Today Breaking News

कहानी: चोट

आखिर कब तक सहन करती? कब तक बेइज्जती, जोरजुल्म सहती? इस आदमी ने, जब से मैं इस घर में शादी कर के आई हूं, डांटफटकार, उलाहनों तानों के अलावा कुछ नहीं दिया.
आखिर कब तक सहन करती? कब तक बेइज्जती, जोरजुल्म सहती? इस आदमी ने, जब से मैं इस घर में शादी कर के आई हूं, डांटफटकार, उलाहनों तानों के अलावा कुछ नहीं दिया.

शादी के शुरुआती कुछ दिन… कुछ महीने… ज्यादा हुआ, तो एक साल तक प्यार से बात की. घुमानेफिराने ले जाते. सिनेमा दिखाते, मेला, प्रदर्शनी ले जाते. मीठीमीठी प्यारभरी बातें करते. यहां तक कि अपनी मां से भी बहस कर लेते.

अगर मेरी सास मुझे छोटीछोटी बातों पर टोकतीं, तो पतिदेव अपनी मां से कह देते, ‘‘क्यों छोटीछोटी बातों पर घर की शांति भंग कर रही हो? आप की लड़की के साथ ससुराल में यही सब हो तो क्या बीतेगी आप पर? यह इस घर की बहू है, नौकरानी नहीं.

‘‘यह तो कुछ नहीं कहती, लेकिन मैं ही इसे घुमाने ले जाता हूं. पढ़ीलिखी औरत है. बदलते समय के साथ आप नहीं बदल सकतीं, तो छोटीछोटी बातों पर टोकाटाकी कर के घर में अशांति तो न फैलाएं.’’

सास को लगता होगा कि जोरू का गुलाम है बेटा. वे गुस्से में कुछ दिन तक बात न करतीं. बात करतीं तो भी इस तरह, जैसे धीरेधीरे बातों से अपना गुस्सा निकाल रही हों.

‘‘मुझे क्या करना है? तुम खूब घूमोफिरो, लेकिन हद में. आसपड़ोस के घर में भी बहुएं हैं. यह क्या बात हुई कि जब जी आया मुंह उठा कर चल दिए.

न किसी से कुछ पूछना, न बता कर जाना. आखिर घर में बड़ेबुजुर्ग भी हैं. उन के मानसम्मान का भी ध्यान रखो.’’

एक साल बाद ही पति के बरताव में बदलाव आने लगा. शायद शादी की  खुमारी अब तक उतर चुकी थी. पहले ये बहुत ही कम टोकाटाकी करते, बाद में बातबात पर टोकने लगे. मेरी कोई बात इन्हें अच्छी ही नहीं लगती. हर बात में अपनी मां की तरफदारी करते. चाहे वह बात गलत हो या सही, मैं सुनती रही.

इस बीच 2 बच्चे भी हो गए. कहने को घरगृहस्थी तो ठीकठाक चल रही थी, लेकिन जिन पति से मैं प्यार करती थी, उन के बातबात पर डांटनेटोकने से मन उदास रहने लगा.

मैं अपनी तरफ से पति का, सास का, बच्चों का, घर का पूरा खयाल रखती, फिर भी इन की बातबात पर टोकने, डांटने की आदत नहीं जाती.

एक बार मैं ने गुस्से में जरा जोर से कहा भी था, ‘‘आखिर बात क्या है? आप मुझे इस तरह से बेइज्जत क्यों करते रहते हैं?’’

इन्होंने भी झुंझला कर जवाब दिया, ‘‘मैं मर्द हूं. घर का मुखिया हूं. गलत बात पर टोकूंगा नहीं, तो क्या लाड़ करूंगा? तुम 2 बच्चों की मां बन गई हो. तुम्हें घर की जिम्मेदारी समझनी चाहिए. गलती पर डांटता हूं, तो गलती को सुधारना चाहिए. इस में बुरा मानने वाली क्या बात है?’’

‘‘मैं ऐसी कौन सी गलती करती हूं? क्या मन भर गया है मुझ से?’’

‘‘मुझे तो सब को साथ ले कर चलना है. तुम्हारा भी अब तक मन भर जाना चाहिए. प्यारमुहब्बत की उम्र बीत चुकी. अब अपने फर्ज पर ध्यान दो.’’

‘‘आखिर मैं ने फर्ज निभाने में कौन सी कमी रखी है?’’

‘‘तुम फिर बहस करने लगीं. मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘आप को मेरी कौन सी बात अच्छी लगती है आजकल?’’

‘‘औरत हो, औरत की तरह रहना सीखो. घर के कामकाज देखो. अम्मां की तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल. उन की देखभाल करो.’’

‘‘करती तो हूं.’’

‘‘करती, तो अम्मां शिकायत नहीं करतीं.’’

‘‘अम्मां की तो आदत है मेरी शिकायत करने की. एक की चार लगा कर भड़काती हैं.’’

‘‘खबरदार, जो मेरी अम्मां के बारे में कुछ कहा,’’ इन्होंने इतनी जोर से डांटा कि मैं गुस्से में अपने कमरे में आ कर रोने लगी.

बैडरूम में तो ये बड़े प्यार से बात करते हैं. हालांकि अब यह होता है कि बैडरूम में मेरे आने तक ये सो जाते हैं. मुझे घर के काम निबटातेनिबटाते ही रात के 11-12 बज जाते हैं.

अब हमारे बीच संबंध बनने में भी काफी समय होने लगा था. मसरूफियत, जिम्मेदारी, बढ़ती उम्र के साथ ऐसा होता है. इस की कोई शिकायत नहीं. लेकिन आदमी दो बातें प्यार से कर ले, तो क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मुझे देख कर इन का पारा चढ़ जाता है, खासकर दूसरों के सामने.

ये दूसरों से तो अच्छी तरह बात करेंगे. अपनी अम्मां से, बच्चों से, पासपड़ोस के लोगों से, घर आए रिश्तेदारों से. दोस्तों से तो इस कदर प्यार से बातें करेंगे कि जैसे इन्हें गुस्सा आता ही न हो, मानो जबान पर चाशनी चिपक जाती हो.

लेकिन सुबह मैं थोड़ी देर से उठूं, तो चिल्लाते हैं, ‘‘तुम जल्दी नहीं उठ सकतीं. यह कोई समय है उठने का? अभी तक चाय नहीं बनी. चाय में चीनी कम है. कभी ज्यादा है. खाने में नमक नहीं है. यह सब्जी क्यों बनाई है? वही काम करती हो, जो मुझे पसंद नहीं आता. न घर में साफसफाई है, न बच्चों की तरफ ढंग से ध्यान देती हो.

‘‘अम्मां अब कितने दिनों की मेहमान हैं. कम से कम उन की देखभाल ही ठीक से कर लिया करो. तुम्हें कपड़े पहनने का सलीका नहीं आता है. तुम्हें मेहमानों से बात करने का ढंग नहीं है. तुम यह नहीं करती, तुम वह नहीं करती. तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो. तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता.’’

मैं ने तो अब बहस करना, इन की बातों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. जो कहना है, कहते रहो. मेरा काम सुनना है, सुनती रहती हूं. लेकिन आखिर कब तक? अकेले में कह दें तो सुन भी लूं. चार लोगों के बीच टोकना, डांटना घोर बेइज्जती है मेरी. मेरे औरत होने की. पत्नी हूं, नौकरानी नहीं.

एक दिन इन के 2-3 दोस्त खाने पर आए. इन के कहे मुताबिक ही खाना बनाया. मैं ने अच्छे से परोसा. लेकिन दोस्तों के सामने ही इन का चिल्लाना शुरू हो गया, ‘‘जरा अपने हाथपैर तेजी से चलाओ. यह जैट युग है, बैलगाड़ी की तरह काम मत करो…’’

फिर इन्होंने चीख कर कहा, ‘‘दही कहां है?’’

‘‘अभी लाई,’’ मैं ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा.

इन के एक दोस्त ने कहा, ‘‘क्या दबदबा बना कर रखा है यार? मैं अगर अपनी पत्नी से इतना कह दूं, तो घर में मुसीबत खड़ी हो जाए.’’

दूसरे दोस्त ने इन की हिम्मत बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वाकई सही माने में तुम हो असली मर्द. औरतों को ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए.’’

मैं अंदर रसोई में से सब सुन रही थी. जी तो चाहता था कि सारा सामान उठा कर फेंक दूं. इन्हें और इन के दोस्तों को जम कर लताड़ लगाऊं, लेकिन चुप ही रही. पर मैं ने भी मन ही मन तय कर लिया था कि अपनी बेइज्जती का बदला तो ले कर रहूंगी. लेकिन बहस से, चीखचिल्ला कर घर का माहौल बिगाड़ कर नहीं. इन्हें बताऊंगी कि औरत कैसे शर्मिंदा कर सकती है. कैसे हरा सकती है. कैसे तुम्हारे मर्द होने का अहंकार तोड़ सकती है.

खाना खा रहे दोस्तों के बीच मैं दही रखने गई, तभी दोनों बच्चे वहां आ गए खेलते हुए.

‘‘बाहर निकालो इन्हें कमरे से. तुम बच्चों का ध्यान नहीं रख सकतीं…’’ वे जोर से चिल्लाए.

मैं दोनों बच्चों को जबरदस्ती घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गई.

इन के किसी दोस्त की आवाज कानों में आई, ‘‘खाना तो लजीज बना है.’’

इन्होंने मुंह बिचकाते हुए जवाब दिया, ‘‘खाना तो सुमन बनाती थी. पहले मेरी उसी से शादी होने वाली थी. सगाई तक हो गई थी उस से. कई बार मैं सुमन के घर भी गया. ऐसा स्वादिष्ठ खाना मुझे आज तक नसीब नहीं हुआ.’’

इन की सगाई टूटने की बात मुझे पता थी, लेकिन सुमन के खाने की तारीफ और मेरे खाने को सुमन के मुकाबले कमतर बताना मुझे अखर गया.

ये मर्द थे, तो मैं औरत थी. इन्हें अपने मर्द होने का घमंड था, तो मुझे क्यों न हो अपने औरत होने पर गर्व? अब इन्हें बताना जरूरी था कि औरत क्या होती है.

मर्द की सौ सुनार की और औरत की एक लुहार की कहावत को सच साबित करने का समय आ गया था. इन का यह जुमला कि मर्द बने रहने के लिए औरत को दुत्कारते रहना जरूरी है, तभी घर भी घर बना रहता है. तभी सब ठीक रहते हैं.

अम्मांजी ने इन से एक बार कहा भी था, ‘‘बेटा, मर्द को मर्द की तरह रहना चाहिए. औरत को हमेशा सिर पर चढ़ा कर नहीं रखना चाहिए. उसे डांटडपट, फटकार लगाना जरूरी है.’’

इन्होंने अम्मांजी की बातों को इस तरह स्वीकार किया कि मेरा पूरा वजूद ही बिखरने लगा.

दोनों बच्चे अकसर दादी के पास ही सोया करते थे. वे आज भी वहीं सो रहे थे. ये भी बिस्तर पर लेटेलेटे किताब पढ़ रहे थे.

आज मैं जरा जल्दी ही कमरे में पहुंच गई थी. मैं गाउन पहन कर सोती थी और कपड़े बाथरूम में ही बदलती थी. लेकिन आज मैं ने कमरे में जा कर साड़ी उतारी.

मैं ने तिरछी नजरों से इन की तरफ देखा. साड़ी बदलते ही इन का ध्यान मेरी तरफ गया. नहीं… नहीं, मेरे बदन की तरफ. पहले तो इन्होंने आदत के मुताबिक मुझे टोका, ‘‘यह जगह है क्या कपड़े बदलने की?’’

मैं ने भी कह दिया, ‘‘यहां पर आप के अलावा और कौन हैं? आप से कैसी परदादारी?’’

ये कुछ कहते, इस से पहले ही मैं ने अपने बाकी कपड़े भी उतार दिए. अब मैं छोटे कपड़ों में थी, टूपीस भी कह सकते हैं.

मैं ने पहनने के लिए गाउन उठाया. लेकिन इन के सब्र का पैमाना छलक चुका था. इन्होंने प्यार से मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए तुम्हें प्यार किए हुए. आज इस रूप में देख कर सब्र नहीं होता.’’

इस के बाद कमरे में हम दोनों एक हो गए. अलग होते ही मैं मुंह बिचका कर एक तरफ मुंह फेर कर लेट गई.

मैं ने कहा, ‘‘किसी वैद्यहकीम को दिखाओ. इतने सारे तो इश्तिहार आते हैं, कोई गोली ले लिया करो.’’

ये दुम दबाते पालतू कुत्ते की तरह आ कर कूंकूं की आवाज में बोले, ‘‘क्यों, खुश नहीं हुईं क्या तुम? कुछ कमी रह गई क्या?’’

इन की हालत देख कर बड़ी मुश्किल से मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है. कभीकभी होता है ऐसा.’’

इन का उदास, हताश, हारा हुआ चेहरा देख कर मुझे अपनी जीत का एहसास हुआ. एक ही वार से इन के अंदर की मर्दानगी और बाहर का मर्द दोनों मुरदा पड़े हुए थे, जैसे दुनिया के सब से तुच्छ, कमजोर इनसान हों.

उस के बाद इन की टोकाटाकी, डांटफटकार तो बंद हुई ही, साथ ही साथ मेरी तरफ जब भी ये देखते, तो ऐसा लगता कि इन के देखने में डर और शर्मिंदा का भाव हो. अकसर चोरीछिपे जिस्मानी ताकत बढ़ाने के इश्तिहार पढ़ते भी नजर आते.- देवेंद्र मिश्र
 
 '