सुनकर साथ ही उनके वीभत्स चेहरे देखकर तो शोभा जी का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि ग़लती से उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो दो चार थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि सालों मज़े तुम करो और हम अपने पैसे लगाकर यहाँ तुम्हारा कटा-फटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहाँ धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.


लगभग आधे मिनट की शान्ति के बाद सभी खड़े हो गए. जो कान सिर्फ़ घरवालों की फ़रमाइशें सुनते थे वो राष्ट्रगान सुन रहे थे. साल में दो या तीन बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वो हमेशा आँखों से ही फूटता है. शोभा जी के रोम-रोम में देशप्रेम और आखों में आँसू साफ़ झलक रहे थे. राष्ट्रगान ख़त्म होने के बाद किसी ने “भारत माता की..” के नारे लगाने शुरू कर दिए पर “..जय” बोलने वालों में शोभा जी की आवाज़ सबसे बुलन्द थी.


जो आँखें थोड़ी ही देर पहले वीभत्स रस से सराबोर थीं, वही आँखे अब वीर रस में इतनी डूबी हुई थीं कि यदि शोभा जी को इस समय दुश्मनों के बीच खड़ा कर दिया जाता तो वो बिना किसी बन्दूक, गोली के, कलछी बेलन से ही उन्हें मार गिरातीं. देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा जी वीर रस में इतनी डूबी हुईं थीं कि उनको अहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वो ही अकेली खड़ी हैं तो बेटी ने उनको हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.


थोड़ी ही देर में फ़िल्म शुरू हुई, शोभा जी कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्न भिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इन्टरवल तक पहुँचीं. चूँकि, सभी घर से सिर्फ़ नाश्ता करके निकले थे तो इंटरवल तक सबको बहुत भूख लग चुकी थी. तो  क्या-क्या खाना है, उसकी लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार करके शोभा जी को थमा दीं. शोभा जी एक बार फिर लाइन में खड़ीं थीं. उनके पास बेटियों द्वारा दी गयी खाने की लिस्ट लम्बी थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लम्बी न थी. जब शोभा जी के आगे तीन या चार लोग बचे होंगे तब शोभा जी की नज़र ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिसमें खाने की चीज़ों के साथ उनके दाम भी थे. उनके दिमाग़ में ज़ोरदार बिजली कौंध गयी और अगले ही पल बिना कुछ समय गँवाये वो लाइन से बाहर थीं. चार सौ के सिर्फ़ पॉपकॉर्न, समोसा पछत्तर का एक, सैंडविच सौ की एक और कोल्ड ड्रिंक डेढ़ सौ की एक. एक गृहिणी जिसने अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी ज़्यादा रसोई में ही गुज़ारी हो उन्हें ये एक टब पॉपकार्न की क़ीमत चार सौ बता रहे थे. शोभा जी के लिए वही बात थी कि रतन टाटा को एक सुई की क़ीमत सौ रुपये बताए और उसे खरीदने को कहे.


उन्हें क़ीमत देखकर चक्कर आने लगे, मन ही मन उन्होंने मोटा मोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के ख़र्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पॉकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे वहाँ तक पहुँच गया था. उन्हें एक तरफ़ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ़ पैसे. इस बार शोभा जी अपने मन के मोर को ज़्यादा उड़ा न पाईं और आनन्द के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. ज़ाहिर था, कम हुआ हिस्सा माँ अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा जी को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.


सामान लेकर शोभा जी जब अन्दर पहुँची इंटरवल ख़त्म होकर फ़िल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं, कि यदि फ़िल्म अच्छी होती है तो वो आपको अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा जी के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूलकर शोभा जी फ़िल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब सामने ‘दी एन्ड’ लिखा हुआ देखा. और जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.


थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाट भण्डार की दुकान दिखाई दी. और सामने ही अपना गोल गोल मुँह फुलाये गोलगप्पे नज़र आए. गोलगप्पे की ख़ासियत होती है कि उनसे आपको कम पैसों में ज़्यादा स्वाद मिल जाता है और ख़ुशी-ख़ुशी पानी से आपका पेट भर देते हैं . सिर्फ़ साठ रुपये में तीनों ने पेट भर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा जी ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूमकर जाने वाली बस पकड़ी.


बस में बैठी-बैठी शोभा जी के दिमाग़ में बहुत सारी बातें चल रही थी. कभी वो ऑटो के ज़्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फ़िल्म के किसी सीन के बारे में सोचकर हँस पड़तीं, कभी महँगे पॉपकॉर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोचकर रोमांचित हो उठतीं. उनका मन बहुत भ्रमित था क्या यही वो ‘चेंज’ है जो वो चाहतीं थीं. वो सोच रहीं थीं कि क्या सच में वो ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिसमें दिन ख़त्म होने पर उनके दिल में ख़ुशी के साथ कसक भी रह जाए.


तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी माँ से पूछा-“माँ अगले संडे हम कहाँ चलेंगे?”वो एक पल शोभा जी के लिए बेहद मुश्किल, ‘चाहत और ज़रूरत’ में से किसी एक को चुनने का था. शोभा जी ने भी सबकी ‘ज़रूरतों’ का ख़याल रखते हुए साथ ही अपनी ‘चाहत’ का भी तिरस्कार न करते हुए कहा- “आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए ‘बीच’ चलेंगे और ‘सनसेट’ देखेंगे.”


शोभा जी सोचने लगीं अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौन्दर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती. और प्रकृति से बेहतर ‘चेंज’ कहीं और से मिल सकता है भला!

'