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कहानी: एक मुकाम दो रास्ते

मेरा आज पढ़ने में मन नहीं लग रहा था. सवेरे से 3 लैक्चर अटेंड कर चुका था. आज हमारे सत्र का आखिरी दिन था.

सोमवार से तो परीक्षाएं चालू ही हो जाएंगी. बीच में बस, शनिवार और इतवार ही था.


परीक्षा के दिनों में लाइब्रेरी रात के 12 बजे तक खुली रहती है. आज मैं ने और सिसिल ने जल्दी ही घर जाने की तैयारी कर ली.


हम दोनों ही वेस्ट आईलैंड में रहते हैं. मेरा और उस का साथ मैट्रो में रहता है. मैट्रो के बाद हम दोनों अपनीअपनी बसें पकड़ कर अपने घर को चले जाते हैं. जब से हम ने मोबाइल फोन लिए हैं, सुबह से ही हम एकदूसरे से बातें करते रहते हैं और चाहे हमारी बसें मैट्रो स्टेशन पर कभी भी पहुंचेें, हम सवेरे एकसाथ ही मैट्रो से कालेज जाते हैं.


मांट्रीयल की मैट्रो हम दोनों को वह मौका देती है, जोकि हमें कहीं और नहीं मिलता. हम एकदूसरे के प्रति अपने प्रेम का इजहार मांट्रीयल की मैट्रो में ही कर पाते हैं. सारी दुनिया से बेखबर एकदूसरे के आलिंगन में बंधे और अधरों पर अधर रखे, शायद दुनिया को अजीब लगे, परंतु हमें उस की कोई परवाह नहीं.


वैसे तो मांट्रीयल में युवा जोड़ियों को खुलेआम प्रेम प्रदर्शन करते किसी को कोई एतराज क्या हो सकता है, परंतु एक भारतीय प्रोफैसर, जोकि शायद हमारे यहां की इंजीनियरिंग फैकल्टी में पढ़ाता है, लगातार मुझे घूरता रहता है.


मैट्रो में पहुंच कर मैं और सिसिल हमेशा की तरह चालू हो गए. कब एक के बाद एक स्टेशन आए, पता ही नहीं चला. मैं सिसिल को उस के बस स्टाप की लाइन पर छोड़ने गया.


‘‘आज शाम को फोन करूंगी,’’ सिसिल बोली, ‘‘9 बजे के आसपास.’’


‘‘भूल गई तुम, आज तो मुझे निशा आंटी के पास जाना है, आपरेशन मैनेजमेंट पढ़ने. आज के बाद तो बस, परीक्षा वाला दिन ही मिलेगा अपनी मुश्किलें सुलझाने के लिए,’’ मैं बोला.


‘‘रमन, तुम्हारी निशा आंटी हैं बहुत ही भली औरत. आजकल के जमाने में कौन किसी को फ्री ट्यूशन देता है. फिर कल कब आओगे लाइब्रेरी में.’’


‘‘निशा आंटी के यहां से आने में तकरीबन 11 तो बज ही जाएंगे. मैं सवेरे 8-9 बजे फोन करूंगा तुम्हें.’’


सिसिल की बस आ गर्ई थी. उसे उस दिन मैं ने आखिरी बार अपनी बांहों में जकड़ कर जी भर कर चूमा और वह चली गई.


मेरी बस भी बस स्टाप की ओर बढ़ती चली आ रही थी. मैं बस की ओर लपका. अभी बैठा ही था कि मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन निशा आंटी का था. पता नहीं, उन्हें मेरे मोबाइल का नंबर किस ने दिया था. शायद मम्मी ने दिया होगा.


निशा आंटी काफी घबराई हुई थीं. मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता, उस से पहले ही उन्होंने फोन रख दिया. मैं ने उन्हें अपने मोबाइल से कई बार फोन करने की कोशिश भी की, परंतु उन्होंने फोन नहीं उठाया.


बर्फ पड़नी शुरू हो गई थी. सड़कें कुछ फिसलनी हो गई थीं, इसलिए ट्रैफिक काफी धीरेधीरे चल रहा था. फिर अचानक बस रुक गई. मैं ने बस की खिड़की के शीशों से देखने की कोशिश की, परंतु कुछ दिखाई नहीं दिया. कुछ देर बाद बस चलने लगी थी.


मैं ने निशा आंटी को फिर फोन करने की कोशिश की. घंटी बजी, परंतु रिसीवर उठाने के बाद मेरी आवाज सुन कर उन्होंने फोन रख दिया. मैं सोचने लगा कि आखिर उन्हें किस तरह फोन पर बातें करने को प्रेरित करूं.


पापा को बस 2 चीजों से बेहद लगाव था. एक तो अपने बिजनैस से और दूसरा ब्रिज से. ब्रिज तो उन से कोई हर रोज खिलवा ले घंटोंघंटों तक. वह अपना बिजनैस का काम तो शाम 6 बजे ही खत्म कर देते थे. उस के बाद वह कभी भी अपने साथियों के साथ ब्रिज खेलने को तैयार रहते थे.


मुझे याद है, जब वह हफ्ते की 7 शामों में से 3-4 शामें घर से बाहर ही बिताते थे. रात को 12-1 बजे के बाद ही घर लौटते थे. मैं तो सो ही जाता था. मैं सोचता कि उन के घर आने पर मम्मी और पापा में थोड़ीबहुत नोकझोंक तो होती ही होगी, क्योंकि घर का वातावरण अगले दिन भी तनावपूर्ण रहता था.


समय गुजरता गया. हम कभी भी 3 से 4 नहीं हो पाए. मम्मी ने भी हालात से समझौता कर लिया. शायद पापा ने भी समझौता कर लिया था. अब वह हफ्ते में केवल 2 दिन ही ब्रिज खेलने जाते थे शाम को, मंगलवार और शुक्रवार को. अब 11 बजे ही घर आ जाते थे.


हां, अपनी दुकान से सीधे ही चले जाते थे ब्रिज खेलने. खाना भी घर पर नहीं खाते थे. वहीं पर पिज्जा मंगवा लेते थे और बीयर तो पी ही जाती थी.


पापा के ब्रिज के तीनों साथियों की दोस्ती बरसों पुरानी थी. तीनों ही दिल्ली से एक ही हवाईजहाज से आए थे मांट्रीयल. मांट्रीयल में हवाईअड्डे से शहर आने के लिए बस की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब एकदूसरे का परिचय हुआ था. चारों एकदूसरे से कितने भिन्न हैं, परंतु ब्रिज के खेल ने उन के शौक को गहरी दोस्ती में बदल दिया था.


अनवर मियां एक कालेज में गणित के लेक्चरर हैं. कभी शादी की ही नहीं. सुदेशजी इंजीनियर हैं, यहां की हवाईजहाज बनाने वाली एक कंपनी में. 3 शादियां कर चुके हैं और तीनों से ही तलाक हो गया. जब हफ्ते में 3-4 शाम दोस्तों के साथ देर रात एक ब्रिज खेलते रहेंगे तो तलाक नहीं होगा? माधवेशजी क्या करते हैं, किसी को अच्छी तरह मालूम ही नहीं. शायद एक्सपोर्टइंपोर्ट का काम करते हैं.


उन्होंने कुछ साल पहले ही शादी की थी, निशा से. मैं उन दिनों स्कूल में ही था. जब निशा आंटी भारत से आई ही थीं, तब मम्मीपापा ने काफी बड़ी एक पार्टी की थी उस के रिसेप्शन में.


निशा आंटी और माधवेश अंकल की उम्र में काफी फर्क था. कम से कम 12-14 साल का तो होगा ही. माधवेश अंकल के बाल काफी उड़ गए थे. सिर के कुछ गिनेचुने बालों के ऊपर ही उन्होंने अपने गंजेपन को छिपाने की जिम्मेदारी दे दी थी.


मांट्रीयल आ कर निशा आंटी ने नौकरी खोजने की काफी कोशिश की, परंतु उन्हें नौकरी नहीं मिल पाई. एमए पास अवश्य थीं, परंतु वह भी तृतीय श्रेणी में. 50 प्रतिशत से भी कम थे नंबर उन के. उन्हें स्कूल में भी नौकरी नहीं मिल सकी. वैसे, कनाडा के स्कूलों में गणित के शिक्षकों की हमेशा कमी रहती है. इत्तिफाकन निशा आंटी भारत में हमेशा हिंदी मीडियम में ही पढ़ी थीं, इसलिए उन की अंगरेजी भी ज्यादा अच्छी नहीं थी. मुझे ही उन की अंगरेजी मुश्किल से समझ में आती थी, तो फिर कनाडा के बच्चों को कैसे समझ आती. अवश्य ही उन्हें यहां के स्कूल वालों ने इंटरव्यू में तो बुलाया होगा, परंतु उन के अंगरेजी बोलने के ढंग से उन्हें नौकरी नहीं दी होगी.


मेरा उन दिनों बीकौम का दूसरा साल था. शीतकालीन सत्र में मैं ने और सिसिल ने 5 विषय ले रखे थे. हम दोनों लाइब्रेरी में साथसाथ ही पढ़ते थे. हम दोनों को ही एक विषय ‘औपरेशन मैनेजमेंट’ में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. लगता था कि इस कोर्स में अवश्य फेल होंगे. सोचा, किसी से ट्यूशन ले लें इस विषय में.


सिसिल की आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी, इसलिए ट्यूशन मुझे ही करवानी थी. ट्यूटर 20 डौलर प्रति घंटा मांग रहा था. अचानक खयाल आया कि निशा आंटी ने तो एमए गणित में किया है. उन्होंने शायद एमए में ‘औपरेशन रिसर्च’ का विषय लिया होगा. उस में जरूर ही उन्होंने लीनियर प्रोग्रामिंग पढ़ा होगा.


मैं ने मम्मी से अपनी परेशानी का जिक्र किया. मम्मी ने कहा कि कल शाम को जब वह हमारे घर आएंगी, तभी उन से बात कर लूं.


निशा आंटी और मम्मी हर बुधवार को पूरे हफ्ते की शौपिंग एकसाथ करती थीं. माधवेश अंकल वैसे तो कार हर रोज ले जाते थे, परंतु बुधवार को कार घर पर ही छोड़ जाते थे. निशा आंटी उस दिन सारी शौपिंग और बैंक आदि का काम निबटा लेती थीं. शाम को ढाईतीन बजे वह हमारे घर आ जाती थीं. मम्मी और वह अपने घर के खानेपीने के सामान की पूरे हफ्ते की खरीदारी कर लेती थीं. खरीदारी के बाद वह मम्मी को घर पर छोड़ देती थीं. मम्मी उन के लिए हमेशा ही कुछ न कुछ नमकीन व मीठा शाम की चाय के लिए सुबह से ही तैयार कर रखती थीं. चाय पी कर निशा आंटी अपने घर चली जाती थीं.


मैं उस दिन खासतौर से पहले ही घर आ गया था यूनिवर्सिटी से. निशा आंटी चाय पी रही थीं मम्मी के साथ रसोई में ही. मैं उन के सामने ही बैठ गया किचन टेबल पर.


‘‘कितने बड़े हो गए हो, रमन, पिछले साल की क्रिसमस पार्टी में ही देखा था तुम्हें. 5 फुट 10 इंच के तो हो गए होगे अब तक?’’ निशा आंटी एकदम कई सवाल कर बैठीं एकसाथ.


‘‘यह 6 फुट का हो गया है. हर साल 3-4 इंच बढ़ जाती है लंबाई इस की. कपड़े खरीदते ही छोटे हो जाते हैं,’’ मम्मी ने मेरी ओर से ही जवाब दे दिया.


‘‘आंटी, आप को लीनियर प्रोग्रामिंग आती है?’’ मैं ने पूछा, ‘‘मेरे औपरेशन मैनेजमेंट के कोर्स में है. मिड टर्म में बस इसी पर सवाल हैं.’’


‘‘एमए में गणित में पढ़ाई के दौरान पढ़ी थी थोड़ीबहुत लीनियर प्रोग्रामिंग. अब इतने सालों में भूल गई होऊंगी कुछकुछ. फिर भी एक बार पढ़ कर कुछ तो याद आ ही जाएगा. मेरे पास तो कोई किताब भी नहीं है, जो पढ़ सकूं इस विषय में,’’ निशा आंटी बोलीं.

‘‘मैं अभी जा कर अपनी किताब के लीनियर प्रोग्रामिंग के चैप्टर की फोटोकौपी करवा कर ले आता हूं, आप पढ़ लेना. मेरी मिड टर्म की परीक्षाएं 2 हफ्ते बाद ही हैं.’’


मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, ‘‘आप अपने घर मत जाना अभी,’’ कह कर मैं ने आंटी को रोका.


मैं ने अपना कोट और जूते पहने और फार्मेसी की ओर चल पड़ा. वहां फोटोकौपी की मशीन थी, जिस में ‘7 सेंट’ पर पन्ने की फोटोकौपी कराई जा सकती है.


फार्मेसी हमारे घर से एक किलोमीटर दूर थी. फोटोकौपी कर के घर लौटने में 40 मिनट तो लग ही गए. निशा आंटी मेरा इंतजार कर रही थीं.


‘‘तुम शुक्रवार की शाम को 7-8 बजे आ जाना. तुम्हारे अंकल तो ब्रिज खेलने जाएंगे. अच्छा है, मेरा समय ठीकठीक कट जाएगा बजाय टीवी प्रोग्राम देखने के,’’ निशा आंटी ने कहा.


‘‘और अगर जरूरत हो तो रमन बुधवार की शाम को भी आ सकता है तुम्हारे पास, निशा. उस दिन भी तो इन लोगों की ब्रिज की शाम होती है,’’ मम्मी बोली.


‘‘बस, आंटी, 2 हफ्ते की ही तो बात है. मिड टर्म के बाद इस कोर्स में जो विषय पढ़ाए जाएंगे, वे इतने मुश्किल नहीं हैं,’’ मैं बोला.


निशा आंटी मुसकरा दीं. शायद कह रही थीं कि बच्चे, एक बार जब ट्यूशन का चसका लग जाता है, तो मुश्किल से ही छूटता है.

शुक्रवार को खाना खा कर मैं ने अपनी औपरेशन मैनेजमेंट की किताब और क्लास नोट्स इकट्ठे किए और अपने मोबाइल से निशा आंटी को बताया कि मैं घर से चल रहा हूं. उन से उन के घर के रास्ते की जानकारी भी ले ली. उन के घर मैं पहली बार ही अकेला जा रहा था, वह भी पैदल. हमेशा ही मम्मीडैडी के साथ कार में गया था उन के यहां.

20 मिनट तो लग ही गए पैदल जाने में. साढ़े 8 बज गए थे. जब मैं उन के घर पहुंचा था तब माधवेश अंकल तो घर से चले गए थे ब्रिज खेलने.


निशा आंटी मेरा इंतजार कर रही थीं. वह मुश्किल से 27-28 साल की लग रही थीं. बहुत ही स्मार्ट. उन्हें देख कर लगता था कि उन्होंने अपनी काया पर अवश्य ही परफ्यूम लगाया होगा. मुझे उस शाम वह उम्र में सिसिल से ज्यादा बड़ी नहीं लगीं.


मैं उन्हें क्यों आंटी कहता हूं? क्या इसीलिए ही क्योंकि वह मेरे पापा के मित्र की पत्नी हैं या मेरी मम्मी की सहेली? जब वह भारत से शादी के बाद यहां आई थीं, तब तो मैं 13 साल का ही था. उस समय आंटी कहता तो ठीक लगता था, पर अब क्या कहना उचित है. मैं सोचने लगा.


‘‘तुम कोट उतार कर स्टडीरूम में जाओ. कुछ चाय वगैरह पीओगे तो बना देती हूं,’’ निशा आंटी बोलीं.


“मैं खाना और चाय पी कर ही आया हूं, आंटी.’’


स्टडीरूम में लीनियर प्रोग्रामिंग से संबंधित निशा आंटी के नोट्स पड़े हुए थे. उन्होंने पिछले 2 दिनों में काफी मेहनत की होगी.


‘‘आई एम सौरी, आंटी, आप को काफी मेहनत करनी पड़ी,’’ मैं बोला.


‘‘मैं तुम्हें कुछ पढ़ाऊं इस से पहले तुम मुझे आंटी कहना बंद करो, रमन. तुम अब बच्चे नहीं रहे, जवान हो गए हो. 6 फुट के हो गए हो तुम. कम से कम अकेले में तो तुम मुझे निशा ही कहा करो,’’ निशा आंटी बोलीं. मैं ने उन की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. मैं स्टडीरूम में चला गया.

शायद वह मुझ से मम्मीपापा और माधवेश अंकल के सामने आंटी का रिश्ता निभाना चाहती हैं और अकेले में केवल निशा का. एक ट्यूटर और ट्यूशन पढ़ने वाले विद्यार्थी का रिश्ता या एक मर्द और उस की सहेली का रिश्ता. यह खयाल आते ही मेरे मस्तिष्क की नसें तमतमा गईं. मेरी आवाज कुछ लड़खड़ा सी गई. पसीना आ गया अक्तूबर के महीने में. 20 साल के युवक की जो हालत होती है, किसी सुंदर नौजवान स्त्री के इतने करीब बैठने में. वही मेरी भी हो रही थी. निशा आंटी मेरे कितने करीब थी कि उन की लटेें मुझे छू रही थीं. उन के बदन की खुशबू ने मुझे पागल कर दिया. वह मुझे लीनियर प्रोग्रामिंग जैसा कठिन विषय समझाती रहीं, परंतु मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया. कब 10 बज गए, पता भी नहीं चला.


मम्मी के फोन ने मुझे चौंका दिया. वह मेरा इंतजार कर रही थीं. वह मुझ से बात करना चाहती थीं. निशा ने फोन पर बुलाया. मैं उठा तो अपनी ओर देख कर बैठ गया कि निशा क्या सोचेगी मुझे देख कर. निशा के दूसरी बार बुलाने पर मुझे उठना ही पड़ा. मैं ने अपनी किताब से अपनी उलझन छिपाने की कोशिश की, परंतु असफलता ही हाथ लगी. निशा भांप गई थीं कि मैं क्यों उठ कर उन के सामने आने से हिचकिचा रहा था. पुरुष अपनी उत्तेजना छिपा भी तो नहीं सकते.


‘‘आज की पढ़ाई यहीं खत्म करते हैं. तुम ये प्रश्न हल करने की कोशिश करना. अगले बुधवार को फिर आज के समय पर ही आ जाना, रमन,’’ कहते हुए निशा ने चाय का पानी गैस पर रख दिया था.


बुधवार को 8 बजे ही मैं निशा के घर पहुंच गया. माधवेश अंकल ब्रिज खेलने जा चुके थे. आज निशा कुछ और भी अधिक सुंदर लग रही थी. मेरी मनोदशा पिछली बार से तो कहीं अधिक खराब थी.


पढ़ाते समय पेंसिल मेज से गिर कर मेरी गोद में आ गिरी. निशा के बढ़ते हाथ रुक गए. मैं बेहद झेंप गया.

‘‘तुम्हारी मम्मी तुम्हें अभी तक बच्चा समझती हैं, परंतु तुम में बच्चे जैसा शायद कुछ भी नहीं,’’ निशा बोलीं.


‘‘आई एम सौरी, निशा,’’ मैं मुश्किल से ही कह पाया.

‘‘मुझे मालूम है, तुम क्या चाहते हो इस समय. इस समय तुम्हारे पल्ले लीनियर प्रोग्रामिंग का एक शब्द भी नहीं पड़ रहा है. जब तक तुम वह नहीं पा लोगे जो हासिल करना चाहते हो, तुम मेरे साथ अपना वक्त ही बरबाद करोगे,’’ निशा बोली और स्टडीरूम से चली गई.


थोड़ी देर बाद मैं स्टडीरूम से बाहर निकला. मुझ में इतना ज्ञान तो अवश्य हो गया था कनाडा में पल कर कि इस समय निशा कहां होंगी. मेरे कदम अपनेआप ही निशा के बेडरूम की ओर बढ़ने लगे.


निशा के फोन ने मुझे गहरे सोच में डाल दिया था. शाम के 4 बज गए थे. बस, 8 बजने में 4 घंटे ही रह गए थे. निशा मेरे फोन की बेकरारी से प्रतीक्षा कर रही होगी. उस ने मुझे 7 बजे तक का समय दिया था. 7 बजे तक मेरा फोन न आने पर उस ने हमारे घर आने का निश्चिय कर लिया था.


निशा के फोन के अनुसार, उसे मैं ने जिंदगी के उस मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया था, जिस पर उस के सामने केवल 2 ही रास्ते रह गए थे.


बरसों पहले माधवेश अंकल एक एक्सीडेंट के बाद संतान उत्पन्न करने के काबिल नहीं रहे थे, यह उन्होंने निशा को शादी से पहले ही बता दिया था. उस समय भी निशा के सामने शायद 2 ही रास्ते थे, आजन्म कुंआरी रहने का या माधवेश अंकल से शादी करने का. अब भी उन के सामने 2 ही रास्ते हैं, गर्भपात करा के माधवेशजी के साथ निसंतान जीवन बिताने का या फिर उन्हें छोड़ कर अपने होने वाले बच्चे को पालपोस कर बड़ा करने का.


निशा ने माधवेशजी को छोड़ने का निश्चय कर लिया था. अब वह अपने और उन के बीच के कटु रहस्य को और ज्यादा समय तक नहीं छिपा सकती थीं. आज शाम को निशा उन का घर हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर अपनी निजी इस्तेमाल की कुछ जरूरी चीजें ले कर हमारे घर कुछ दिन के लिए शरण लेने आ रही थीं. हमारे यहां कुछ दिन रह कर वह ‘क्या करना है,’ निश्चय करेंगी.


निशा के फोन ने मुझे उस मुकाम पर ला कर अचानक ही खड़ा कर दिया था. मेरे सामने 2 ही रास्ते थे कि या तो मूक रह कर कुछ दिन बाद निशा को अपने घर से जाने दूं या एक जिम्मेदार व्यस्क की तरह निशा के पेट में पल रही अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाऊं. पता नहीं क्यों, मुझे अपनी इस दिमागी उलझन में सिसिल का तो खयाल भी नहीं आया.

साढे 4 बज गए थे. मेरा बस स्टाप आ गया. भारी कदमों से मैं अपने घर को जाने वाली सड़क की ओर मुड़ गया.

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