कहानी: अंतस के दीप
‘‘अरे रागिनी, दो बज गए! घर नहीं चलना क्या? पाँच बजे वापस भी तो आना है स्पेशल ड्यूटी के लिए।’’
सहकर्मी नेहा की आवाज़ से रागिनी की तंद्रा टूटी।
दीवाली पर स्पेशल ड्यूटी का आदेश हाथ में लिए वह पिछली दीवाली की काली रात के अंधेरों में भटक रही थी — वही अंधेरा जो उसके भीतर भी गहराता चला गया था। नफरत का एक काला साया उसके मन पर इस तरह छा गया था कि त्योहार की सारी खुशी, सारा उत्साह निगल गया था।
रागिनी बुझे मन से नेहा के साथ चैंबर से बाहर निकल आई।
ऐसा नहीं था कि उसे रोशनी से नफरत थी।
एक वक्त था जब उसे दीपों का यह त्योहार बेहद पसंद था। घर की सबसे छोटी और लाड़ली रागिनी नवरात्र शुरू होते ही माँ के साथ दीवाली की तैयारियों में जुट जाती थी।
सारे घर की सफ़ाई, पुराने कबाड़ और कपड़ों की छँटाई, रद्दी निकालना, सजावट का नया सामान खरीदना — इन सब में उसे बड़ा आनंद आता था। तुलसीबाई और उसकी बेटी पूजा भी इसमें हाथ बँटातीं और सारा काम हँसी-खुशी निपट जाता।
सफ़ाई के दौरान जब पुराने खिलौने और कपड़े निकलते, तो रागिनी और पूजा उन्हें पहनकर, खेलकर बीते दिनों की यादों में खो जातीं।
माँ कभी खीझतीं, कभी मुसकरातीं — और इस तरह घर में उत्सव का माहौल बन जाता।
पूजा, तुलसीबाई की एकमात्र बेटी थी। पिता की जहरीली शराब से हुई असमय मृत्यु के बाद तुलसीबाई अपनी बस्ती के पुरुषों की बुरी नजरों से परेशान रहने लगीं। तब उन्होंने रागिनी की माँ शीला से कहा था—
“दीदी, अगर बुरा न मानें तो… मुझे अपने घर में रहने की इजाजत दे दीजिए। मैं आपके सारे काम कर दूँगी।”
शीला को भी एक भरोसेमंद सहायक की ज़रूरत थी, सो उन्होंने हामी भर दी।
तब से यह घर ही तुलसीबाई और पूजा की दुनिया बन गया।
रागिनी पूजा को अपनी गुड़िया की तरह चाहती थी — उसे सजाती, उसके बाल बनाती और उसी के साथ खेलती थी।
समय के साथ दोनों लड़कियाँ बड़ी हो गईं।
रागिनी ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक किया और प्रतियोगी परीक्षा पास कर विद्युत विभाग में अधिकारी बन गई। उसकी पहली पोस्टिंग जैसलमेर के पास छोटे से कस्बे फलौदी में हुई।
रागिनी के माता-पिता उसे इतनी दूर अकेले भेजने में हिचकिचा रहे थे।
तभी तुलसीबाई ने सुझाव दिया —
“दीदी, बुरा न मानें, तो छोटी पूजा को रागिनी बेबी के साथ भेज दीजिए। उसका मन भी लगा रहेगा, और आपका भी चैन रहेगा।”
शीला को यह विचार पसंद आया। वे चाहती भी थीं कि रागिनी अकेली न रहे।
जब रागिनी ने अपनी नौकरी जॉइन की, तो उसके साथ पूरा परिवार — मम्मी-पापा, तुलसीबाई और पूजा — फलौदी पहुँचा। चार दिन रेस्ट हाउस में रहने के बाद, दो कमरों का एक छोटा-सा फ्लैट किराए पर ले लिया गया। रागिनी और पूजा वहीं रहने लगीं।
रागिनी की फील्ड जॉब थी। अकसर उसे साइट्स पर दूर-दूर जाना पड़ता था और कई बार रात भी हो जाती थी। मगर उसके अधिकारी और सहकर्मी सभी सहयोगी थे, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं होती थी।
घर लौटने पर पूजा गरम खाना बनाकर उसका इंतज़ार करती। दोनों साथ खाना खातीं, दिनभर के किस्से सुनातीं और खूब हँसतीं।
ज़िंदगी सुचारु चल रही थी।
चार महीने बाद दीवाली आई।
रागिनी घर नहीं जा सकती थी, क्योंकि विद्युत विभाग में इंजीनियरों की दीवाली पर स्पेशल ड्यूटी लगाई जाती है — ताकि लोग रोशनी के इस पर्व को बिना अंधेरे के मना सकें।
पहले दो दिन सब कुछ ठीक रहा। तीसरे दिन, दीवाली के मुख्य पर्व पर, रागिनी फीडरों का निरीक्षण करने निकली।
अपनी गली के पास से गुजरते हुए उसे पूजा की याद आई।
“चलो, दीयों की बाती तो कर दूँ,” उसने सोचा, “वरना वो रातभर अंधेरे में बैठी रहेगी।”
घर पहुँचते ही पूजा खुशी से झूम उठी। दोनों ने मिलकर दीये जलाए, कुछ खाया और रागिनी फिर ड्यूटी पर निकल गई।
यही क्रम हर साल का बन गया — दीवाली की रात ड्यूटी और उसके अगले दिन की छुट्टियाँ मम्मी-पापा के पास जोधपुर में।
दो साल बाद तुलसीबाई का हार्ट अटैक से निधन हो गया।
पूजा अनाथ हो गई।
रागिनी के माता-पिता ने उसे विधिवत गोद ले लिया।
रागिनी के लिए तो वो पहले से ही छोटी बहन थी; अब इस रिश्ते पर समाज की मुहर भी लग गई।
एक साल बाद रागिनी की शादी विवेक से हुई, जो उसी विभाग में अधिकारी था।
शादी के बाद की यह उनकी पहली दीवाली थी, लेकिन दोनों की ड्यूटी अलग-अलग सबस्टेशनों पर लग गई थी। दीवाली के अगले दिन रागिनी जैसलमेर चली गई और पूजा जोधपुर।
पहली बार दोनों बहनें अलग-अलग बसों में सफ़र कर रही थीं।
रागिनी के परिवार की कोशिश थी कि उसका और विवेक का ट्रांसफर एक ही जगह हो जाए। लगभग एक साल की मेहनत के बाद उसका ट्रांसफर जैसलमेर हो गया।
रागिनी बहुत खुश थी — अब वह विवेक के साथ रह सकेगी और पूजा की शादी के बारे में भी सोचा जा सकेगा।
अब वे दोनों जैसलमेर में थे। पूजा भी उनके साथ आ गई थी। विवेक को सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था, एक सहायक भी था जो बाहर के काम देखता था, जबकि घर की सारी व्यवस्था पूजा संभालती थी।
रागिनी कोशिश करती कि काम के बाद देर तक घर से बाहर न रहे। शाम को विवेक के साथ घूमने निकल जाती, लेकिन चाहे कितनी भी देर हो जाए — रात का खाना तीनों साथ खाते थे। छुट्टियों में तीनों शहर घूमते — सोनार किला, पटवों की हवेली, गड़ीसर झील, सम के धोरें…
घर हँसी से गूंजता रहता।
फिर आई एक और दीवाली।
दोनों बहनों ने मिलकर सफ़ाई, सजावट और मिठाइयाँ बनाई थीं। पूजा ने सुंदर रंगोली भी रच दी थी।
शाम पाँच बजे रागिनी ड्यूटी पर निकल गई, विवेक अपने सबस्टेशन पर।
सब कुछ सामान्य था, तभी रागिनी ने सोचा — “आज विवेक को सरप्राइज़ दूँगी।”
उसने बाज़ार से सोने की चेन ली, जो धनतेरस पर बुक करवाई थी, और घर की ओर गाड़ी मोड़ ली।
घर के बाहर न एक भी दिया जल रहा था, न दरवाजा खुला था।
दिल धक् से रह गया।
उसने दरवाजा पीटना शुरू किया।
थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला — पूजा सामने थी, आँसुओं में भीगी हुई।
उसी क्षण विवेक कमरे से हड़बड़ाते हुए बाहर आया — कपड़े ठीक करते हुए।
बस, इतना ही काफी था।
पत्थर सी हो गई रागिनी।
उसने पूजा का हाथ थामा और घर से निकल पड़ी।
रात गैस्टहाउस में दोनों बहनें फूट-फूट कर रोती रहीं।
सुबह होते ही जोधपुर के लिए रवाना हो गईं।
विवेक भी पीछे-पीछे आया — माफी माँगने, समझाने — मगर रागिनी का निर्णय अटल था।
माँ-पापा ने भी उसी का साथ दिया, और रिश्ता खत्म हो गया।
उस रात रागिनी को विशाल याद आया — कॉलेज का सहपाठी, जो उससे प्यार करता था।
पर धर्म के नाम पर दीवारें ऊँची थीं।
रागिनी ने विवेक से शादी कर ली थी, पर दिल के किसी कोने में विशाल अब भी जिंदा था।
अब पूजा की शादी हो चुकी थी, और रागिनी फलौदी में फिर से अपनी ड्यूटी पर थी — तन से भी अकेली, मन से भी।
आज फिर दीवाली थी।
वह अपनी ड्यूटी में व्यस्त थी, जब गाड़ी खुद-ब-खुद उसके पुराने घर की ओर मुड़ गई।
घर के बाहर दीयों की कतारें जल रही थीं।
दरवाजा खुला था।
वह अभी कुछ समझ ही रही थी कि किसी ने पीछे से आकर उसे बाँहों में भर लिया —
“दीवाली मुबारक हो, दीदी!”
“अरे पूजा! तुम यहाँ? आने की खबर तो दी होती, मैं गाड़ी भेज देती।”
“तब यह खुशी कहाँ देखने को मिलती, दीदी,” पूजा ने मुसकराते हुए कहा।
उसके साथ उसका पति भी था, जिसने झुककर रागिनी के पाँव छुए।
पीछे से माँ-पापा की आवाज आई —
“और भी लोग आए हैं, बेटी।”
रागिनी ने मुड़कर देखा —
माँ के पीछे खड़ा विशाल शरारत से मुसकरा रहा था।
माँ ने रागिनी का हाथ उसके हाथ में थमाते हुए कहा —
“हमें पूजा ने सब कुछ बता दिया है। अब तुम दोनों को दीवाली की ढेरों शुभकामनाएँ।”
रागिनी की पलकें शर्म से झुक गईं।
छज्जों पर टिमटिमाते दीपकों के साथ उसके मन में भी एक नई रोशनी जल उठी।
“चलो दीदी,” पूजा ने कहा, “खाना लगाते हैं, फिर पटाखे चलाएँगे — आपको ड्यूटी पर भी तो लौटना है!”
सब हँस पड़े।
रागिनी माँ के कंधे पर सिर रखे भीतर चली गई।
सबके पीछे चलते हुए पापा ने चुपचाप अपने आँसू पोंछ लिए।
