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कहानी: आत्मग्लानि

किसी की दरिंदगी भरी गलती को ढोती मोहनी अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी. उस का मन आत्मग्लानि से भरा था. फिर आशी ने ऐसी क्या बात कह दी कि आत्मग्लानि से भरी मोहनी को नई राह मिल गई?

मधु ने तीसरी बार बेटी को आवाज दी,  ‘‘मोहनी… आ जा बेटी, नाश्ता ठंडा हो गया. तेरे पापा भी नाश्ता कर चुके हैं.’’


‘‘लगता है अभी सो रही है, सोने दो,’’ कह कर अजय औफिस चले गए.


मधु को मोहनी की बड़ी चिंता हो रही थी. वह जानती थी कि मोहनी सो नहीं रही, सिर्फ कमरा बंद कर के शून्य में ताक रही होगी.


‘क्या हो गया मेरी बेटी को? किस की नजर लग गई हमारे घर को?’ सोचते हुए मधु ने फिर से आवाज लगाई. इस बार दरवाजा खुल गया. वही बिखरे बाल, पथराई आंखें. मधु ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा और कहा, ‘‘चलो, मुंह धो लो… तुम्हारी पसंद का नाश्ता है.’’


‘‘नहीं, मेरा मन नहीं है,’’ मोहनी ने उदासी से कहा.


‘‘ठीक है. जब मन करे खा लेना. अभी जूस ले लो. कब तक ऐसे गुमसुम रहोगी. हाथमुंह धो कर बाहर आओ लौन में बैठेंगे. तुम्हारे लिए ही पापा ने तबादला करवाया ताकि जगह बदलने से मन बदले.’’


‘‘यह इतना आसान नहीं मम्मी. घाव तो सूख भी जाएंगे पर मन पर लगी चोट का क्या करूं? आप नहीं समझेंगी,’’ फिर मोहनी रोने लगी.


‘‘पता है सबकुछ इतनी जल्दी नहीं बदलेगा, पर कोशिश तो कर ही सकते हैं,’’ मधु ने बाहर जाते हुए कहा.


‘‘कैसे भूल जाऊं सब? लाख कोशिश के बाद भी वह काली रात नहीं भूलती जो अमिट छाप छोड़ गई तन और मन पर भी.’’


मोहनी को उन दरिंदों की शक्ल तक याद नहीं, पता नहीं 2 थे या 3. वह अपनी सहेली के घर से आ रही थी. आगे थोड़े सुनसान रास्ते पर किसी ने जान कर स्कूटी रुकवा दी थी. जब तक वह कुछ समझ पाती 2-3 हाथों ने उसे खींच लिया था. मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. कपड़े फटते चले गए… चीख दबती गई, शायद जोरजबरदस्ती से बेहोश हो गई थी. आगे उसे याद भी नहीं. उस की इसी अवस्था में कोई गाड़ी में डाल कर घर के आगे फेंक गया और घंटी बजा कर लापता हो गया था. मा ने जब दरवाजा खोला तो चीख पड़ीं. जब तक पापा औफिस से आए, मां कपड़े बदल चुकी थीं. पापा तो गुस्से से आगबबूला हो गए. ‘‘कौन थे वे दरिंदे… पहचान पाओगी? अभी पुलिस में जाता हूं.’’


पर मां ने रोक लिया, ‘‘ये हमारी बेटी की इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे. पुलिस आज तक कुछ कर पाई है क्या? बेकार में हमारी बच्ची को परेशान करेंगे. बेतुके सवाल पूछे जाएंगे.’’ ‘‘तो क्या बुजदिलों की तरह चुप रहें,’’ ‘‘नहीं मैं यह नहीं कह रही पर 3 महीने बाद इस की शादी है,’’ मां ने कहा.


जब भी मोहित फोन करता. मां वहीं रहतीं. मोहित अकसर पूछता, ‘‘क्या हुआ? आवाज से इतनी सुस्त क्यों लग रही हो?’’ तब मां हाथ से मोबाइल ले लेतीं और कहतीं,


पापा भी कुछ सोच कर चुप हो गए. बस, जल्दी से तबादला करवा लिया. मधु अब साए की तरह हर समय मोहनी के साथ रहती. ‘‘मोहनी बेटा, जो हुआ भूल जाओ. इस बात का जिक्र किसी से भी मत करना. कोई तुम्हारा दुख कम नहीं करेगा. मोहित से भी नहीं,’’ अब जब भी मोहित फोन करता. मां वहीं रहतीं. मोहित अकसर पूछता, ‘‘क्या हुआ? आवाज से इतनी सुस्त क्यों लग रही हो?’’ तब मां हाथ से मोबाइल ले लेतीं और कहतीं, ‘‘बेटा, जब से तुम दुबई गए हो, तभी से इस का यह हाल है. अब जल्दी से आओ तो शादी कर दें.’’


‘‘चिंता मत करिए. अगले महीने ही आ रहा हूं. सब सही हो जाएगा.’’ मां को बस एक ही चिंता थी कहीं मैं मोहित को सबकुछ बता न दूं. लेकिन यह तो पूरी जिंदगी का सवाल था. कैसे सहज रह पाएगी वह? उसे तो अपने शरीर से घिन आती है. नफरत सी हो गई है, इस शरीर और शादी के नाम से. ‘‘सुनो, हमारी जो पड़ोसिन है, मिसेज कौशल, वह नाट्य संगीत कला संस्था की अध्यक्ष हैं. उन का एक कार्यक्रम है दिल्ली में. जब उन्हें मालूम हुआ कि तुम भी रंगमंच कलाकार हो तो, तुम्हें भी अपने साथ ले कर जाने की जिद करने लगी. बोल रही थी नया सीखने का मौका मिलेगा.’’


‘‘सच में तुम जाओ. मन हलका होगा. 2 दिन की ही तो बात है,’’ मां तो बस, बोले जा रही थीं. उन के आगे मोहनी की एक नहीं चली. बाहर निकल कर सुकून तो मिला. काफी लड़कियां थीं साथ में. कुछ बाहर से भी आई थीं. उस के साथ एक विदेशी बाला थी, आशी. वह लंदन से थी.


आशी की बात से मोहनी को संबल मिला. उसे लगा आज कितने दिन बाद दुख के बादल छंटे हैं और उसे इस आत्मग्लानि से मुक्ति मिली है


दोनों साथ ठहरे थे, एक ही कमरे में. जल्दी ही मोहनी और वे दोस्त बन गए, पर फिर भी मोहनी अपने दुख के कवच से निकल नहीं पा रही थी. एक रात जब वे होटल के कमरे में आईं तो मोहनी उस से पूछ बैठी, ‘‘आशी, तुम भी तो कभी देर से घर आती होंगी? तुम्हें डर नहीं लगता?’’


‘‘डर? क्यों डरूं मैं? कोई क्या कर लेगा. मार देगा या रेप कर लेगा. कर ले. मैं तो कहती हूं, जस्ट ऐंजौय.’’


‘‘क्या? जस्ट ऐंजौय…’ मोहनी का मुंह खुला का खुला रह गया.


‘‘अरे, कम औन यार. मेरा मतलब है कोई रेप करे तो मैं क्यों जान दूं? मेरी क्या गलती? दूसरे की गलती की सजा मैं क्यों भुगतूं. हम मरने के लिए थोड़ी आए हैं. वैसे भी जो डर गया समझो मर गया.’’ आशी की बात से मोहनी को संबल मिला. उसे लगा आज कितने दिन बाद दुख के बादल छंटे हैं और उसे इस आत्मग्लानि से मुक्ति मिली है. फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

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