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कहानी: रिश्तों का अल्पविराम

शादीशुदा नूपुर मधुर से मिल कर अपनी पूर्णता से आनंदित हो रही थी परंतु यह सुख उसे चुराया हुआ लग रहा था. पति और प्रेमी के बीच अपने मन के द्वंद्व को क्या वह विराम दे पाई...?


नूपुर ने बाल संवारे और शीशे के सामने से हटने ही वाली थी कि ध्यान पहनी हुई साड़ी पर चला गया. कितना समय हो गया इस साड़ी को खरीदे, पर आज भी जब वह इसे पहनती है, तो मधुर इस साड़ी के हलके तोतिया रंग पर फिदा हो जाता है. कहर ढाती हो आज भी – ऐसा ही कुछ कहने लगता है. कितने वर्ष बीत गए नूपुर को मधुर की हुए, अब तो उस ने गिनती रखनी भी छोड़ दी है. लेकिन आज भी जब दोनों एकदूसरे के सामने होते हैं, तो वही नूतन पल्लवित प्यार की भावना उस के अंदर अंगड़ाई लेने लगती है, जैसे अब भी वह षोडशी हो और मधुर उस का पहला प्यार… मन की मुसकान अधरों तक छलक गई.


खयालों में खोई नूपुर की उंगलियां अपनी केशलटों से खेलने लगीं कि तेज की पुकार पर उस का ध्यान भटका, “मुझे लेट हो रहा है, मौम, प्लीज हरी अप.”सारे खयालों को वहीं आईने की मेज पर छोड़ नूपुर किचन में आ गई. तेज को उस का टिफिन पकड़ाया और स्वयं अपने औफिस के लिए निकल गई.


दिल्ली की भीड़ में आज कार ले कर भिड़ने का मन नहीं किया. सो, उस ने कैब बुला ली. जब मन ढीला अनुभव करता है तो शरीर भी स्वतः सुस्तप्राय हो जाता है. फिर आज शाम जल्दी घर लौटना भी है, इसलिए टाइम से औफिस जाना जरूरी है. शाम को संजीव बेंगलुरु से वापस लौट आएगा. उस के आने से पहले नूपुर उस की पसंद का खाना बना कर फ्री हो जाना चाहती है, ताकि बेंगलुरु की गपें सुनने के लिए उस के पास समय रहे. अपने परिवार के साथ समय व्यतीत करना नूपुर को बेहद भाता है.


शाम तक सारा काम निबटा कर नूपुर ने लिविंग रूम में बैठ कर एक कप चाय पी. संजीव को तो फिल्टर कौफी पसंद है. सो, उस के आने पर वही बना देगी. तभी डोरबेल बजी. मुसकराते हुए उस ने दरवाजा खोला. किंतु संजीव ने एक फीकी सी मुसकराहट के साथ प्रवेश किया और सीधा अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. हर बार की भांति उस ने न तो नूपुर को प्यार से संबोधित किया और न ही उस के हाथ में अपना बैग पकड़ाया. नूपुर के दिल में खंजर उतर गया. उसे अनायास ही संजीव का पिछला टूर याद आ गया, जब वह इसी तरह लौटा था. तब कैसे उस ने “हाय लव” कहते हुए नूपुर के गाल पर एक हलका सा चुंबन अंकित किया था.


तभी तेज भी वहां पहुंच गया था. “ये पीडीए बेडरूम के लिए रख लो आप दोनों.” तेज के कहने पर नूपुर जरा लजा गई थी और संजीव बोला था, “क्यों भाई, आखिर कानूनन पतिपत्नी हैं, जहां चाहे प्यार जताएं.” लेकिन आज, रात्रि भोजन के पश्चात संजीव का देर तक तेज के साथ बातों का सिलसिला चलता रहा. संजीव बेंगलुरु के अपने औफिस की बातें विस्तार से सुनाता रहा. हर बार उस के इन किस्सों का रुख नूपुर की ओर ही हुआ करता था किंतु इस बार… पर फिर भी नूपुर पूरे ध्यान से वहीं डटी रही. व्यापार की बारीकियों में नूपुर चाहे बोर भी हो जाए, परंतु चेहरे से वह ये बात कभी भी संजीव पर जाहिर नहीं होने देती. उसे यही आभास करवाती कि नूपुर को उस की बातों में विशेष रुचि है.


तेज के बड़े होने के साथ वह अपनी अलग दुनिया में मस्त रहने लगा है. ऐसे में नूपुर के पास संजीव और उस का साथ ही तो है. उस ने संजीव की ओर देखा. बिस्तर के दूसरे कोने पर वह थक कर खर्राटों के हवाले हो चुका था. संजीव के सिवा उस का है ही कौन के विचार के साथ ही उस के मन ने स्वयं को टोका “और मधुर…?”मधुर का जिक्र मन ने छेड़ा, तो नूपुर के विचारों के घोड़े सरपट दौड़ने लगे. और वह अपने विचारों के घोड़ों पर बैठ कर स्वतंत्रता से धावने लगी.


“पापा प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश तो करिए. मैं उस से प्यार करती हूं, उस के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हूं,” बीस वर्ष पूर्व नूपुर की रोरो कर हिचकी बंध गई थी.“निर्लज्ज कहीं की… बाप के सामने अपने मुंह से प्यार की बात करते शर्म नहीं आ रही. छी: छी:,” मां को पिता की उपस्थित में बेटी द्वारा अपने दिल का हाल कहना रास नहीं आ रहा था. आखिर पित्रसत्ता की घुट्टी जो इस संसार में आंख खोलते ही जबान पर शहद के साथ चटा दी जाती है, और जिस की खुराक उम्र बढ़ने के साथ अधिक होती चली जाती है, उस की गहरी पकड़ छूटे तो कैसे. “उस पर विजातीय के साथ… छी: छी:,” मां को नूपुर से आती घिन तीव्र होती जा रही थी.


“ये बेचारे सारी उम्र घरगृहस्थी के लिए मशक्कत करते रहे और बदले में मिला तो क्या, बेटी की मुंहजोरी. इस से अच्छा तो तू पैदा होते ही मर गई होती,” मां न जाने क्याक्या अनापशनाप कहती चली गई थीं. पापा कह तो कुछ नहीं रहे थे, किंतु उन की नजरों को नूपुर की ओर देखना भी गवारा नहीं था. काफी देर जब घर में क्लेश चलता रहा, तो उसे थामने के लिए पापा ने ही पूर्णविराम लगाया था.


“तुम्हारे कहने पर एक बार हम उस नीच से मिलने को भी तैयार हो गए थे. पर, फिर क्या हुआ? क्या वह समय पर आया? स्वयं मुलाकात की तारीख और समय निश्चित कर वह नहीं आया और तुम चाहती हो कि… तुम ने अपने जीवन को डुबोने का निश्चय कर लिया है क्या? ऐसे नीच के पल्ले बंधना चाहती हो, जो शायद तुम से अपना पीछा छुड़ाना चाहता है, वरना क्या वजह हो सकती है जो वह कह कर भी नहीं आया, बताओ.”


नूपुर ने बाल संवारे और शीशे के सामने से हटने ही वाली थी कि ध्यान पहनी हुई साड़ी पर चला गया. कितना समय हो गया इस साड़ी को खरीदे, पर आज भी जब वह इसे पहनती है, तो मधुर इस साड़ी के हलके तोतिया रंग पर फिदा हो जाता है. कहर ढाती हो आज भी – ऐसा ही कुछ कहने लगता है. कितने वर्ष बीत गए नूपुर को मधुर की हुए, अब तो उस ने गिनती रखनी भी छोड़ दी है. लेकिन आज भी जब दोनों एकदूसरे के सामने होते हैं, तो वही नूतन पल्लवित प्यार की भावना उस के अंदर अंगड़ाई लेने लगती है, जैसे अब भी वह षोडशी हो और मधुर उस का पहला प्यार… मन की मुसकान अधरों तक छलक गई.


खयालों में खोई नूपुर की उंगलियां अपनी केशलटों से खेलने लगीं कि तेज की पुकार पर उस का ध्यान भटका, “मुझे लेट हो रहा है, मौम, प्लीज हरी अप.” सारे खयालों को वहीं आईने की मेज पर छोड़ नूपुर किचन में आ गई. तेज को उस का टिफिन पकड़ाया और स्वयं अपने औफिस के लिए निकल गई.


दिल्ली की भीड़ में आज कार ले कर भिड़ने का मन नहीं किया. सो, उस ने कैब बुला ली. जब मन ढीला अनुभव करता है तो शरीर भी स्वतः सुस्तप्राय हो जाता है. फिर आज शाम जल्दी घर लौटना भी है, इसलिए टाइम से औफिस जाना जरूरी है. शाम को संजीव बेंगलुरु से वापस लौट आएगा. उस के आने से पहले नूपुर उस की पसंद का खाना बना कर फ्री हो जाना चाहती है, ताकि बेंगलुरु की गपें सुनने के लिए उस के पास समय रहे. अपने परिवार के साथ समय व्यतीत करना नूपुर को बेहद भाता है.


शाम तक सारा काम निबटा कर नूपुर ने लिविंग रूम में बैठ कर एक कप चाय पी. संजीव को तो फिल्टर कौफी पसंद है. सो, उस के आने पर वही बना देगी. तभी डोरबेल बजी. मुसकराते हुए उस ने दरवाजा खोला. किंतु संजीव ने एक फीकी सी मुसकराहट के साथ प्रवेश किया और सीधा अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. हर बार की भांति उस ने न तो नूपुर को प्यार से संबोधित किया और न ही उस के हाथ में अपना बैग पकड़ाया. नूपुर के दिल में खंजर उतर गया. उसे अनायास ही संजीव का पिछला टूर याद आ गया, जब वह इसी तरह लौटा था. तब कैसे उस ने “हाय लव” कहते हुए नूपुर के गाल पर एक हलका सा चुंबन अंकित किया था.


तभी तेज भी वहां पहुंच गया था. “ये पीडीए बेडरूम के लिए रख लो आप दोनों.”तेज के कहने पर नूपुर जरा लजा गई थी और संजीव बोला था, “क्यों भाई, आखिर कानूनन पतिपत्नी हैं, जहां चाहे प्यार जताएं.”


लेकिन आज, रात्रि भोजन के पश्चात संजीव का देर तक तेज के साथ बातों का सिलसिला चलता रहा. संजीव बेंगलुरु के अपने औफिस की बातें विस्तार से सुनाता रहा. हर बार उस के इन किस्सों का रुख नूपुर की ओर ही हुआ करता था किंतु इस बार… पर फिर भी नूपुर पूरे ध्यान से वहीं डटी रही. व्यापार की बारीकियों में नूपुर चाहे बोर भी हो जाए, परंतु चेहरे से वह ये बात कभी भी संजीव पर जाहिर नहीं होने देती. उसे यही आभास करवाती कि नूपुर को उस की बातों में विशेष रुचि है.


तेज के बड़े होने के साथ वह अपनी अलग दुनिया में मस्त रहने लगा है. ऐसे में नूपुर के पास संजीव और उस का साथ ही तो है. उस ने संजीव की ओर देखा. बिस्तर के दूसरे कोने पर वह थक कर खर्राटों के हवाले हो चुका था. संजीव के सिवा उस का है ही कौन के विचार के साथ ही उस के मन ने स्वयं को टोका “और मधुर…?”मधुर का जिक्र मन ने छेड़ा, तो नूपुर के विचारों के घोड़े सरपट दौड़ने लगे. और वह अपने विचारों के घोड़ों पर बैठ कर स्वतंत्रता से धावने लगी.


“पापा प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश तो करिए. मैं उस से प्यार करती हूं, उस के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हूं,” बीस वर्ष पूर्व नूपुर की रोरो कर हिचकी बंध गई थी.


“निर्लज्ज कहीं की… बाप के सामने अपने मुंह से प्यार की बात करते शर्म नहीं आ रही. छी: छी:,” मां को पिता की उपस्थित में बेटी द्वारा अपने दिल का हाल कहना रास नहीं आ रहा था. आखिर पित्रसत्ता की घुट्टी जो इस संसार में आंख खोलते ही जबान पर शहद के साथ चटा दी जाती है, और जिस की खुराक उम्र बढ़ने के साथ अधिक होती चली जाती है, उस की गहरी पकड़ छूटे तो कैसे. “उस पर विजातीय के साथ… छी: छी:,” मां को नूपुर से आती घिन तीव्र होती जा रही थी.


“ये बेचारे सारी उम्र घरगृहस्थी के लिए मशक्कत करते रहे और बदले में मिला तो क्या, बेटी की मुंहजोरी. इस से अच्छा तो तू पैदा होते ही मर गई होती,” मां न जाने क्याक्या अनापशनाप कहती चली गई थीं. पापा कह तो कुछ नहीं रहे थे, किंतु उन की नजरों को नूपुर की ओर देखना भी गवारा नहीं था.काफी देर जब घर में क्लेश चलता रहा, तो उसे थामने के लिए पापा ने ही पूर्णविराम लगाया था.


“तुम्हारे कहने पर एक बार हम उस नीच से मिलने को भी तैयार हो गए थे. पर, फिर क्या हुआ? क्या वह समय पर आया? स्वयं मुलाकात की तारीख और समय निश्चित कर वह नहीं आया और तुम चाहती हो कि… तुम ने अपने जीवन को डुबोने का निश्चय कर लिया है क्या? ऐसे नीच के पल्ले बंधना चाहती हो, जो शायद तुम से अपना पीछा छुड़ाना चाहता है, वरना क्या वजह हो सकती है जो वह कह कर भी नहीं आया, बताओ.”


संजीव को पति के रूप में पा कर नूपुर का जीवन संवर गया था. फिर आंगन में किलकारियां गूंजीं और नूपुर अपनी गृहस्थी की लहरों में प्रसन्नता के अतिरेक में बहती चली गई.

उन के द्वारा कही बातों का कोई प्रतिउत्तर नहीं था नूपुर के पास. यह तो वह भी नहीं जानती थी कि मधुर क्यों नहीं आया था. मां और पापा के उलाहनों ने उस के कान छलनी कर डाले थे. “अब निर्णय तुम्हारे हाथ में है. चाहो तो उस के पास चली जाओ…””और हमारी नाक कटवा दो,” मां पापा की बात को बीच में काटते हुए बोल पड़ी थीं.


उन को चुप रहने का इशारा कर पापा ने आगे कहा था, “चाहो तो इसी घर में रह कर उस का इंतजार करती रहो…”“और हमारी छाती पर मूंग दलो,” मां फिर बीच में बोल पड़ी थीं, “छोड़ोजी, अंधे के आगे रोने में अपनी ही आंखों का घाटा है.”


“या फिर जहां हम कहें वहां अपना घर बसाओ. कहो, क्या निर्णय है तुम्हारा?” पापा की बात आज भी नूपुर के मन में ऐसी हरी है, जैसे आज ही शाम घटा कोई किस्सा हो. काश, तब आज की तरह हाथ में मोबाइल फोन होता तो झट पता कर लेती कि क्या कारण था जो मधुर उस शाम नहीं आ पाया था. चलो, आज तो है हाथ में मोबाइल फोन, परंतु क्या आज भी वह मधुर को फोन कर पा रही है?


कुछ सोचविचार कर वह स्टडीरूम में अपने लैपटौप को खोल कर कुछ टाइप करने बैठ गई. एक लंबी ईमेल लिखने के पश्चात उस के नेत्रों में बचीखुची नींद भी गायब हो गई. जब वह अपने कमरे में लौटी तो बिस्तर पर संजीव को नींद की आगोश में चैन से समाया देख मुसकराई, “कितने निश्चल लगते हैं संजीव सोते हुए, बिलकुल बच्चे की तरह. और जब जाग जाते हैं तो एक बार फिर बच्चों की मानिंद एक्टिव हो उठते हैं.”


संजीव को पति के रूप में पा कर नूपुर का जीवन संवर गया था. फिर आंगन में किलकारियां गूंजीं और नूपुर अपनी गृहस्थी की लहरों में प्रसन्नता के अतिरेक में बहती चली गई. सुख की स्वर्णकिरणों से ओजस अपने संसार को नूपुर बहुत सहेज कर रखती आई है. तभी तो हर बात में टचवुड कह लकड़ी की किसी वस्तु को हाथ लगाती फिरती है. उस की इस अदा पर मधुर भी उस की खिंचाई करते नहीं थकता. “जल्दी से टचवुड कर लो,” उस के हंसते ही मधुर उसे छेड़ता है.


मधुर का खयाल आते ही नूपुर के चेहरे पर मिलेजुले भाव तैरने लगे – कभी मधुर के साथ बिताए आनंद वाले पल तो कभी संजीव के साथ चलती सुखमय जिंदगी.इन्हीं विचारों में उलझे नूपुर के दिमाग की नसें तड़कने लगीं. वह इतना थक गई कि कब सो गई, उसे पता ही नहीं हुआ.


“मुझे मिलना है तुम से. केवल चैट कर लेने से मेरा मन नहीं भरता, ये बात तुम जानती हो,” मधुर कह रहा था.“जानती हूं, पर तुम भी तो जानते हो कि मेरी एक गृहस्थी है – पति है, बेटा है. यों ही उठ कर तुम से मिलने नहीं आ सकती मैं. याद है न, पिछली बार क्या हुआ था?” नूपुर ने कहा ही था कि इस स्वप्न ने उस की नींद उचाट डाली. मधुर के साथ ये संवाद उस के मन की उपज थे या फिर उन दोनों के दिलों की भावनाओं को शब्द मिल गए थे. अब जो होगा देखा जाएगा, जो करना था वो कर चुकी है नूपुर. एक बार फिर स्वयं को नींद के हवाले करने के हठ से उस ने फिर आंखें मूंद लीं.


कोई और दिन होता तो नूपुर संजीव के सो जाने के पश्चात अपने तकिए के नीचे से अपना फोन निकालती और चैट विंडो खोल कर मधुर को टैक्स्ट कर लेती. करीब 15-20 मिनट चैटिंग कर लेने के पश्चात नूपुर का मन तरोताजा हो जाता और वह संजीव की कमर में अपनी बांह सरकाते हुए सो जाती. किंतु अब बात भिन्न है. आज से नूपुर को इस चैटिंग से मिलती शीतलता से स्वयं प्रगमन करना होगा.


अगली सुबह नूपुर संजीव के अबोले व्यवहार से कुछ क्षुब्ध अवश्य हुई, परंतु उस ने संजीव पर ऐसा व्यक्त नहीं होने दिया. सारे काम विधिपूर्वक करती रही.नाश्ता कर के संजीव अपनी फैक्टरी चला गया. तेज भी अपने कालेज चला गया. अब नूपुर हर लिहाज से मुक्त थी – घर के काम से और अपनों की दृष्टि से. कुछ सोच कर वह पुनः अपने लैपटौप पर बैठ गई, शायद मधुर ने उस की ईमेल पढ़ ली हो, और उस का कोई प्रतिउत्तर आया हो. कैसा होगा वो प्रतिउत्तर? क्या लिखेगा वह? क्या स्वीकार लेगा उस के निर्णय को? यदि नहीं तो क्या करेगी नूपुर? कैसे मनाएगी उसे कि वह नूपुर की बात मान ले? ढेरों चिंताओं की लकीरों को अपने माथे पर बिछाए वह अपनी ईमेल चेक करने लगी. हां, मधुर की ईमेल आई है. एक क्षण को दिल धक्क से रह गया. हिम्मत कर उस ने मेल खोली.

 

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यह ईमेल लिखने के लिए मधुर को जितनी एकाग्रता की आवश्यकता है, वह उसे न तो घर में बीवीबच्चों के मध्य मिल सकती थी और न ही औफिस की आपाधापी में. तभी तो अपनी अगली मीटिंग को स्थगित कर वह केफेटेरिया में सब की ओर पीठ घुमा कर बैठा था, या यों कह सकते हैं कि छुपने का प्रयास कर रहा था. काश, उसे आज निर्जन एकांत प्राप्त हो पाता. शरीर भले ही उस का यहां उपस्थित था, किंतु मनप्राण से वह आज अतीत, वर्तमान और भविष्य के झूलों में डगमगा रहा था. कितनी बार उंगलियां फोन पर नूपुर का नंबर मिलाते हुए ठिठक चुकी थीं. उस की आवाज सुनेगा तो स्वयं को रोक नहीं सकेगा. इसलिए यही सही निर्णय था कि उसे ईमेल कर दिया जाए. मधुर ने ड्राफ्ट तैयार कर रखा था. उस में कुछ बदलाव, सुधार कर उस ने मेल सेंड की थी कि उसे अपने इनबौक्स में नूपुर की मेल दिखाई दी. आश्चर्य से उस ने मेल पढ़नी आरंभ कर दी.

 


“मेरे प्रियतम,


तुम से मिल कर कहना चाहती थी… पर हिम्मत ने साथ न दिया. तुम जानते हो न कि तुम्हारे सामने आते ही मैं किस कदर दीवानी हो जाती हूं. अपनी उम्र भूल बैठती हूं, तुम्हारी भी. लगने लगता है जैसे अब भी हम कालेज के विद्यार्थी हैं. समय पूरी रफ्तार से पीछे दौड़ने लगता है. परिपक्वता बिसरा देती हूं, इसलिए सही बात सही ढंग से शायद कह नहीं सकूंगी, सो तुम्हें मेल करना ही उचित लगा. तुम सोच रहे होगे कि आखिर ऐसी क्या बात होगी.


 “याद है मधुर, जब हम दोनों कालेज के दिनों में मिले थे. वो हमारी पहली मुलाकात, जब रैगिंग के दौरान मेरी घिग्घी बंध गई थी. तुम भी तो थे उन रैगिंग करने वाले झुंड में.


“तुम्हारे आतंक के मारे सभी फ्रेशर्स कांप रहे थे. मुझे भी सब की बातें सुन कर तुम से डर लगने लगा था. लेकिन मेरी बारी आने पर जब तुम ने मुझे रूम से चले जाने का इशारा किया था, तब जा कर मेरी जान में जान आई थी. अपने सहपाठियों के शोर मचाने पर तुम्हारा एक उंगली का इशारा सब को कैसे चुप करवा गया था. बस, उसी पल मैं तुम्हारी दीवानी हो उठी थी.”


मधुर की मेल पढ़ते हुए नूपुर को वह वाकिया याद हो आया, जब वह तैयार हो कर नियत होटल में मधुर से मिलने पहुंची थी. उस दिन वह घर के प्रति निश्चिंत थी

अपने घर की बालकनी में नूपुर हाथ में चाय का प्याला लिए मधुर की मेल खोल कर पढ़ने लगी –


“मेरी अपनी नूपुर, आज मन अनायास ही कई वर्ष पीछे लुढ़क गया. याद है हमारी पहली मुलाकात? रैगिंग के उन क्षणों में बेचारगी भरा तुम्हारा कंपकंपाता चेहरा, डर से सफेद पड़ा रंग और प्रकंपी स्वर ने मुझे अपनी ओर ऐसा आकर्षित किया कि कोमल संवेदनाओं के उन रेशमी तारों की गिरफ्त से मैं आज भी स्वयं को छुड़ा न पाया.


“फिर हमारा प्रेम यों परवान चढ़ा कि सब को हम से ईर्ष्या होती थी. याद है न, कैसे सब हम दोनों में कभी गलतफहमी तो कभी फूट डालने की कोशिशें किया करते थे. आज अगर दिलीप मिल जाए तो साले की टांग तोड़ दूं. कैसे उस ने तुम्हारी सहेली के लिए मेरे नाम से प्रेमपत्र लिख कर तुम्हें दिखाया था. वो तो हमारा एकदूसरे पर अटूट विश्वास था कि लिखावट मिलतीजुलती होते हुए भी तुम ने मुझ पर शक नहीं किया. आज सोचता हूं तो हंसी आती है कि अपने ही दोस्त टांगखिंचाई का कोई अवसर नहीं चूकते थे.”


मेल को आगे पढ़ती नूपुर को अचानक समय का आभास हुआ. संजीव का ड्राइवर आता होगा लंच का बैग लेने.मेल को अधूरा छोड़ वह रसोईघर में संजीव के लिए खाना पकाने चली गई. मधुर के पठन में किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं थी. आज वह अपने स्टाफ की नजरों से दूर बैठ कर नूपुर की मेल जो पढ़ रहा था.


“वह दिन मैं आज भी नहीं भूल सकती, जब तुम्हें मेरे घर मेरे पापा से मेरा हाथ मांगने आना था. तुम नहीं आए. मैं ने कितनी मिन्नतों से मांपापा को तुम से मिलने को राजी किया था. तुम्हारे दबंगई व्यक्तित्व के किस्से मेरे कुछ कहने से पहले ही उन तक पहुंच चुके थे. उन्हें मुझ पर संदेह हो चुका था. मेरा तुम से मिलना उन्हें कतई पसंद न था. उस पर हमारी शादी… ये तो उन के लिए वज्रपात समान था. हमारे घरों में तब लड़कियां अपनी पसंद का वर कहां चुनती थीं. अच्छी लड़कियां तो वही कहलाती थीं, जो नीचे सिर किए, नीची दृष्टि से बस बड़ों की आज्ञा का पालन करती रहें. कितनी मनुहारों के पश्चात वे बेमन से तुम से मिलने को तैयार हुए थे.


“सोचो, मेरी क्या स्थिति हुई होगी, जब ऐसे में तुम नहीं आए. मां ने मुझे कितनी खरीखोटी सुनाई थी. पापा ने यह कहते हुए भी अपना क्षोभ व्यक्त कर दिया था. “उस शाम पापा की बातें सुन कर अपनी सूजी हुई आंखों को मूंद कर मैं ने सिर झुकाते हुए निर्णय ले लिया था. तुम्हारे कारण मेरी अपने परिवार के समक्ष इतनी बेइज्जती हुई थी कि मेरा तुम्हारे प्रति बिफरना स्वाभाविक था.


“काश, तब आज की तरह हाथ में मोबाइल होता तो झट पता कर लेती कि क्या कारण था, जो तुम उस शाम नहीं आए थे. लेकिन जो परिस्थिति थी, उस के मुताबिक चलने को विवश मुझे अपने घर वालों के समक्ष हथियार डालने पड़े थे. तुम्हारे उस गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से चिढ़ कर मैं परिवार की इच्छा के आगे झुक गई. और फिर वही हुआ, जो ऐसी परिस्थितियों में अकसर होता है – घर वालों ने आननफानन मेरा विवाह संजीव से करवा दिया. वो तो मेरा समय अच्छा था, जो संजीव के रूप में एक संवेदनशील, प्यार करने वाला और मुझे समझने वाला जीवनसाथी मिला.


“मैं जानती हूं कि संजीव की प्रशंसा को तुम उसी प्रकार लोगे, जिस तरह मैं तुम्हारी पत्नी के प्रति तुम्हारे प्रेम और दायित्व को समझती हूं. “विवाहोपरांत मैं अपने जीवन में खो चुकी थी. तुम्हें याद करती थी, किंतु फिर भी लगभग भुला चुकी थी. समझती थी कि एक अध्याय था, जो अधूरा ही छूट गया. यदि तुम मुझे एक बार फिर न मिलते तो संभवतः मैं पूर्ण जीवन तुम्हारे प्रति गलतफहमी पाले रहती कि तुम ने मुझे धोखा दिया. मेरा मन अकसर मुझे सालता कि जिस से मैं ने पहला प्रेम किया, उस ने बिना कुछ कहेसुने मुझे बीच मंझधार में छोड़ दिया. मेरा क्या हुआ, उसे इस बात की भी चिंता नहीं हुई.”


“मधुर सर, आप यहां बैठे हैं? मैं ने आप को सारे औफिस में ढूंढ़ा,” अपनी सेक्रेटरी की आवाज पर मधुर मेल को बीच में ही छोड़ चौंक गया. “सर, दस मिनट में आप की मीटिंग है मैनेजमेंट के साथ.” “याद है मुझे”, अपनी बात ढकते हुए मधुर बोला. मेल को बंद कर अब उसे मीटिंग में जाना पड़ा.


ड्राइवर लंच ले कर जा चुका था. नूपुर अब फिर मेल पढ़ने बैठ गई.  “मैं सोच भी नहीं सकता कि उस शाम तुम पर क्या गुजरी होगी, जब वादाखिलाफी करते हुए मैं तुम्हारे घर नहीं पहुंचा था. मेरी गलती थी, सरासर. तुम्हें पता है कि मेरा स्वभाव कितना दबंगई हुआ करता था. किस मुंह से तुम्हारे घर वालों से मिलता, किस आधार पर तुम्हारा हाथ मांगता. मैं ने सोचा कि पहले कुछ बन जाऊं, ताकि सिर ऊंचा कर के तुम्हारा रिश्ता मांग सकूं. पर कितना बेवकूफ था मैं, जो तुम्हें भी असली कारण नहीं बताया. तुम्हें अंधेरे में रखने की सजा भुगती. जब कुछ महीनों बाद तुम्हारे घर पहुंचा और ज्ञात हुआ कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. अगले कितने महीने मैं ने देवदास बन कर काटे. फिर मेरी मां ने जबरदस्ती मेरी शादी करवा दी. लेकिन शुभा को पत्नी के रूप में पा कर मैं पूरी तरह संतुष्ट हुआ. बेशक, वह एक अच्छी जीवनसंगिनी बनी.


“शादी हो गई, जिंदगी ने नया मोड़ ले लिया, मगर तुम्हें भुला पाना कठिन रहा. शुभा के साथ स्नेहिल क्षणों में भी आंख मूंदता तो तुम्हें सामने पाता. स्मृतियों के शिकंजों से मुक्ति सरल नहीं होती. तभी तो सोशल मीडिया के जमाने में अपना अकाउंट बनाते ही मैं ने सब से पहले तुम्हें खोजना जारी रखा. जिस दिन तुम मुझे मिल गईं, उस दिन को भुला पाना संभव नहीं. तभी तो हर साल हम दोनों उस दिन को संग मनाते हैं.”


सही लिखा मधुर ने, नूपुर सोचने लगी. उस के अपने मन में भी न जाने कितनी बार ये खयाल आया कि यदि कभी मार्क जुकरबर्ग से कह सकी तो जरूर कहेगी कि उसे हम जैसे प्रेमियों की अनेकोंनेक दुआएं मिलेंगी, जो उस के कारण एक बार फिर जीवन के दूसरे मोड़ पर मिल सके. मधुर ने नूपुर को खोज निकाला था और सारी गलतफहमियां दूर कर दी थीं. नूपुर आगे पढ़ने लगी…


“शुक्र है जिंदगी ने एक बार फिर मुझे तुम से मिला दिया. कहने को अब हम दोनों शादीशुदा हैं, हमारी अपनी गृहस्थियां, अपनी जिम्मेदारियां हैं, पर फिर भी एकदूसरे को पा कर ही हम पूर्ण हो सके.


“याद है तुम्हें जब हम दोनों इतने वर्षों के अंतराल के पश्चात एक बार फिर एकदूसरे के समक्ष आए थे. तुम्हें अपने पसंदीदा हरे रंग के अंगरखा सूट में देखते ही मैं समझ गया था कि तुम्हारे दिल में मैं अब भी जिंदा हूं. चाहे साल गुजर गए, चाहे हमारे जीवनसाथी बदल गए, हम अलगअलग जिम्मेदारियों में गुंथ गए, पर हमारे मन एकदूसरे के करीब अब भी अटके हुए हैं. मैं भी तो तुम्हारी पसंद का कुरतापाजामा पहन कर आया था. याद था मुझे कि तुम्हें मर्दों पर शर्टपैंट की जगह भारतीय परिधान कितने भाते थे. फिर प्यार के हाथों मजबूर हो कर हम ने अपने सभी बंधनों को दरकिनार कर डाला. कितना सुकून मिला था एकदूसरे की बांहों में खो कर – न समाज की चिंता, न परिवार का होश. लगा था मानो असली जीवन अब आरंभ हुआ, जवानी ने एक बार फिर अंगड़ाई ली. इस बार हमारा साथ पहले से अधिक उन्मादी था – हमें किसी को अपने संबंधों के लिए राजी करने की विवशता नहीं, हम किसी से स्वीकृति लेने को बाध्य न हुए. ये अनुभूति विलग रही. बस, एकदूजे के प्रेम की अपरिमित पराकाष्ठा के जादू में लिपटा हमारा अलौकिक संसार, जो भले ही सीमित समय के लिए सृजित होता, परंतु उस में घूमते हुए हम दोनों अपनी सुधबुध भुला देते. और उस का रसास्वादन करने से हमें कोई रोक नहीं सकता.


“मैं तो यह सोच कर ही विचलित हो उठता हूं कि हम दोनों एक ही शहर में थे और इतने वर्षों तक एकदूसरे से जुदा रहे. पर अब दिल ने स्वीकार लिया कि आइंदा तुम से जुदाई नहीं होगी, कभी नहीं.”मधुर अपनी मेल में जुदाई की हर संभावना को सिरे से नकार रहा था, किंतु क्या यह अब भी संभव है?


मधुर की मेल पढ़ते हुए नूपुर को वह वाकिया याद हो आया, जब वह तैयार हो कर नियत होटल में मधुर से मिलने पहुंची थी. उस दिन वह घर के प्रति निश्चिंत थी – संजीव अपनी फैक्टरी के सिलसिले में देर रात लौटने वाला था और तेज अपने कालेज से बाहर गया हुआ था. मधुर से मिलन के स्वप्न संजोए नूपुर अपने अधरों पर स्मितरेखा लिए होटल में प्रवेश कर रही थी कि उस की नजर अंदर बैठे संजीव पर पड़ गई… “ये यहां कैसे?”


हतप्रभ अवस्था में अस्फुट शब्द उस के मुंह से निकले. उफ, किस प्रकार संजीव की दृष्टि बचा कर वह वहां से निकली थी. कभी किसी वेटर की ओट ले कर तो कभी किसी खंबे के पीछे छुप कर – जब तक बाहर न निकल गई, सांस अटकी रही थी उस की. इतने जोखिम उठा कर भी उस ने मधुर से रिश्ता इतने सालों तक निभाए रखा. एक कारण मधुर से प्रेम तो था ही. साथ ही, संजीव के साथ अपनी गृहस्थी में पसर गई एकरसता, जिस से मधुर का साथ एक नूतन ऊर्जा का संचार कर देता. इस रिश्ते में न तो कोई अपेक्षा थी और न ही जोरजबरदस्ती. ये केवल एक फ्रेश फील देता आया था.


परंतु उस दिन पकड़े जाने के डर ने नूपुर के होश उड़ा दिए थे. फिर अगले कुछ हफ्ते वह मधुर से मिलने जाने की हिम्मत न कर सकी. और इसी कारण मधुर कितना बेचैन हो उठा था. लगभग हर दिन उस से मिलने की जिद ठाने वह कभी उसे मिलने बुलाता, तो कभी स्वयं उस के घर आ धमकने की बात कह देता. नूपुर के वे दिन कितने कठिन रहे – एक ओर पति के समक्ष पोल खुलने का भय, तो दूसरी ओर प्रेमी की तरफ से निरंतर बनता दबाव.


“तुम क्या जानो, मर्द जो ठहरे. मैं एक औरत हूं, ऐसे अचानक यों ही उठ कर नहीं चल सकती तुम से मिलने को,” कई बार दोनों की तकरार भी हो गई थी इस चक्कर में. “कहीं संजीव को मुझ पर संदेह हो गया तो क्या उत्तर दूंगी उन्हें? तुम्हारी पत्नी शायद तुम्हारे बहाने स्वीकार ले, हो सकता है सचाई जानने के बावजूद तुम्हें क्षमा भी कर दे. हमारे समाज में पुरुषों का बहक जाना स्वीकार्य है, सदा से. क्योंकि तब भी दोषारोपण पत्नी पर ही होता है कि वह अपने पति को खुश नहीं रख सकी, अपने रिश्ते में रोक नहीं पाई. परंतु एक स्त्री के लिए बहक जाने की कोई माफी नहीं. वह केवल कुलटा और व्यभिचारिणी के रूप में दंडित की जाती है,” वे पल याद कर नूपुर का स्वाद कसैला हो गया. प्रेमी की बांहों में जो आनंदप्राप्ति होती आई थी, वह अचानक एक चोरी सी प्रतीत होने लगी. जरा सी लापरवाही से जीवन को होम होते देर नहीं लगेगी, यह बात उस की समझ में आ गई थी. उस पर वयःसंधि की इस उम्र में उसे प्रेमी के स्पर्श से अधिक भावनात्मक साथ व दुलार की अपेक्षा थी. अपनी उंगली अतीत के किस्सों से छुड़ा कर नूपुर मधुर की मेल को आगे पढ़ने लगी.


उधर मधुर भी अब मीटिंग से फारिग हो पुनः नूपुर की मेल विंडो पर लौट आया.“मधुर, याद है एक बार मैं संजीव के सामने पड़तेपड़ते बची थी. कुछ वैसा कटु अनुभव एक बार फिर मेरे सामने आ खड़ा हुआ. पिछले हफ्ते मैं अपना फोन देख रही थी, जिस में तुम्हारी और मेरी एक तसवीर थी. वही जो हम ने बगीचे में घूमते हुए अनायास ही क्लिक कर ली थी. तभी किचन में कुकर की सीटी बजी और मैं फोन टेबल पर छोड़ कर रसोईघर में चली गई. पता नहीं, कब संजीव वहां आ गए और हमारी तसवीर देखते हुए पूछने लगे, “ये कौन हैं?”


उन की निनिर्मेश दृष्टि ने मेरे पैरों के नीचे की जमीन हिला दी. मैं ने सप्रयास अपनी नजरों को झुकने नहीं दिया. कहीं संजीव को मुझ पर संदेह हो जाता. यदि वो समझ जाते कि मैं अपनी चोरी पकड़े जाने से घबरा गई हूं तो क्या होता. पूरी ढिठाई से मैं ने झूठ कह दिया कि तुम मेरी सहेली के पति हो. फिर मुझे एक लंबी कहानी रचनी पड़ी कि मेरी सहेली को हम दोनों की शक्लों में इतनी समानता लगती है मानो हम भाईबहन हों. और यही मिलान करने के लिए एक तसवीर ले डाली.


संजीव ने कुछ कहा नहीं, किंतु उन की संदेहभरी दृष्टि को झेलना मेरे बस में नहीं. उम्र साथ बिताने पर रिश्ते संवादों के मोहताज नहीं रहते. मन की तरंगें इतनी प्रबल हो जाती हैं कि एकदूजे के समीप पहुंच जाती हैं. मुझे लगता है, वह मेरे बहानों से संतुष्ट नहीं हुए. तभी तो इतने चाव से साग खाने वाले संजीव ने उस रात भोजन में मेरे हाथों का बनाया साग बस छू कर छोड़ दिया.


आज भी सोचती हूं तो कांप जाती हूं. यह बात तो तुम मानोगे कि हम दोनों अपने इस रिश्ते के लिए अपनी शादियां, अपनी गृहस्थियां और अपने बच्चों की जिंदगियों से खेलना नहीं चाहते. इस साथ की सुंदरता इसी में है कि यह दबाढका रहे.


हमारे साथ ने जो खूबसूरत स्मृतियों के तानेबाने बुने, मैं जीवनपर्यंत उन्हीं के साए में रहना चाहती हूं. तुम्हें याद कर के सदा मुसकराना चाहती हूं. मैं नहीं चाहती कि हमारे रिश्ते के कारण हमारी जिंदगियां बरबाद हो जाएं और फिर हम एकदूसरे पर दोष मढ़ते फिरें. इस रिश्ते की मिठास को मैं कसैला नहीं करना चाहती. इसलिए मौके की नजाकत समझते हुए स्पष्ट रूपेण कह रही हूं कि अभी इस रिश्ते को अल्पविराम लगाना ही श्रेयस्कर रहेगा. जो खुशी हमें एकदूसरे से दोबारा मिल कर हुई थी, अब समय के साथ वो एक तनाव में बदलती जा रही है कि कहीं पकड़े न जाएं. जब नहीं मिल पाते, तब एकदूसरे से शिकायतें भी शादीशुदा जिंदगी जैसी होती जाती हैं. यह रिश्ता अपेक्षाओं से मुक्त रहे तभी तक अच्छा है. लेकिन मुझे लगने लगा है कि अब शुरुआत जैसी ताजगी नहीं रही रिश्ते में. अब एक तरीके से ये डबल मैरिज हो गई है. इसलिए मैं ने यह निर्णय लिया है कि फिलहाल एकदूसरे से अलग होने में ही भलाई है.


“हां, एक वादा करती हूं कि अगर आगे कभी मौका मिला तो जरूर मिलेंगे, पर अभी अलविदा.”नूपुर की ईमेल पढ़ने के बाद मधुर को एक सुकून मिला. क्योंकि उस ने भी तो नूपुर को यही लिख भेजा था कि उस का स्थानांतरण हो रहा है. ऐसे में दूसरे शहर से सब की नजरों से छुपतेछुपाते लौंग डिस्टेंस रिलेशनशिप कायम रखना कहां संभव होगा. इसलिए फिलहाल इस रिश्ते को अल्पविराम लगाने में ही दोनों की भलाई है. न इस रिश्ते की ओर कोई जवाबदेही रहेगी और न इसे निभाते जाने का तनाव.


मधुर की मेल को अंत तक पढ़ कर नूपुर के चेहरे पर भी एक मुसकराहट उभर आई. जितना साथ था, सुंदर था. अब इस की चुइंगगम बनाने से लाभ नहीं हानि होगी. यकायक उस के दिमाग में साहिर लुधियानवी की पंक्तियां घूम गईं -‘वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिउसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा…’

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