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कहानी: उसे कुछ करना है

रोली ससुराल चली गई तो उस की कमी सब को, खासकर भाई को ज्यादा अखरने लगी, क्योंकि अभी तक घर के ज्यादातर काम वही निबटाती आई थी. लेकिन विधवा बन कर जब रोली दोबारा मायके में आई तो काम करना जैसे भूल ही गई...

सर्दियों के दिन थे. शाम का समय था. श्वेता का कमरा गरम था. अपने एअरटाइट कमरे में उस ने रूम हीटर चला रखा था. 2 साल का भानू टीवी के आगे बैठा चित्रों का आनाजाना देख रहा था.  श्वेता अपने पसंदीदा धारावाहिक के खत्म होने का इंतजार कर रही थी.


‘‘पापा,’’ राजीव के आते ही भानू गोद में चढ़ गया.  श्वेता उठ कर रसोईघर में चाय के साथ कुछ नाश्ता लेने चली गई. क्योंकि शाम के समय राजीव को खाली चाय पीने की आदत नहीं थी.


‘‘आज तो कुछ गरमागरम पकौड़े हो जाते तो आनंद आ जाता,’’ श्वेता के चाय लाते ही राजीव ने कहा, ‘‘क्या गजब की ठंड पड़ रही है और इस चाय का आनंद तो पकौड़े से ही आएगा.’’


‘‘मेरे तो सिर में दर्द है,’’ श्वेता माथे पर उंगलियां फेर कर बोली.


‘‘तुम से कौन कह रहा है…चाय भी क्या तुम्हीं ने बनाई है, वह भी इतने दर्द में, रोली दी कहां हैं. वह मिनट में बना देंगी.’’


‘‘रोली दी,’’ श्वेता ने जोर से आवाज दी, ‘‘कहां हैं आप. थोड़े पकौड़े बना दीजिए, आप के भइया को चाहिए. इसी बहाने हम सब भी खा लेंगे.’’


रोली ने वहीं से आवाज लगाई, ‘‘श्वेता, तुम बना लो. मैं आशू को होमवर्क करा रही हूं. इस का बहुत सा काम पूरा नहीं है. मैं ने खाने की सारी तैयारी कर दी है.’’


राजीव ने रुखाई से कहा, ‘‘अभी तो 6 बजे हैं, रात तक तुम्हें करना क्या है?’’


‘‘करना क्यों नहीं है भइया, मां बीमार हैं तो रसोई भी देखनी है. साथ में उन लोगों को भी…फिर रात में एक तो आशू को जल्दी नींद आने लगती है, दूसरे, टीवी के चक्कर में पढ़ नहीं पाता है.’’


‘‘तो क्या उस के लिए सब लोग टीवी देखना बंद कर दें,’’ राजीव ने चिढ़ कर कहा क्योंकि उसे रोली से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी. उस की सरल ममतामयी दीदी तो सुबह से आधी रात तक भाई की सेवा में लगी रहती.


इंटर के बाद रोली ने प्राइवेट बी.ए. की परीक्षा दी थी. परीक्षा के समय घर मेहमानों से भरा था. क्योंकि उस की बड़ी बहन दिव्या का विवाह था और वह दिनरात मेहमानों की आवभगत में लगी रहती. कोई भी रोली से यह न कहता कि तुम अकेले कहीं बैठ कर पढ़ाई कर लो. जबकि उस से बड़ी 2 बहनें, 2 भाई भी थे. घर में आए मेहमानों की जरूरतों को पूरा करने के बाद रोली ज्यों ही हाथ में कागजकलम या पुस्तक उठाती तो आवाज आती, ‘अरे कहां हो रोली…जरा ब्याह निपटा दो तब अपनी पढ़ाई करना.’


दोनों बहनें अपने छोटे बच्चों के चोंचलों और ससुराल के लोगों की आवभगत में अधिक लगी रहतीं. सब के मुंह पर दौड़भाग करती रोली का नाम रहता.


मां को तो घर आए मेहमानों से बातचीत से ही समय न मिलता, कितनी मुश्किल से अच्छा घरवर मिला है वह इस की व्याख्या करती रहतीं. बूआ ने रोली की परेशानी भांप कर कहा भी कि इस की परीक्षा के बाद ब्याह की तिथि रखतीं तो निश्चिंत रहतीं…


‘‘अब रोली की परीक्षा के लिए ब्याह थोड़े ही रुका रहेगा…फिर दीदी, यह पढ़लिख के कौन सा कलक्टर बन जाएगी. बस, ग्रेजुएट का नाम हो जाए फिर इस को भी पार कर के गंगा नहा लें हम.’’


रिश्ते की बूआ कह उठीं, ‘‘भाभी, आजकल तो लड़की को भी बराबरी का पढ़ाना पड़ रहा है. हम तो यह कह रहे थे कि परीक्षा के बाद ब्याह होता तो रोली पर पढ़ाई का बोझ न रहता. अभी तो उसे न पढ़ने के लिए समय है और न मन ही होगा.’’


‘‘दीदी, आप भूल रही हैं, हमारे यहां लड़के वालों की इच्छा से ही तिथि रखनी पड़ती है. लड़की वालों की मरजी कहां चलती है. हम ज्यादा कहेंगे तो उत्तर मिलेगा, आप दूसरा घर देख लीजिए.’’


रोली की जैसेतैसे परीक्षा हो गई थी. 50 प्रतिशत नंबर आए थे. आगे पढ़ने का न उत्साह रहा न सुविधा ही मिली और न कहीं प्रवेश ही मिला.


रोली के 3 वर्ष घर के काम करते, भाइयों के मन लायक भोजननाश्ता बनाते बीत गए. फिर उस का भी विवाह हो गया. घर भले ही साधारण था पर पति सुंदर, रोबीले व्यक्तित्व का था. अपने काम में कुशल, परिश्रमी और मिलनसार था. एक प्राइवेट फर्म में काम कर रहा था जहां उस के काम को देख कर मालिक ने विश्वास दिलाया था कि शीघ्र ही उस की पदोन्नति कर दी जाएगी. परिवार के लोग भी समीर को प्यार करते और मान देते थे. रोली को वर्ष भर में बेटा भी हो गया.


रोली के ससुराल जाने पर उस की सब से अधिक कमी भाई को अखरती. मां बीमार रहने लगी थीं और बहनें चली गईं. मां न राजीव के मन का खाना बना पातीं न पहले जैसे काम ही कर पातीं. रोली तो भाई के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस भी कर देती थी. उस की कापीकिताबें यथास्थान रखती और सब से बढ़ कर तो राजीव के पसंद का व्यंजन बनाती.


विवाह को अभी 3 साल भी न बीते थे कि रोली पर वज्र सा टूट पड़ा था. एक दुर्घटना में रोली के पति समीर की मृत्यु हो गई. समीर जिस फर्म में काम करता था उस के मालिक ने उस पर आरोप लगा कर कुछ भी आर्थिक सहायता देने से इनकार कर दिया. बेटी को मुसीबत में देख कर मातापिता उसे अपने घर ले आए.


रोली पहले तो दुख में डूबी रही. बड़ी मुश्किल से मां और बहनें उस के मुंह में 2-4 कौर डाल देतीं. उस का तो पूरा समय आंसू बहाने और साल भर के आशू को खिलानेपिलाने में ही बीत जाता था. कभी कुछ काम करने रोली उठती तो सभी उसे प्रेमवश, दयावश मना कर देते.


एक दिन ऐसे ही पगलाई हुई शून्य में ताकती मसली हुई बदरंग सी साड़ी पहने रोली बैठी थी कि मां की एक पुरानी सहेली मधु आ गई जो अब दूसरे शहर में रहती थी. मधु को देखते ही रोली दूसरे कमरे में चली गई क्योंकि किसी भी परिचित को देखते ही उस के आंसू बहने लगते थे.


मां ने कई बार आवाज दी, ‘‘बेटी रोली, देखो तो मधु मौसी आई हैं.’’


मां के बुलाने पर भी जब रोली नहीं आई तब मौसी स्वयं ही उसे पकड़ कर सब के बीच ले आईं और बहुत देर तक अपने से चिपटाए आंसू बहाती रहीं.


कुछ देर में उन्हें लगा, रोली से कुछ काम करने के लिए नहीं कहा जाता और न वह खुद काम में हाथ लगाती है. तब उन्होंने मां को और भाभी को समझाया कि इसे भी घर का कुछ काम करने दिया करो ताकि इस का मन लगा रहे. ऐसे तो यह अछूत की तरह अलग बैठीबैठी अपने अतीत को ही सोचती रहेगी और दुखी होगी.


‘‘हम तो इसे दुखी मान कर कुछ काम नहीं करने देते.’’


‘‘दीदी, आप उस पर भार भी न डालें पर व्यस्त जरूर रखें. आशू को भी उस के पास ही रहने दें क्योंकि दुख से उबरने के लिए अंधेरे में बैठे रहना कोई उपचार नहीं…और…’’


‘‘और क्या?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा.


‘‘यही कि आगे क्या सोचा है. आजकल तो लड़कियां बाहर का काम कर रही हैं. रोली भी कहीं कोई काम करेगी तो अपने पैरों पर खड़ी होगी… अभी उस की उम्र ही क्या है, कुछ आगे पढ़े, कोई ट्रेनिंग दिलवाइए…देखिए, कोई हाथ थामने वाला मिल जाए…’’


‘‘क्या कह रही हो, मधु…रोली तो इस तरह की बातें सुनना भी नहीं चाहती है. पहले भी किसी ने कहा था तो रोने बैठ गई कि क्या मैं आप को भारी हो रही हूं…ऐसा है तो मुझे मेरी ससुराल ही भेज दें, जैसेतैसे मेरा ठिकाना लग ही जाएगा…


‘‘मधु, इस के लिए 2-1 रिश्ते भी आए थे. एक 3 पुत्रियों का पिता था जो विधुर था. कहा, मेरे बेटा भी हो जाएगा और घर भी संवर जाएगा. जमीनजायदाद भी थी. लेकिन यह सोच कर हम ने अपने पांव पीछे खींच लिए कि सौतेली मां अपना कलेजा भी निकाल कर रख दे फिर भी कहने वाले बाज नहीं आते. वैसे यह तो सच है कि विधवा का हाथ थामने वाला हमारे समाज में जल्दी मिल नहीं सकता, फिर दूसरे के बच्चों को पिता का प्यार देना आसान नहीं.’’


‘‘गे्रजुएट तो है. किसी तरह की ट्रेनिंग कर ले. आजकल तरहतरह के काम हैं.’’


लेकिन लड़की के लिए सुरक्षित स्थान और इज्जतदार नौकरी हो तब न. फिर उस का मन भी नहीं है…भाई भी पक्ष में नहीं है.


एक के बाद एक कर 8 वर्ष बीत गए. रोली घर के काम में लगी रहती. गरम खाना, चायनाश्ता देना, घर की सफाई करना और सब के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस करना उस का काम रहता. बीतते समय के साथ अब उस की सहेलियां भी अपनीअपनी ससुराल चली गईं जो कभी आ कर रोली के साथ कुछ समय बिता लिया करती थीं.


उस दिन उस की एक पुरानी सहेली मनजीत आई थी. वह उसे अपने घर ले गई जहां महराजिन को बातें करते रोली ने सुना, ‘‘बीबीजी, मैं तो पहले कभी दूसरे की रसोई में भी नहीं जाती थी. काम करना तो दूर की बात थी. पर जब मनुआ के बाबू 2 दिन के बुखार में चल बसे तब घर का खर्च पीतलतांबे के बरतन, चांदीसोने के गहने बेच कर मैं ने काम चलाया. उस समय मेरे भाइयों ने गांव में चल कर रहने को कहा. मैं ने अपनी चचिया सास के कहने पर जाने का मन भी बना लिया था लेकिन इसी बीच मेरी जानपहचान की एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि बेटी, तुम यहीं रहो. मैं काम करती हूं तुम भी मेरे साथ खाना बनाने का काम करना. बेटी, काम कोई बुरा नहीं होता. काम को छोटाबड़ा तो हम लोग बनाते और समझते हैं. मैं जानती हूं कि गांव में तुम कोई काम नहीं कर पाओगी. कुछ दिन तो भाभी मान से रखेंगी पर बाद में छोटीछोटी बातें अखरने लगती हैं. उस के बाद से ही मैं ने कान पकड़ा और यहीं रहने लगी. अपनी कोठरी थी और अम्मां का साया था.’’


रोली दूर बैठी उन की बातें सुन रही थी और उसे अपने पर लागू कर सोच रही थी कि मातापिता जहां तक होता है उस के लिए करते हैं किंतु भाभी… अखरने वाली बातें सुना जाती हैं. अब कल ही तो भाभी अपने बच्चों के लिए 500 के कपड़े लाईं और उस के आशू के लिए 100 रुपए खर्चना भी उन्हें एहसान लगता है.


‘गे्रजुएट है, कोई काम करे, कुछ ट्रेनिंग ले ले,’ मधु मौसी ने पहले भी कहा था पर मां ने कह दिया कि लड़की के लिए सुरक्षित स्थान हो, इज्जतदार नौकरी हो तब ही न सोचें. सोचते हुए 8 वर्ष बीत गए थे.


उस की सहेली मनजीत कौर के पिता की कपड़ों की दुकान थी. पहले मनजीत भी अकसर वहां बैठती और हिसाबकिताब देखती थी. कई सालों से मनजीत उसे दुकान पर आने के लिए कह रही थी और एक बार उस ने दुकान पर ही मिलने को बुलाया था. रोली वहां पहुंची तो मनजीत बेहद खुश हुई थी और उसे अपने साथ अपनी दूसरी दुकान पर चलने को कहा.


रोली को बुनाई का अच्छा अनुभव था. किसी भी डिजाइन को देख कर, पढ़ कर वह बना लेने में कुशल थी. रोली ने वहां कुछ बताया भी और आर्डर भी लिए. मनजीत कौर ने उस से कहा, ‘‘रोली, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी.’’


‘‘नहीं, कहो न.’’


‘‘मैं चाहती हूं कि तुम दिन में किसी समय आ कर थोड़ी देर यहां का काम संभाल लिया करो. तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और मेरी मदद भी हो जाएगी.’’


‘‘तुम मां से कहना,’’ रोली ने कहा, ‘‘मुझे तो मनजीत कोई आपत्ति नहीं है.’’


उसी दिन शाम को मनजीत ने रोली की मां से कहा, ‘‘आंटी, मैं चाहती हूं कि रोली मेरे साथ काम में हाथ बंटा दे.’’


रोली की मां को पहले तो अच्छा नहीं लगा. सोचा शायद इसे पैसे की कमी खटक रही है. अभी रोली की मां सोच रही थीं कि मनजीत बोल पड़ी, ‘‘आंटी, इस का मन भी घर से बाहर निकल कर थोड़ा बहल जाएगा और मुझे अपने भरोसे की एक साथी मिल जाएगी. यह केंद्र समाज सेवा के लिए है.’’


मां ने यह सोच कर इजाजत दे दी कि रोली घर के बाहर जाएगी तो ढंग से रहेगी.


महीने के अंत में मनजीत ने रोली को लिफाफा पकड़ा दिया.


‘‘यह क्या है?’’


‘‘कुछ खास नहीं. यह तो कम है. तुम्हारे काम से मुझे जो लाभ हुआ है उस का एक अंश है. हमें दूरदूर से आर्डर मिल रहे हैं तो मेरी सास और पति का कहना है कि हमारे पास खाने को बहुत है…तुम मेरी सहायता करती रहो और मेरे केंद्र को चलाने में हाथ बंटाओ. मेरी बहन की तरह हो तुम…’’


रोली की मां को खुशी थी कि अब उन की बेटी अपने मन से खर्च कर पाएगी. भाईबहन का स्नेह मिलता रहे पर उन की दया पर ही निर्भर न रहे. बाहर की दुनिया से जुड़ कर उस का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा साथ ही जीने का उत्साह भी.

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