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कहानी- एक ख़ूबसूरत मोड़

जादू-सा असर किया मोबाइल के स्क्रीन पर लिखे सुनील के गाने की एक लाइन ने. उसने बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह दिया. वह कुछ भी तो भूला नहीं था. हमारी 15 दिनों की मुलाक़ात में वह गाना ही तो था, जो गुनगुनाते हुए वह अपने सारे ज़ज़्बात व्यक्त कर देता था और मैंने भी उस गाने के अर्थ में स्वयं को तलाशते हुए, शब्दहीन, अपने हाव-भाव से उसका मौन निमंत्रण स्वीकार कर लिया था. तीस साल बाद अचानक सोशल मीडिया पर उसका नाम और औपचारिकतापूर्ण संदेश- ‘हैलो पूजा! कैसी हो?’ ने तो मेरे मन में पहले ही तूफ़ान पैदा कर दिया था. 
परिस्थितियों और समय की मोटी चादर के तले दबकर उसका अस्तित्व ही मेरे लिए समाप्त हो चुका था. कहते हैं न कि रख-रखाव न किया जाए, तो महल भी खंडहर बन जाता है, फिर वह अल्हड़ उम्र ही ऐसी थी, जिसमें न कोई भविष्य के सपने होते हैं, न कोई वादे होते हैं. बस, किसी की मूक प्रशंसाभरी आंखों से साक्षात्कार होने मात्र से इतना ख़ूबसूरत एहसास होता है कि मन रंगीन सपने सजाने लगता है. समय बहुत बलवान है, जो अच्छी-बुरी सभी यादों को भुलाने के लिए मरहम का काम करता है. लेकिन इस नए टेक्नोलॉजी ने तो मेरे अतीत को साक्षात् सामने लाकर खड़ा कर दिया था. शांत समंदर में झंझावात पैदा कर दिया था. यह मेरे लिए अभिशाप है या वरदान, सोच में पड़ गई थी. 

वर्तमान परिस्थितियों के कारण इसका अब कोई औचित्य ही दिखाई नहीं दे रहा था. यह मन को उद्वेलित करके बेचैन ही करेगा. आरंभ में औपचारिकतापूर्ण बातचीत से पता चला कि वह भोपाल में और मैं मुंबई में अपने-अपने परिवार के साथ जीवन बिता रहे हैं. फिर अचानक एक दिन मोबाइल के स्क्रीन पर उस गाने की लाइन पढ़कर मेरे मन की स्थिति बिल्कुल वैसी ही हो गई थी. जैसी उसकी आंखों में पहली बार मूक प्रेम निवेदन देखकर हुई थी. तो क्या वह कुछ भी नहीं भूला अब तक? उसके गाने की लाइन के प्रतिक्रियास्वरूप मैं तीस साल पहले की अव्यक्त भावनाओं में अपने को बहने से रोक नहीं पाई और उनको व्यक्त करने के लिए जवाब देने के लिए मजबूर हो गई. 

मैंने लिखा- ‘तो क्या तुम्हें सब कुछ याद है... परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं, लेकिन हम दोस्त बनकर बातें तो कर सकते हैं. हम दोनों ही अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हैं, इसलिए हमारे रिश्ते के इस नए मोड़ से हमारे अपने परिवारों के प्रति हमारे कर्त्तव्यों का हनन तो होगा नहीं, बल्कि उम्र के इस पड़ाव में जो खालीपन आ गया है, वह भर जाएगा. वैसे भी तुम्हारी भरपाई कभी हो नहीं पाई, वह दिल का कोना सूना ही है...’ मैसेज भेजते ही मुझे अजीब-सी ग्लानि होने लगी. 

यह मैंने क्या कर डाला! उसने तो स़िर्फ एक गाने की लाइन लिखी थी. उसके पीछे उसका अभिप्राय क्या था, यह जाने बिना ही मैंने क्या कुछ लिख डाला... इतने वर्षों में उसके व्यक्तित्व में क्या बदलाव आया होगा? कैसी उसकी सोच होगी? क्या सोचेगा वह पढ़कर? एक शादीशुदा महिला भी शादी के बाद परपुरुष से संबंध रखना चाहती है. हां, परपुरुष ही तो था, केवल 15 दिनों की औपचारिक मुलाक़ात और उसके बाद इतने वर्षों का अंतराल किसी आत्मीय रिश्ते की ओर तो इंगित करता नहीं है. वैसे भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की इतनी बेबाक़ी को निर्लज्जता का दर्जा ही दिया जाता है, ख़ासकर उस ज़माने में, जब हम मिले थे. हमारे संस्कार तो यही कहते थे. काश! कोई ऐसा बटन भी होता, जिसे प्रेस करने से भेजा हुआ संदेश भी डिलीट हो जाता. अपने स्क्रीन पर तो घबराकर तुरंत डिलीट कर ही दिया था. उसका जवाब आने के बाद मेरी आत्मग्लानि और बढ़ गई. उसका जवाब था- ‘मैं आपसे स़िर्फ दोस्ती चाहता हूं, इतना इमोशनल होना ठीक नहीं है...’ मैंने प्रत्युत्तर में लिखा- ‘मुझे थोड़ा समय चाहिए...’ मन बड़ा खिन्न हो गया था. मैं सब कुछ भूल चुकी थी. अपने नीरस वैवाहिक जीवन के साथ समझौता कर चुकी थी. 

फिर यह सब क्यों? और उम्र के उस पड़ाव पर थी, जब शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है. बस, स्वस्थ रहने के लिए मानसिक ख़ुशी मिलने के लिए मनुष्य भटकता है और जहां कहीं थोड़ा प्यार मिलता है, वहीं जाना चाहता है अर्थात् अल्हड़ उम्र की और इस उम्र की ज़िम्मेदारी मुक्त मानसिक स्थिति और आवश्यकताओं में विशेष अंतर नहीं होता. मेरा मानना था कि प्यार कभी दोस्ती में परिवर्तित नहीं हो सकता. दोस्ती और प्यार के बीच सीमा रेखा खींचना असंभव है. मैंने मन ही मन तय कर लिया कि अपनी भावनाओं पर पूरी तरह कंट्रोल रखूंगी और उसके सामने उजागर नहीं होने दूंगी, लेकिन औपचारिक चैटिंग करते हुए मन होता कि थोड़ा तो वह रोमांटिक बात लिखे. उसके हर वाक्य में अपने मनोकूल अर्थ ढूंढ़ती रहती. 

और कभी-कभी असफल होने पर अतृप्त मन उदास हो जाता और असुरक्षा की भावना से घिर जाती कि पहले की तरह यह रिश्ता अस्थाई तो नहीं है. और यदि निभेगा भी, तो प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कैसे निभेगा? मैं चैटिंग से ही संतुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन मेरी आवाज़ सुनने के उसके प्रस्ताव के सम्मोहन से ख़ुद को वंचित नहीं रख सकी. फोन करते ही मेरा पहला वाक्य था, “क्या अब तक याद हू मैं तुम्हें?” “याद उसे किया जाता है, जिसे भुला दिया गया हो. मैं तो तुम्हें कभी भूला ही नहीं. तुम्हारी यादों के साथ जीना सीख लिया था. लगा ही नहीं तुम कभी मुझसे दूर हो...” इस तरह हमारी मूक यादों को उसने और मैंने शब्दों का जामा पहनाया. समय ने हमारी भावनाओं को रत्तीभर भी नहीं बदला था, लेकिन परिस्थितियों ने हमारी ज़ुबान को संयमित शब्दों का चयन करने की ही अनुमति दी थी, इसलिए शब्दों को संभालकर बोल रही थी, जिससे दोस्ती की परिधि में ही रहूं. कितना मुश्किल था तब, जब उम्र ही ऐसी थी कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्दों का ज्ञान अधूरा था और अब अपार ज्ञान होते हुए भी अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है. बात समाप्त करने के बाद भी एक अधूरी प्यास से मन व्याकुल रहता था. लेकिन मैं उसे खोना नहीं चाहती थी और मन ही मन भगवान पर निर्णय की ज़िम्मेदारी छोड़ दी थी. उससे मिलने में मेरा तो कोई प्रयास था नहीं, यह सब तो ईश्‍वर की ही योजना थी. 

कहते हैं, जीवन में किसी के मिलने के पीछे भी कोई उद्देश्य होता है, शायद मेरे प्यार के लिए भटकते, वैरागी, निश्छल मन को सहारा देने के लिए ही भगवान ने उसे मुझसे मिलवाया था. इतना तो मैं विगत 15 दिनों की मुलाक़ात में जान गई थी कि वह हमारे मूक प्रेम के लिए बहुत गंभीर है. लेकिन हमारा सामाजिक रिश्ता ऐसा है, जिसके कारण इसका कोई भविष्य नहीं था. उससे बात करके यह भी पता चल गया कि मेरे लिखे एक पत्र के उनके बड़े भाई के हस्तगत होते ही हमारे पत्र-व्यवहार पर पूर्ण विराम लगा दिया गया था और मैं भी उसके पत्र के न आने के कारण को जाने बिना ही अपनी शादी के पहले उन पत्रों को भूमिगत कर आई और हमेशा के लिए इस रिश्ते को धराशाई कर दिया था. लेकिन बादलों में जिस प्रकार बिजली चमककर अपने अस्तित्व की याद दिलाती है, उसी प्रकार वह भी अपनी धूमिल-सी उपस्थिति मेरे मानस पटल पर कभी-कभी दिखा देता था, फिर बादल छंटने के साथ सब एकसार हो जाता था. हर दूसरे दिन बातें होने लगीं. उसके लिए समय निश्‍चित किया गया. फोन आने के पहले तो अजीब-सी बेचैनी रहती ही थी, फोन करते समय अजब-सा रोमांच का अनुभव होता था. ऐसी जगह जाकर बात करती थी, जहां कोई नहीं देखे. एक अपराध भावना घेरे रहती. सोचती ऐसा कौन-सा पाप कर रही हूं, जो पति से छिपाकर करना पड़ रहा है. 

बात ही तो कर रही हूं… यह कैसा रिश्ता है, जो इतना पवित्र होते हुए भी, विवाह के बाद अनैतिक माना जाता है. हम कृष्ण के राधा के साथ अलौकिक प्रेम की गाथा गाते-गाते नहीं थकते. सारा वृंदावन नगरी राधा के नाम से गूंजता रहता है और लौकिक प्रेम को व्यभिचार मानते हैं. यह कैसी दोहरी मानसिकता है? क्या विवाह के समय लिए गए सात वचन मनुष्य को सब ख़ुशी दे देते हैं, जो इस अनाम रिश्ते से मिलती है? क्या विवाह एक बेड़ी नहीं है? क्या जीने के लिए आर्थिक और शारीरिक सुरक्षा के साथ-साथ भावनात्मक सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है? जो अधिकतर वैवाहिक जीवन में अस्तित्वहीन है. पति हमारी भावना न समझे, बावजूद उसके साथ हम घुट-घुटकर जीने पर मजबूर हो जाते हैं. क्या जीवन सांसें पूरी करने का नाम है? यह समाज द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा मानसिक शोषण ही तो है. यह आक्रोश ‘सिलसिला’ मूवी में अमिताभ बच्चन द्वारा बोले गए शब्दों में साफ़ उजागर होता है- ‘दिल कहता है, दुनिया की हर एक रस्म उठा दें, दीवार जो हम दोनों में  है, आज गिरा  दें... क्यों दिल में सुलगते रहें, दुनिया को बता दें... हां, हमको मुहब्बत है...’ यह कैसा रिश्ता है, जो जीवनदायिनी होकर भी असामाजिक कहलाता है.  

जब भी फोन से उससे बात होती थी, मैं तो उसकी बातों के बयार में बहती रहती थी. वही याद दिलाता था कि आज की मुलाक़ात, बस इतनी ही. एक बार उसका फोन निश्‍चित समय पर नहीं आया. मन अजीब आशंकाओं से भर गया कि कहीं उसकी पत्नी ने हमारी बात सुनकर हमारी बातचीत पर पूर्ण विराम तो नहीं लगा दिया? बाद में बात करने से पता लगा कि वह व्यस्त था. इसकी कई बार पुनरावृत्ति होने लगी. मन असुरक्षित रिश्ते के संदेह से घिरने लगा. फिर धीरे-धीरे बात करने का अंतराल बढ़ने लगा, तो इसका कारण पूछने पर उसने मुझे समझाया. “हमारे रिश्ते में यही ठीक है. बातें तो अंतहीन हैं. मैं चाहता हूं कि हमारी भावनाएं इतनी नॉर्मल हो जाएं कि रिश्ते में बेचैनी ही न रहे.” पहले तो मुझे उसकी बात अटपटी लगी, लेकिन धीरे-धीरे उसके फोन आने का इंतज़ार ही कम होने लगा और जीवन व्यवस्थित-सा हो गया. यह स्थिति ठीक वैसी ही थी, जब प्यार या शादी के आरंभिक दिनों की रूमानियत धीरे-धीरे समाप्त होकर जीवन सामान्य हो जाता है. 

रिश्ते की तपिश धीरे-धीरे भीषण ग्रीष्म ऋतु में पहली बरसात की सोंधी ख़ुशबू के साथ ठंडक प्रदान करती है. ये बहुत ही सुखद एहसास था, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. हम दोनों ही जीवन के इस पड़ाव में एक-दूसरे में आए बदलाव को एक बार मिलकर देखना चाहते थे. ‘जहां चाह वहां राह’ वाली कहावत चरितार्थ हुई और एक पारिवारिक समारोह में उसके शहर में अपने पति के साथ जाकर उससे मिलने का मौक़ा मिला. उसके परिवारवाले हमारे इस रिश्ते के बारे में जानते थे, फिर भी उसने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण देकर हमारे इस बेनाम रिश्ते पर मुहर लगा दी, तो मुझे सुखद आश्‍चर्य हुआ और यह सोचकर गर्व हुआ कि मैं उसके लिए आज भी विशेष स्थान रखती हूं. उसने रास्ते में रखे दीये को मंदिर में रखे दीये का स्थान दे दिया था. उसके घर में मुश्किल से एक घंटे की सामूहिक मुलाक़ात में हम तटस्थ रहने का नाटक तो कर रहे थे, लेकिन मूक भाषा का दिल ही दिल में आदान-प्रदान भी चल रहा था. उसकी सुखी गृहस्थी को देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई. इस रिश्ते के इतना सुंदर और सुलझे हुए स्वरूप का पूरा श्रेय उसे जाता है. मैं तो एक समंदर के समान थी, जिसका बांध अचानक खोल देने पर वह निर्बाध गति से बहने के लिए व्याकुल हो गया था. 

उसके बहाव को कंट्रोल उसी ने किया, क्योंकि अति का परिणाम तबाही ही होता है. उससे संपर्क करने के बाद ही मैंने जाना कि पुरुष का वासनापूर्ण रूप ही होता है, यह हमारी पूरी पुरुष जाति के लिए अवधारणा है, तो ग़लत है. वापस लौटते समय सुनील का शरीर मुझसे दूर हो गया, साथ आया तो स़िर्फ एक एहसास मानो उसका शरीर नश्‍वर है और एहसास रूपी आत्मा अमर है, जो हर समय मेरे साथ रहेगा. यह एहसास कि कोई मुझे शिद्दत से चाहता है और मुझे ख़ुश देखना चाहता है, काफ़ी है जीने के लिए. शायर साहिर लुधियानवी ने ऐसे रिश्ते को बेहद ख़ूबसूरती से परिभाषित किया है- ‘वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...’ आज के विकसित टेक्नोलॉजी के संदर्भ में जब संपर्क के इतने साधन हैं, तो स्त्री-पुरुष के रिश्ते में ज़माने की सोच में आए बदलाव के कारण इसकी परिभाषा को परिवर्तित किया जा सकता है. छोड़ना के स्थान पर यदि हम जोड़ना लिखें तो यह रिश्ता सार्थक होगा.- सुधा
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