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कहानी: मेरे अपने

अकेली, वृद्ध मां के लिए कुछ न कर पाने का दुख विवेक को साल जाता. लेकिन मां की जीवनशैली देख वह हैरान रह गया. कितना सार्थक, उद्देश्यपूर्ण जीवन जी रही थीं वे.

मां अपनी जगह पर थोड़ा सा हिलीं, विवेक मां की तरफ झुका, ‘‘मां, कुछ चाहिए क्या?’’ लेकिन मां फिर सो गईं. मां कुछ दिन पहले गिर गई थीं और उन की रीढ़ की हड्डी में चोट लग गई थी. डाक्टर ने उन्हें 3 हफ्तों का बैडरैस्ट बताया था और कुछ सावधानियों के साथ फिजियोथैरेपी कराने के लिए भी कहा था. इस उम्र में गिर जाना आम समस्या है. विवेक चुपचाप मां का चेहरा देखने लगा. झुर्रियों से भरा चेहरा क्या हमेशा से ऐसा ही था? क्या यह जर्जर शरीर ही हमेशा से मां की पहचान था? नहीं, वह भी समय था जब मां चकरघिन्नी की तरह पूरे घर में डोलती थीं. पूरे घर की व्यवस्था और सब की देखभाल करती थीं. मां की पीढ़ी ने अपने बड़ों की सेवा की और अपने बच्चों की देखभाल बड़े प्यार व फुरसत से की. लेकिन उस की खुद की पीढ़ी के पास न बड़ों के लिए समय है और न अपने बच्चों के लिए.


विवेक ने लंबी सांस भरी. अपने कर्तव्यों की याद कभीकभी आती है पर जिम्मेदारियों के बोझ तले दब जाती है. वह मुंबई में रहता है अपने परिवार के साथ और मां कानपुर में. कानपुर में उस के पापा का बनाया हुआ अच्छा बड़ा घर है, जिस में ऊपर के हिस्से में किराएदार रहते हैं और गैराज में एक परिवार रहता है जो मां की देखभाल करता है. यों मां के लिए कोई कमी नहीं है लेकिन इस उम्र में जब अपने बच्चों की जरूरत होती है तो उस के बच्चों के पास फुरसत नहीं है.


दीदी अमेरिका में हैं. 3-4 साल में एक बार ही आ पाती हैं. कुछ दिन अपनी ससुराल और कुछ दिन मां के पास रह कर चली जाती हैं. वह तो भारत में रह कर भी ऐसा ही करता है. उस का आना सालभर में एक ही बार होता है. उन थोड़े से दिनों में उसे सावी के मम्मीपापा के पास पुणे भी जाना पड़ता है. सावी भी नौकरी करती है. विवेक के खुद के बच्चे जब काफी छोटे थे, तो मां उस के पास काफी रही थीं. उन्होंने बहुत मदद की बच्चों के लालनपालन में उन की. तब मां की उम्र कम थी. वे घर में बच्चों के साथ अकेले भी रह लेती थीं. उन के बच्चे बड़े हुए तो मां का आना कम हो गया. उन के बेटा और बेटी 12वीं करने के बाद एक साल के अंतर में मैडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश ले कर बाहर पढ़ने चले गए. अब मुंबई में वे दोनों अकेले ही रह गए थे. अब जब मां को उन की जरूरत थी तो वे मां का साथ नहीं दे पा रहे हैं.


कानपुर में उन का लंबे समय तक रहना हो नहीं पाता है और मुंबई में मां को अकेले फ्लैट में छोड़ना मुश्किल होता है. वे दोनों सुबह निकलते हैं और रात गए घर आते हैं. मां को इस उम्र में फ्लैट में अकेले छोड़ें कैसे और मां भी रहना नहीं चाहतीं. कानपुर में गैराज में रहने वाला परिवार है, किराएदार हैं, पासपड़ोस है. मां का फिर भी वहां मन लग जाता है. लेकिन विवेक को अपराधबोध सालता है. क्या करे वह, उस के संस्कार ऐसे थे कि वह मां की सेवा करना चाहता था पर परिस्थितियां ऐसी थीं कि वह कर नहीं पाता था.


उस की उम्र इस समय 50 साल थी और मां की 73 साल. 10 साल बाद वह रिटायर होगा और सावी उस के भी 3 साल बाद. तब तक मां पता नहीं रहेंगी भी या नहीं. अचानक विवेक सिहर गया, ‘क्या मां सचमुच ऐसे ही चली जाएंगी दुनिया से…बिना अपने बच्चों का साथ पाए. जिंदगीभर उन्होंने सिर्फ जिम्मेदारियां ही तो पूरी की हैं. दिया ही दिया है बस. पाने का तो मौका ही नहीं आया उन की जिंदगी में. पिता तो मां के सामने चले गए. इसलिए अकेलापन उन्होंने नहीं भुगता.’


लेकिन मां, वे तो भरापूरा परिवार होते हुए भी अकेलेपन का दर्द झेल रही हैं. कैसे रहती होंगी अकेली? गैराज में रहने वाला परिवार भी साल में एक बार तो अपने गांव जाता ही है. तो कुछ दिन मां को अकेले रहना पड़ता है. वैसे भी घर के अंदर तो वे अकेले ही रहती हैं.


विवेक अपनी ही सोच में डूबा हुआ था. तभी आसमानी बिजली जोर से कड़की और घर की बिजली चली गई. इनवर्टर शायद खराब पड़ा होगा. मां यह सब कैसे अकेले मैनेज करेगी? वह मोबाइल की टौर्च जला कर मोमबत्ती ढूंढ़ने लगा. बिजली भी कड़कती होगी. बिजली भी जाती होगी, कभी मां की तबीयत भी खराब होती होगी, डर लगता होगा, घबराहट होती होगी, कैसे रहती होगी मां. विवेक के मन से मां की परेशानियां नहीं हट पा रही थीं. तन से कमजोर इंसान मन से भी कमजोर हो जाता है. वह साल में एक ही बार आ पाता है. कौन ले जाता होगा मां को डाक्टर के पास? दूर रह कर उस ने मां की इन छोटीछोटी परेशानियों के बारे में कभी नहीं सोचा.


मोमबत्ती नहीं मिली. उस ने खिड़की से सोबती को आवाज दी. सोबती अंधेरे में रास्ता टटोलती हुई अंदर आ गई. तभी मां की क्षीण सी आवाज सुनाई दी. वह तेजी से बैडरूम की तरफ दौड़ा. मां के हाथ में मोमबत्ती और माचिस थी. मोमबत्ती और माचिस उन की साइड टेबल की दराज में थी. मां ने हाथ बढ़ा कर दोनों चीजें निकाल लीं. उसे सुखद आश्चर्य हुआ. इस उम्र में जीवन जीने का तरीका मां ने किस तरह ढूंढ़ रखा था. उस ने मां से मोमबत्ती और माचिस ले कर मोमबत्ती जला दी. मां ने मोमबत्ती का स्टैंड भी अपने साइड में रखा हुआ था.


‘‘मां, मैं तो कुछ ढूंढ़ भी नहीं पाया और आप ने बिस्तर पर लेटेलेटे सब ढूंढ़ लिया,’’ वह तनिक मुसकराते हुए बोला. मां के पीड़ायुक्त चेहरे पर भी क्षीण सी मुसकराहट छा गई, ‘‘हां बेटा, अकेले रहने के कारण कई तरह की व्यवस्था रखनी पड़ती है, मेरी साइड टेबल की दराज खोल कर देख.’’


विवेक ने दराज खोली तो उस में विक्स से ले कर, दर्दनिवारक दवा व टौर्च आदि सबकुछ था. बुखार से ले कर, पेटदर्द व चक्कर आने तक की दवाएं उपलब्ध थीं. खुशी हुई सारी व्यवस्था देख कर. वह हंस पड़ा, ‘‘मां, आप ने तो छोटीमोटी कैमिस्ट शौप खोली हुई है घर में. इतनी व्यवस्था तो मुंबई में हमारे घर में नहीं रहती. जरूरत पड़ने पर बाजार दौड़ना पड़ता है.’’


‘‘सब करोगे बेटा, जिस दिन उम्र के इस पड़ाव से गुजरोगे, उस दिन सब तरह की व्यवस्था करोगे, जरूरत इंसान को सब सिखा देती है.’’ मां के चेहरे पर अनायास गहन उदासी छा गई.


मां के दिल का अंधेरा उस के दिल को भी दूर तक अंधेरा कर गया. वह सोच में पड़ गया, ‘एक दिन इस पड़ाव से हमें भी गुजरना ही है, कोई भी हो सकता है, हम दोनों में से मैं या सावी…’


‘‘हां मां, आप ने तो हमेशा ही हमारा मार्गदर्शन किया है. बहुत सीख दे जाते हैं मातापिता,’’ एकाएक विवेक का स्वर संजीदा हो गया, ‘‘मां मुझे अच्छा नहीं लगता आप यहां पर अकेले रहती हैं. क्या यहां कोई लड़की नहीं मिल सकती जो मुंबई में फ्लैट में आप के साथ रह ले तो दिनभर आप अकेले नहीं रहेंगी और हम साथ में रह पाएंगे. आप यहां अकेले रहती हैं, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’


मां ने प्यार से उस के चेहरे की तरफ देखा, ‘‘नहीं रे, तू दिल में कोई अपराधबोध मत रखा कर. मैं क्या तेरे चेहरे को नहीं पढ़ पाती हूं? मुझे अपने बच्चों पर पूरा विश्वास है. कर न पाना और करना ही न चाहना, दोनों बातें अलग हैं. अपने बच्चों के प्यार पर ही तो विश्वास है जिस से मैं यहां पर अकेले भी रह पाती हूं. जिस दिन बिस्तर से ही नहीं उठ पाऊंगी, उस दिन तुम्हें ही तो करना है. कहां मिलेगी लड़की और कौन भेजेगा उसे इतनी दूर मुंबई. फिर


2 बैडरूम का छोटा सा फ्लैट…अभी तो यहीं ठीक हूं.’’


‘‘पर मां, अकेले में देखो, गिर गई… ऐसे ही चिंता रहती है आप की.’’


‘‘दुघर्टना तो कहीं भी हो सकती है. बेटा, फिर तू आ तो गया मेरी तकलीफ में.’’


‘‘पर मां, 3 दिन आ पाया न. आप ठीक हो जाओ तो अब मेरे साथ चलो. कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा. मेरा मन हमेशा यहीं लगा रहता है.’’


‘‘अच्छाअच्छा, अभी तू कुछ दिन रह तो सही. मुश्किल से तो आ पाया है. परेशान मत हो, इस बारे में बाद में बात करेंगे.’’


मां ने बात टाल दी और आंखें मूंद लीं. उन के चेहरे पर अभी तकलीफ के भाव थे. विवेक ने भी इस समय उन्हें ज्यादा छेड़ना उचित नहीं समझा. तभी बिजली आ गई. वह लौबी में आ कर टीवी देखने लगा. सोबती ने खाना बनाया तो उस ने मां को अपने हाथ से खिलाया. सोबती बगल में खड़ी रही.


‘‘सालभर का प्यार एकसाथ देना चाहता है पगले. तू चला जाएगा तो कौन खिलाएगा,’’ मां हंस कर बोली, ‘‘जा सोबती, भैया का खाना यहीं ले आ. मांबेटा साथ में खाएंगे.’’ मांबेटा दोनों ने साथ में खाना खाया. खाना खा कर विवेक मां की बगल में ही सो गया.


सुबह चिडि़यों की चहचहाहट से नींद खुल गई. उस ने पलट कर मां की तरफ देखा. मां उठी हुई थीं, लेटी हुई चुपचाप धीमी आवाज में मधुर संगीत का आनंद ले रही थीं.


‘‘मां ये गीत किस ने लगाए हैं?’’ वह बिस्तर से उठते हुए बोला. मां ने चौंक कर उस की तरफ देखा, ‘‘उठ गया तू. सोबती ने लगाए हैं बेटा. सुबह जब वह अंदर आती है तो मेरे मोबाइल पर गीत लगा देती है. आ जा, चाय पी ले, सोबती रख गई केतली में, अपनी भी डाल ले और मेरी भी.’’


उस ने उठ कर चाय कपों में डाली. मांबेटा दोनों चाय पीने लगे. सोबती ने खिड़की पर से परदे सरका दिए थे. बाहर मां की बनाई छोटी सी क्यारी में राई, पालक से ले कर सबकुछ उग रहा था. कंकरीट के जंगल में रहने वाले विवेक के लिए यह बहुत ही खुशनुमा पल था चाय पीते हुए बाहर की हरियाली देखना.


विवेक की नजरों का पीछा करते हुए मां बोलीं, ‘‘माली करता है ये सब. तेरे पापा को किचन गार्डन का बहुत शौक था, इसलिए अभी तक देखभाल करवाती हूं.’’


‘‘हां मां, बहुत अच्छा किया आप ने. आज तो मेरा मन भी अपने हाथों से हरा धनिया और राई तोड़ने का हो रहा है,’’ एकाएक वह चपल मन से पीछे का दरवाजा खोल कर बाहर चला गया. थोड़ी राई और धनिया तोड़ लाया. पैर मिट्टी से सन गए थे. बाहर नल से धो कर गीले पैर के साथ कमरे में आ गया. मां ने देखा तो बोलीं, ‘‘तेरी बचपन की आदत नहीं गई न. गीले पैरों से पूरा घर गंदा करता था. पैरों की तरफ गद्दे के नीचे पुराने कपड़े के टुकड़े रखे हैं, पोंछ ले.’’ उस ने नीचे की तरफ से गद्दा पलटा, वहां पर कपड़े के कई साफसुथरे टुकड़े रखे थे. मां की सारी दुनिया उन के आसपास बसी थी.


सुबह के नित्यकर्म से निबट कर वह आया. इधर, सोबती ने मां को स्पंज कर के, कपड़े बदल कर तैयार कर दिया. नाश्ता भी विवेक ने मां की बगल में बैठ कर किया. हर संभव प्रयत्न कर वह मां को अपने हाथ से दवा और खाना वगैरा खिला रहा था. तभी घर के बाहर कुछ चहलपहल हुई. 5-7 औरतें अंदर आ गईं. उन में कुछ मां की उम्र की, कुछ बड़ी व कुछ छोटी भी थीं. वे सीधे मां के बैडरूम की तरफ चली गईं. पलभर में ही जैसे पूरा घर बातों की चहचहाहट से भर गया. मां की हंसी की आवाज भी आ रही थी. सोबती ने उन्हें चाय बना कर पिलाई.


‘‘कौन हैं सोबती, ये सब?’’ विवेक ने सोबती से पूछा.


‘‘अम्माजी की पड़ोसी हैं और सहेलियां भी,’’ वह मुसकरा कर बोली, ‘‘उस दिन अस्पताल ये ही ले कर गई थीं अम्माजी को.’’ थोड़ी देर में मां की सहेलियां चली गईं. वह मां के कमरे में चला गया. मां के चेहरे पर स्निग्ध मुसकान थी. पीड़ा की रेखाएं गायब थीं.


‘‘मां, आप तो अपनी सहेलियों के साथ बहुत खुश थीं, खूब हंस रही थीं उन के साथ,’’ उस ने मां को छेड़ा.


‘‘हां बेटा, तू आया है न, तो आजकल वे नहीं आ रही हैं वरना रोज ही आ रही थीं. कोई न कोई मेरी देखभाल करती थी जब से चोट लगी है.’’ उसे लगा, मां को उस की खास जरूरत नहीं है. उन की दुनिया में बहुतकुछ है उन की खुशी और संतुष्टि के लिए. वह मां के करीब बैठ गया. उन का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगा.


‘‘मां, आप के बच्चों के अलावा यहां सबकुछ है आप के पास,’’ वह सुखद आश्चर्य से बोला.


‘‘वही तो सब से बड़ी कमी है बेटा, तुम लोगों की बहुत याद आती है.’’


‘‘फिर हमारे पास क्यों नहीं चल कर रहतीं. कभी मेरे पास रहो, कभी दीदी के पास चली जाओ. मन लगा रहेगा आप का.’’


‘‘हूं,’’ मां गंभीरता से मुसकरा गईं, ‘‘इस सब को छोड़ कर भी तो नहीं रह सकती न बेटा. सोबती की बेटी है जिस की मैं पढ़ाई का खर्चा उठाती हूं. 12वीं कर रही है वह. मेरा हर काम करने को तैयार रहती है. सोबती का पति मेरा सारा बैंक का काम कर देता है. कार भी ड्राइव कर लेता है, इसीलिए तो कार रखी हुई है वरना तो कब की बेच देती. तुम लोग आते हो तो तुम्हें भी सुविधा हो जाती है.’’


‘‘पर मां, आप हमारे पास रहेंगी तो इस सब की जरूरत ही नहीं रहेगी. सोबती की बेटी की मदद तो आप वहां से भी कर सकती हैं.’’


‘‘लेकिन यह तो सोचो न बेटा, कि तुम्हारे आने के लिए भी तो एक घर है. कहां जाओगे और कौन इंतजार करेगा तुम्हारा. मेरे बच्चे जब आते हैं तो मेरे लिए वे सब से खुशी के दिन होते हैं और तुम्हें भी खुशी होती है कि मां के पास जा रहे हैं. जिस दिन इस जिंदगी के लायक नहीं रहूंगी, इतनी अशक्त हो जाऊंगी, उस दिन तुम्हीं करोगे. तुम्हीं संभालोगे मुझे. लेकिन अभी तो मुझे सार्थक जीवन जीने दो बेटा. जब तक हो सकेगा हाशिए पर नहीं आना चाहती मैं,’’ मां का स्वर आर्द्र हो गया. वह अपलक मां का चेहरा देखने लगा. वह आत्मनिर्भरता और आत्मगौरव से चमक रहा था. उसे संतोष हुआ और उस ने समझ लिया कि वह मां को जितना दयनीय और मजबूर समझ रहा था, वैसा कुछ भी नहीं है. मां की जिंदगी में व्यवधान पैदा करना गलत होगा. मां खुश हैं, उन को अपना जीवन सार्थक लग रहा है.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ उसे सोच में डूबा देख कर मां ने उसे हिलाया.


‘‘कुछ नहीं मां, सोच रहा था आप से तो बहुतकुछ सीखना बाकी है अभी. हमेशा ही सीखा है आप से. आप तो दूसरे बुजुर्गों के लिए भी उदाहरण हैं.’’


‘‘नहीं बेटा, ऐसा कुछ नहीं है. बस, मुझे मालूम है कि मेरे बच्चों का प्यार मेरे साथ है, वे मेरी चिंता करते हैं और जब मुझे जरूरत होगी तो वे मेरे पास होंगे. बस, यही मानसिक मजबूती मुझे हमेशा खुश और संतुष्ट रहने की प्रेरणा देती है.’’


‘‘तेरी छुट्टियां कब तक हैं? काम का नुकसान हो रहा होगा तेरा?’’


‘‘नहीं मां, कोई दिक्कत नहीं है. आप ठीक हो जाओ तो मैं चला जाऊंगा. फिर सावी आ जाएगी कुछ दिनों के लिए,’’ उस ने प्यार से मां का सिर सहलाया. मांबेटे दोनों ने एकदूसरे को पूर्ण संतुष्टि से निहारा. बच्चे शरीर से भले ही उन से दूर थे पर दिल से उन के पास थे.

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