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पूर्वांचल में होगी गठबंधन की राजनीति की परीक्षा, जानिए राजनीतिक दलों ने क्या बनाई रणनीति

गाजीपुर न्यूज़ टीम, लखनऊ. उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बेशक अकेले 312 सीटों का जादुई आंकड़ा छुआ, लेकिन कुल 325 सीटों की जीत में छोटे दलों के सहयोग के महत्व पर उसका भरोसा बना रहा। 2017 में कांग्रेस और 2019 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे बड़े दलों से गठबंधन के बावजूद मात खा चुके समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव ने भी भाजपा की जीत में छोटे दलों की बड़ी भूमिका समझी तो रणनीति बदल दी। 

अब कुछ छोटे दलों के साथ भाजपा तो कुछ के साथ सपा चुनाव के मैदान में है। नजर जातियों के समीकरण अपने पक्ष में करने पर है। सपा के सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल का प्रभाव क्षेत्र पश्चिम तक था तो अब बाकी दलों की परीक्षा पूर्वांचल के मुकाबले में खास तौर पर होनी है।

मोदी लहर के सहारे 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीतने में सफल रही, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने विभिन्न जातियों का वोट जुटाने के लिए छोटे दलों को साथ मिलाने की रणनीति बनाई। चूंकि, प्रदेश में पूर्वांचल के साथ ही बुंदेलखंड में कुर्मी मतदाता की संख्या अच्छी-खासी है, इसलिए अपना दल (एस) के अलावा पूर्वांचल की ही लगभग 90-100 सीटों पर प्रभाव वाले राजभर समाज को आकर्षित करने के लिए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) से भी हाथ मिला लिया। अपना दल को भाजपा ने 11 सीटें दीं, जिसमें से वह नौ सीटें जीत लाई, जबकि सुभासपा को गठबंधन में मिलीं आठ सीटों में से चार पर सफलता मिली। अपना दल अभी भी भाजपा के साथ है, लेकिन योगी सरकार में मंत्री रहे सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर से संबंध खराब हो गए और उन्होंने गठबंधन से नाता तोड़ लिया।

इधर, भाजपा ने यह भी समझा कि यूं तो निषाद समाज का वोट हर क्षेत्र में है, लेकिन पूर्वांचल में इस जाति के नेता के रूप में निषाद पार्टी के अध्यक्ष डा. संजय निषाद खड़े हैं। 2018 के उपचुनाव में जब उन्होंने सपा के समर्थन से भाजपा को उसकी मजबूत गोरखपुर सीट पर परास्त कर दिया तो सत्ता खेमे ने उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में संजय निषाद के बेटे संत कबीरनगर से भाजपा के टिकट पर लड़े और वर्तमान में सांसद हैं।

वहीं, अखिलेश यादव ने भी पिछड़ों के सहारे भाजपा से आगे निकलने की होड़ में वही रणनीति अपनाई है। यदि अपना दल (एस) की अध्यक्ष व केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल भाजपा के साथ हैं तो सपा को ताकत देने के लिए अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल पक्ष में खड़ी हो गई हैं। अपना दल कमेरावादी ने सपा से गठबंधन किया है। सुभासपा के राजभर उनके साथ आ ही चुके हैं और मौर्य वोट पर अपना प्रभाव बताने वाले महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य से भी अखिलेश ने हाथ मिला लिया है।

इधर, भाजपा सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान भी पूर्वांचल के पिछड़ा वर्ग के नेता के रूप में साइकिल पर सवार हो चुके हैं। खुद चुनाव मैदान में भी हैं। ऐसे में खास तौर पर छठवें और सातवें चरण में होने वाले चुनाव में ही स्पष्ट हो सकेगा कि वाकई विकास के आगे बढ़कर जाति की राजनीति करने वाले जाति के ये झंडाबरदार कितने असरदार साबित होते हैं। छोटे दलों से राजनीतिक लाभ की रणनीति की भी परीक्षा पूर्वांचल में ही होगी।

चुनौतियों में बड़े हुए छोटे दल : बड़े दलों के बीच यह चुनाव कितना चुनौतीपूर्ण है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि छोटे दलों को भरपूर सम्मान दिया जा रहा है। जो ओम प्रकाश 2002 में पार्टी बनाने के बाद कभी मतदाताओं पर प्रभाव नहीं डाल पाए और 2017 में भाजपा का साथ होने के बावजूद आठ में से चार सीटें ही जीत पाए, उन्हें सपा ने गठबंधन में 17 सीटें दी हैं। 

अपना दल (एस) को भाजपा ने पिछले चुनाव से अधिक 17 सीटें दीं तो अखिलेश ने भी उनकी प्रतिस्पर्धा में अपना दल कमेरावादी को छह सीटें चुनाव लडऩे के लिए दे दी हैं। इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में अपने बलबूते सिर्फ एक सीट जीत सकी निषाद पार्टी को इस बार भाजपा ने 16 सीटें दे दी हैं। चूंकि, सपा स्वामी प्रसाद मौर्य को उनकी जाति का बड़ा नेता मान रही है, इसलिए महान दल के केशव देव मौर्य को गठबंधन में कोई सीट नहीं दी गई।

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