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कहानी: मैं विधवा हूं

तुम पास रह कर भी दूर रहे पर नजरों के सामने रहे. आज नजरों के सामने नहीं हो, सिर्फ इसी फर्क ने जीने का अंदाज बदल दिया.

हां, मैं विधवा हूं 21वीं सदी की. मेरी तरह कई विधवाएं होंगी जो अभीअभी हुई हों या जिन्हें 20-30 साल हो गए हों. कुछ को घर वालों ने घर से निकाल कर वृद्धाश्रम पहुंचा दिया, कुछ स्वाभिमान की मारी स्वयं पहुंच गईं तो कुछ को काशी यानी बनारस, वृंदावन में छोड़ दिया गया. वहीं, कुछ सुहृदय बच्चों ने उन्हें यह महसूस ही नहीं होने दिया कि वे त्याज्य हैं. उन्हें पहले की तरह ही गले लगाए रखा. उन के सम्मान में कोई कमी नहीं आई. उन का जीवन धन्य हो गया. और जो निराश्रित हो गईं वे नारकीय जीवन जीने को विवश हो गईं.


आज का समाज पढ़ालिखा, समझदार तो है लेकिन उस की सोच पुरानी ही है. विधवा स्त्री को कोई अधिकार नहीं देता. समाज इतनी घटिया सोच रखता है, इस का मुझे अंदाजा भी न था. मैं तो अपने हिसाब से अपना जीवन जी रही थी. पति की मृत्यु को अभी 3 महीने ही हुए हैं. इन 3 महीनों में मैं ने स्वयं को संभाला. उसी हिम्मत और जोश के साथ फिर उठ खड़ी हुई क्योंकि मैं अपने घर में अकेली हूं और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए मुझे घर से बाहर निकलना ही था.


जो काम अभी तक पति के नाम से हो रहे थे वहां उन का नाम हटवा कर अपना नाम कराना था. कभी अकाउंट खोलने के लिए बैंक भागती, कभी एफिडेविट बनवाने के लिए कचहरी. कभी गैस कनैक्शन पर नाम बदलवाने, राशन कार्ड पर भी अपना नाम अंकित कराने के लिए दफ्तरों के चक्कर लगाती. मुझे जल्दी न थी, लेकिन जब बिना नाम बदलवाए राशन और गैस मिलनी बंद हो गई तो दौड़ लगानी ही पड़ी. सभी जानते हैं कि एक बार जाने से काम नहीं होता. चक्कर लगाने के साथसाथ ‘बेचारी’ का ठप्पा और लग जाता है. किसी रिश्तेदार या परिचित ने यह नहीं कहा कि आप घर बैठो, यह काम हम करा देंगे. वैसे भी मैं शुरू से स्वाभिमानी रही हूं और अपना काम खुद करना चाहती हूं. मेरा उसूल है जब तक विशेष आवश्यकता न पड़े, किसी को तकलीफ मत दो.


तभी मेरे जेहन में एक सवाल उभरा. गैस कनैक्शन और राशनकार्ड दोनों ही सरकारी हैं. फिर सरकार दोनों नंबर पतिपत्नी दोनों के नाम से क्यों नहीं देती. यदि गैस बुक और राशनकार्ड में आइदर और ‘सरवाइवर’ कौलम के साथ पत्नी का नाम भी दर्ज हो तो पति की अचानक मृत्यु पर पत्नी को दफ्तरदफ्तर खाक छाननी नहीं पड़ेगी.


खैर, पति की बीमारी के दौरान जब मैं उन्हें ले कर शहरशहर डाक्टरों को दिखाती घूम रही थी, रातदिन उन की सेवाटहल में लगी रहती थी, लोग मेरे साहस की प्रशंसा कर मेरा मनोबल बढ़ाते थे. मुझे लगता, मेरे अपने मेरे करीब हैं. समयसमय पर हालचाल पूछने आते रहते या मोबाइल से संपर्क बनाए रखते. आश्वासन भी देते कि पैसे की कमी हो तो बताना. कोई परेशानी हो तो कहना, हम आधी रात को भी तैयार हैं. मुझे अपने रिश्तेदारों पर गर्व होता क्योंकि वे सब मेरे दुख में मेरे साथ खड़े थे.


अफसोस यह कि पति की मृत्यु के बाद पूरा ही परिदृश्य बदल गया. पहले तो लोगों ने यह जानने की कोशिश की कि वे क्याक्या छोड़ गए हैं. कुछ ने फुसफुसा कर चेताया कि संभलसंभल कर चलना. यह कांटों भरी डगर है. सबकुछ अपने बेटे को मत सौंप देना वरना तुम्हारी दुर्गति हो जाएगी. आजकल वृद्धावस्था में पुत्रों का सहारा नहीं मिलता. मैं, मौन सब की सुनती रहती. मुझे क्या फैसला लेना है, यह मेरा निजी मामला है. मुझे कोई जल्दी नहीं थी. मैं अपनी सोच को दुरुस्त  करना चाहती थी.


सब ने सोचा, पति के जाने के बाद मैं खाली हो गई हूं. मेरे पास कोई काम नहीं है. क्योंकि उन की सेवाटहल और डाक्टरों के यहां आनेजाने का काम निबट गया था. लेकिन मेरे पास ढेरों काम बाहर के बढ़ गए थे जो कभी मेरे पति ही करते रहे थे. लोग मुझ से सवाल करते, सारा दिन क्या करती रहती हो, आजकल तो खूब आराम रहता होगा?


यह सुन कर मैं तिलमिला उठती और उलटा ही उत्तर देती, मैं खाली नहीं हूं. पहले भी व्यस्त थी, अब भी हूं. लोग किसी न किसी बहाने आ कर देखना चाहते, मैं उन्हें नम्रता से टरका देती और कह देती कि आज फलां काम के लिए फलां जगह जाना है. वे हमदर्दी जता कर अपना महत्त्व प्रदर्शित करते. मैं समझ रही थी कि जीवन का यह रूप भी इतना आसान नहीं है. औरत को जाने कितने रूपों में अपनेआप को एडजस्ट करना पड़ता है.


एक परिवर्तन और भी मैं ने महसूस किया. जो पड़ोसिनें पहले मुझ से बोलने के लिए लालायित रहती थीं, अब वे मुझे अनदेखा कर निकल जातीं. सड़क के दूसरी ओर मुंह घुमा कर चलतीं. एकाध बार मैं ने बात करने की कोशिश भी की तो सुन कर अनसुना कर दिया. अकसर शाम को पहले भी और अब भी बाहर लौन में निकल आती और गेट खोल कर खड़ी हो जाती. शाम की ताजी हवा के साथसाथ पड़ोस के मंदिर से लौटती महिलाओं से थोड़ी गपशप हो जाती. पति के जाने के बाद वे मेरी छाया से भी बचने लगीं. मेरा वैधव्य अपशकुनी हो गया.


हाई ब्लडप्रैशर की पेशेंट मैं पहले से ही थी, अब और भी बढ़ गया. डाक्टर ने सलाह दी कि सुबहसुबह ताजी हवा में टहलने पार्क जाया करो. 2-4 परिचित लोगों में बैठोगीउठोगी तो मन बहलेगा, स्वयं को ठीक भी लगेगा. मैं ने डाक्टर की बात पर अमल करते हुए पार्क में टहलने जाना शुरू कर दिया. अभी 2-4 दिन ही गुजरे थे कि कानों में पीछे से आवाज पड़ी-


‘रांडों से घर में नहीं बैठा जाता. सुबहसुबह शक्ल देख लो तो सारा दिन खराब निकलता है.’ मैं ने पीछे मुड़ कर देखा. मन हुआ कि कहने वाले का मुंह नोच लूं और पूछूं, ‘तेरे घर में कोई रांड नहीं है क्या?’


खून का सा घूंट पी कर घर लौट आई. मैं ने घूमने जाने की दिशा बदल दी. माथे पर छोटी सी बिंदी लगानी शुरू कर दी, जिस से किसी की निगाह एकदम सूने माथे पर न पड़े. लोग एकाएक विधवा समझ कर नफरत न करें. अभी 5-10 दिन ही गुजरे थे कि फिर आवाज गूंजी-


‘फांस लिया होगा किसी यार को. रंडुआ तो बहुतेरे सो जाएं, रांडें सोने दें तब न.’


4-5 लोग ये कहते हुए मेरे पास से गुजर गए. मुझे पागलपन का दौरा पड़े या किसी से कुछ कह बैठूं, मैं ने घूमने जाना ही बंद कर दिया. जितना होता, अपने लौन में ही घूम लेती.


अब हुआ शुरू शादियों का सीजन. कहीं गोद भरी जा रही थी और कहीं रिश्ते पक्के हो रहे थे. 3-4 घरों से मेरे यहां भी मिठाई आई. शुरू में मैं ने गौर नहीं किया, लेकिन बाद में नोट किया कि मिठाई या फल के केवल 3 पीस ही मेरे यहां भेजे जाते. ऐसा क्यों? ये 3 का अंक मुझे भी भारी पड़ने लगा. मुझे पलपल एहसास कराया जाता कि मैं विधवा हूं. जिन्होंने मिठाई के 3-3 पीस रखे, उन के शादी के निमंत्रण पत्र लेने से मैं ने इनकार कर दिया.


वे लोग जो अपने यहां उत्सव में आने के लिए बारबार कहते थे, अब बिना कुछ भी कहे निमंत्रणपत्र पकड़ा कर चल देते. मैं समझती हूं वे बुलाना नहीं चाहते. निमंत्रणपत्र देना उन की मजबूरी है. कभी जो महिलाएं अपने घर आने का बारबार इसरार करती थीं, अब एक बार भूले से भी नहीं कहतीं. क्या मैं उन के पतियों को छीन लाऊंगी या वे मेरी छाया पड़ने से मेरी तरह हो जाएंगी? यह दंश केवल मेरा ही नहीं है, मेरी जैसी जाने कितनी विधवाओं का है. अभी तो जाने क्याक्या झेलना है और अपने दर्द को शब्दों में पिरोना है.


तुम्हारे जाने के बाद मानसिक धरातल पर जोजो भोग रही हूं उस का एकएक शब्द कलमबद्ध करने बैठ गई हूं. मैं तुम्हारी पत्नी और सुहागिन थी. किसी की निगाह में अपशकुनी नहीं थी. तुम ठीक कहते थे, ‘मेरे न रहने पर तुम याद करोगी.’ सच है कि सामने रहते व्यक्ति को कहां याद किया जाता है. जब आदमी सामने नहीं रहता तभी याद किया जाता है. पर सच यह भी है मुझे कभी नहीं लगता कि तुम्हारे बिना रह रही हूं.


अभी भी लगता है तुम यों ही चुपचाप सोफे पर बैठे हो. मैं अखबार की मुख्य खबरें बोलबोल कर तुम्हें सुनाती रहती हूं. तुम्हारे समय पर ही तुम्हारी पसंद का खाना डाइनिंग टेबल पर लगाती हूं और तुम से कहती हूं, ‘भोजन ग्रहण करो.’ पहले भी कभी तुम ने नहीं कहा कि अपना भी खाना लगा लो, साथसाथ खाएंगे. मैं एकएक फुलका गरमगरम सेंक कर देती रहती. अब भी कोई कहने वाला नहीं है. गले में कुछ अटकतेअटकते रह जाता है.


शाम को तुम चुपचाप टीवी देखते रहते. मैं भी चुप बैठी रहती. आज भी चुप बैठ कर देखती हूं. पहले भी तुम सालों दीवान पर सोते रहे और मैं अकेली डबल बैड पर. तुम पास रह कर भी दूर रहे पर नजरों के सामने रहे. आज नजरों के सामने नहीं हो, सिर्फ इसी फर्क ने जीने का अंदाज बदल दिया.


मुझे दुख पहुंचा कर तुम्हें सुकून मिलता था न. अब भी मिल रहा होगा. मेरा जीवन ही दुख का नाम है. दुख के जाने कितने रंग बदलेंगे. तुम हमेशा मुझ से 10-15 कदम आगे चले और अब भी आगे निकल गए. मैं तुम्हारे पदचिह्न देखती पीछे रह गई. क्यों कभी तुम से आगे नहीं चल पाई. साथ तुम चले नहीं. लगता नहीं कि तुम्हें साथ छोड़े इतना वक्त हो गया. लगता है अभी कल की ही बात है. कई बार तुम्हें दवा देने का खयाल आता है, खूंटी से तुम्हारे गंदे कपड़े उतारने को हाथ बढ़ता है. घर में सब तुम्हारी पसंद का था, अभी भी है. मेरी पसंद की केवल किताबें हैं जिन्हें पलटती रहती हूं.


अब न तुम्हारे लौटने का इंतजार है, न तुम से घड़ीघड़ी फोन कर के पूछती हूं कि घर कब आ रहे हो. मैं कितनी भी देर से लौटूं, अब कोई नहीं कहता, ‘बड़ी देर कर दी.’ घर तो तभी घर लगता है जब कोई इंतजार करने वाला हो. लौैट कर आने का आनंद भी तभी आता है जब कोई उलाहना दे. दीवारें उलाहना नहीं देतीं, इंतजार भी नहीं करतीं. मत लौटो, मौन बनी रहती हैं, मेरी तरह.

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