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कहानी: टूटा हुआ रिश्ता

बसंती भाभी इस सब से बेखबर सी अपने आज के दूल्हे को बांहों में भींचे जा रही थीं. चुंबन पर चुंबन लिए जा रही थीं. दूल्हा बनी रेखा चुंबनों की इस बाढ़ से जैसे घबरा गईर् थी.
गांवभर की औरतें टूटिया खेल रही थीं. दुलहन बनी बसंती भाभी ने दूल्हा बनी रेखा को अपनी इच्छा के अनुसार सजाया था. पर कुछ पल के दूल्हे ने सुहागरात की रस्म पर ऐसा क्या कह दिया कि दुलहन की पलकें भीग गईं.

मालवा के विवाह के अवसर पर एक बड़ी मनोरंजक रस्म अदा होती है. बरात के रवाना हो जाने के बाद वर के घर पर रतजगा होता है. महल्ले व नातेरिश्ते की सभी स्त्रियां उस रात वर के घर पर इकट्ठी होती हैं और फिर जागरण की उस बेला में विवाह की सारी रस्में पूरे विधिविधान से संपन्न की जाती हैं. कोई स्त्री वर का स्वांग भरती है तो कोई वधू का.

फिर पूजन, कन्यादान, पलंगफेरे वगैरह की रस्में पूरी की जाती हैं. मंचोच्चार भी होता है, दानदहेज भी दियालिया जाता है, अच्छाखासा नाटक सा होता है. हंसीमजाक का वह आलम रहता है कि हंसतेहंसते स्त्रियों के पेट दुखने लगते हैं. घर में पुरुषों के न होने से स्त्रियां खूब खुल कर हंसतीखेलती हैं. सारे महल्ले को जैसे वे सिर पर उठा लेती हैं.

इस मनोरंजक प्रथा को इन स्त्रियों ने नाम दिया है, ‘टूटिया’ यानी टूटा हुआ. न जाने इस प्रथा को यह अनोखा नाम क्यों दिया गया? उधर असली विवाह होता है और इधर बरात में वर के साथ न जा पाने वाली स्त्रियां विवाह में भाग लेने के अपने शौक को इस ‘टूटिया’ रस्म द्वारा पूरा करती हैं.

बसंती भाभी को इस रस्म से बड़ा लगाव सा है. महल्ले में टूटिया का अवसर आते ही वे सब काम छोड़ कर दौड़ी चली जाती हैं. इस अवसर पर वधू बनने के लिए भी वे बड़ी उत्सुक रहती हैं. दूसरी स्त्रियों की तो इस के लिए खुशामद करनी पड़ती है, मगर बसंती भाभी तो खुद ही कह देती हैं, ‘‘अरी, तो चिंता क्यों करती हो? कोई नहीं बनती तो मैं ही बन जाती हूं दुलहन. दुलहन बनने में कैसा संकोच. औरत जात दुलहन बनने के लिए ही सिरजी है. समय की बलवान ही दुलहन बनती है. और नकली दुलहन बनना भी सब को बदा है?’’

यों दुलहन बनने के साथ ही अपने नकली वर का अपने हाथों से शृंगार करने का भी बसंती भाभी को शौक रहा है. दूल्हे का निर्णय होते ही वे उस का हाथ थाम कर गद्गद कंठ से कहती हैं, ‘‘चलो, दूल्हे राजा, मेरा मनचीता शृंगार करो. तुम मेरे दूल्हे बन रहे हो, तो मेरे मनमाफिक शृंगार करना पड़ेगा.’’

मास्टर साहब के लड़के की बरात जाते ही बंसती भाभी अपनी आदत के अनुसार सब से पहले उन के घर पहुंच गईं. आते ही स्त्रियों के इकट्ठा होने की बड़ी व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगीं. उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि पड़ोसिनों व नातेरिश्ते वालियों का कामकाज अभी तक क्यों नहीं निबटा. अगर देर से टूटिया शुरू करेंगी तो सारी रस्में रातभर में पूरी नहीं होंगी. कैसी हैं ये औरतें? इन्हें इस मामले में उत्साह ही नहीं है. इस बहाने हंसनेखेलने का मौका मिल जाता है, इतना भी ये नहीं समझतीं. कामकाज तो रोज ही करना है, पर यह टूटिया रोज कहां होता है?

8-10 स्त्रियों के आ जाने पर सहज ही बात चल पड़ी, ‘‘आज दुलहन कौन बनेगी?’’बसंती भाभी ने फौरन जवाब दिया, ‘‘मैं बनूंगी. दुलहन की फिकर मत करो. दुल्हा की तलाश करो. बोलो, कौन बनेगा मेरा दूल्हा?’’

सभी स्त्रियों ने इनकार करते हुए कहा, ‘‘नहीं, बाबा, तुम्हारा दूल्हा बनने की सामर्थ्य हम में नहीं है.’’तभी रेखा आ गई. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, दूल्हादुलहन अभी तक सजे क्यों नहीं?’’बसंती भाभी ने फौरन कहा, ‘‘अरी, मैं दुलहन बनी कब की सजीसंवरी बैठी हूं. लेकिन अभी तक दूल्हा ही नहीं सजा.’’

‘‘क्यों?’’‘‘बस, तेरा ही इंतजार था.’’‘‘क्यों भला?’’‘‘तुझे दूल्हा बनाना है न.’’‘‘नहीं, बाबा, तुम्हारा दूल्हा मैं नहीं बन सकूंगी.’’‘‘क्यों? मैं क्या इतनी बुरी हूं?’’‘‘नहीं, बसंती भाभी, तुम तो हजारों में एक हो. रूपरंग, चालढाल, नाकनक्श, बातचीत सब में हीरा हो.’’‘‘क्यों मजाक कर रही है रेखा?’’

‘‘यह मजाक नहीं है, बसंती भाभी. मैं अगर पुरुष होती तो…’’‘‘तो क्या करती?’’‘‘तो मैं सचमुच तुम से शादी कर लेती, और अगर शादी नहीं हो पाती तो मैं तुम्हें भगा ले जाती.’’रेखा की इस बात पर ऐसे कहकहे लगे, ऐसी तालियां बजीं कि  आसपास के घरों से जो स्त्रियां अभी तक नहीं आई थीं, वे भी निकल आईं.

बंसती भाभी रेखा का हाथ थाम कर गद्गद कंठ से बोलीं, ‘‘तब तो आज मैं तुझे दूल्हा बनाए बिना नहीं मानूंगी.’‘‘नहीं, बाबा, मुझे बख्शो.’’‘‘नहीं, रेखा, मैं आज तुझे नहीं छोड़ूंगी.’’‘‘नहीं, बसंती भाभी, किसी और को दूल्हा बना लो.’’

‘‘अरी, तेरे से अच्छा दूल्हा भला मुझे कहां मिलेगा.’’रेखा ने चुहल की, ‘‘घर से ठेकेदार भैया को बुला दूं?’’

‘‘अरी, वे तो बरात में गए हैं. आज की रात तो बस तू ही मेरा दूल्हा है.’’‘‘तुम हमें परेशान तो नहीं करोगी, बसंती भाभी?’’‘‘अरी, अपने मन के दूल्हे को भला कोई परेशान करती है?’’

सभी स्त्रियों ने इस बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘मन से तेरे को दूल्हा बना रही है तो बजा भागवान.’’

कहकहे पर कहकहे लगाते हुए सभी रेखा को विवश करने लगीं. बसंती भाभी तो मास्टर साहब के घर में से मरदाना लिबास भी ले आईं. रेखा की साड़ी उतारते हुए वे उसे पैंटशर्ट पहनाने लगीं. रेखा न…न… करती रही मगर बसंती भाभी ने उसे मरदाना लिबास पहना दिया.

पांवों में मोजे पहनातेपहनाते बसंती भाभी ने रेखा के कोट के खुले हुए बटन को लक्ष्य कर कहा, ‘‘अरी, तू मेरा दूल्हा बन रही है तो इसे तो ढक ले.’’दूसरी स्त्रियों ने भी चुटकी ली, ‘‘हां, री. और जरा मूंछें भी लगा ले.’’

बसंती भाभी को यह बात पसंद नहीं आई. वे बोलीं, ‘‘नहीं, री, अब तो मुंछमुंडों का जमाना है. मूंछें भला कौन रखता है?’’

स्त्रियों ने चुटकी ली, ‘‘भाभी, दूर क्यों जाती हो, अपने घर में ही देखो न. हमारे ठेकेदार भैया तो अभी भी बड़ीबड़ी झबरी मूंछों के कायल हैं. तू भी बड़ी सी मूंछें लगा ले रेखा.’’

रेखा ने भी बसंती भाभी को छेड़ने के खयाल से कहा, ‘‘हां री, ले आओ मूंछें. मूंछों से मैं पूरा मर्द दिखूंगी.’बसंती भाभी का चेहरा उतर गया. वे तुनक कर बोलीं, ‘‘मैं नहीं लगाने दूंगी मूंछें.’’रेखा ने शरारत से मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम तो लगाएंगे मूंछें.’’‘‘तो फिर मैं तुझे दूल्हा नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘मत बनाओ.’’रेखा कोट उतारने लगी. बसंती भाभी ने रेखा का हाथ थाम लिया और अनुनय के स्वर में बोलीं, ‘‘रेखा, मुझे परेशान

मत कर.’’‘‘परेशान तो तुम कर रही हो, भाभी.’’‘‘मैं ने क्या किया?’’‘‘मुझे मूंछें क्यों नहीं लगाने दे रही हो? ठेकेदार भैया की भी मूंछें हैं तो फिर मेरी…’’‘‘तू उन का नाम यहां मत ले.’’

‘‘क्यों न लूं?’’‘‘इस टूटिया में तो मेरी मरजी का शृंगार करने दे, पगली.’’बसंती भाभी के भीगे कंठ व उन की इस भंगिमा से रेखा द्रवित हो गई. शरारत की मुद्रा को त्याग कर आज्ञाकारी बच्चे की तरह वह उन के सामने बैठती हुई बोली, ‘‘अच्छा, भाभी, तुम अपना मनचीता शृंगार कर दो.’’

बसंती भाभी को जैसे वरदान सा मिल गया. वे ललक कर रेखा का शृंगार करने लगीं. रजवाड़ा ढंग से उन्होंने रेखा के सिर पर साफा बांधा. भाल पर चमचच चमकती बिंदिया भी लगा दी और फूलों का सेहरा भी बांध दिया.

सारा शृंगार हो जाने पर बंसती भाभी ने अपनी जीरो नंबर की ऐनक उतारी और उसे दूल्हे को पहनाने लगीं.रेखा की आंखों में फिर शरारत की चमक आ गई. अपनी फूटती हंसी को रोक कर वह बोली, ‘‘बसंती भाभी, ऐनक मैं नहीं लगाऊंगी.’’

बसंती भाभी ने दयनीय मुद्रा बना कर कहा, ‘‘नहीं, री, ऐनक बिना तो दूल्हा जंचता ही नहीं है.’’‘‘नहीं, भाभी. ऐनक लगाने पर लोग चश्मा चंडूल कहते हैं.’’‘‘कहने दे. तू तो चश्मा लगा ले.’’

रेखा जानती थी कि बसंती भाभी ऐनक लगवाए बिना मानेंगी नहीं. मगर वह फिर भी इनकार करती ही रही, ‘‘आजकल ऐनक का फैशन ही नहीं है.’’

‘‘कौन कहता है? आजकल ही तो ऐनक का फैशन है.’’‘‘नहीं है, भाभी. चाहो तो सब से पूछ लो.’’

सभी स्त्रियों को इस शरारत में मजा आ रहा था. इसीलिए बिना पूछे ही उन्होंने अपना मत व्यक्त किया, ‘‘कमजोर नजर वाले ही लगाते हैं ऐनक.’’

रेखा ने फौरन इस बात का सिरा थाम कर कहा, ‘‘भाभी, सुना आप ने?’’‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना है…मैं तो अपने दूल्हे को ऐनक पहनाऊंगी.’’रेखा ने भाभी के कान से मुंह सटाते हुए फुसफुसा कर कहा, ‘‘क्यों, ऐनक वाला अभी भी मन में बैठा है क्या?’’

भाभी का गुस्से से मुंह फूल गया. दूसरी स्त्रियां इस बात को सुन नहीं पाईर् थीं, इसलिए वे चिल्लाईं, ‘‘यह क्या गुपचुप बातें हो रही हैं? शादी अभी हुई नहीं और अभी से कानाफूसी चलने लगी.’’

इस बात का न तो बसंती भाभी ने उत्तर दिया, न ही रेखा ने. रेखा ने भाभी के हाथ से ऐनक ले कर पहन लिया और दूसरी ही बात छेड़ दी, ‘‘यह क्या देरदार लगा रखी है? जल्दी कराओ न हमारी शादी.’’स्त्रियों ने चुटकी ली, ‘‘क्यों, ऐसी क्या बेकरारी है?’’

रेखा इठलाती हुई बोली, ‘‘बेकरारी क्यों नहीं होगी? एक रात के ही लिए तो दुलहन मिल रही है, और वह भी भाभी जैसी नगीना.’’‘‘अभी भी अपनी दुलहन को भाभी ही कहे जाएगी?’’‘‘नहीं, री, शादी तो करा दो. फिर मैं इसे प्राणप्यारी कहूंगी, प्रियतमा कहूंगी.’’

‘‘पर दूल्हा तो दुलहन के सामने हलका लग रहा है.’’‘‘लगने दो. है तो दुलहन का मनपसंद.’’कहकहे पर कहकहे लगते रहे. मगर भाभी का चेहरा फिर भी नहीं खिला.रेखा से यह छिपा न रहा. वह भाभी के कान के पास मुंह ले जा कर फिर फुसफुसाई, ‘‘मेरी बात का बुरा मान गईं, भाभी?’’

भाभी ने फुसफुसाते हुए उत्तर दिया, ‘‘नहीं, री, बुरा क्यों लगेगा? तूने सच ही तो कहा है. यह बावरा मन उस छलिया को अब क्यों…?’’‘‘मन की लीला मन ही समझता है भाभी, और कोई नहीं…’’

रेखा की बात को काटते हुए एक स्त्री बोली, ‘‘अरी, मन की लीला को सुहागरात के समय समझनासमझाना. अभी पूजन तो होने दे. इतनी उतावली मत बन.’’

यह बात ठहाकों में ही डूब गई और विवाह की रस्में विधिवत शुरू हो गईं. वर और वधू के फर्जी मांबाप ने अपनीअपनी संतान को अपने पास खींच लिया. तुरंत मंत्रों का उच्चारण होने लगा. हर शब्द पर अनुस्वर लगालगा कर नई संस्कृत में मंत्र बनाए गए. जो कुछ कमी रह गई थी, उस की पूर्ति अस्पष्ट उच्चारण से कर ली गई. विवाहघर जैसी धूमधाम मच गई.

देखतेदेखते पूजन, कन्यादान सब हो गया. विवाह कराने वाले पंडितजी ने दहेज के लिए मंत्रोच्चार किया, ‘‘दहेज फौरन दें.’’

ठहाके लगाने वाली और ताली पीटने वाली स्त्रियां फौरन दौड़ीं और दहेज की वस्तुएं ले आईं. किसी ने दहेज में झाड़ू दी तो किसी ने जूतों की जोड़ी. कोई अलबेली कंकड़ ले आई तो किसी ने टूटी कंघी ही दी. इसी तरह एक से एक निराली वस्तुएं दहेज में आती गईं. बाकायदा सब की सूची बनी. उस सूची में नाम व वस्तु दर्ज की गई. हंसतेहंसते सभी के पेट दुखने लगे.

दानदहेज से निबटते ही दूल्हादुलहन का जलूस निकाला गया. दूल्हादुलहन को तांगे में बैठाया गया. बैंडबाजा आगेआगे और तांगा पीछेपीछे चला. बाकी स्त्रियां मंगल गीत गाती हुई तांगे के पीछेपीछे हो लीं. सारे महल्ले में खलबली मच गई. कुछ लोग हैरान हुए, कुछ मुसकराए.

सब रस्मों को निबटाने के बाद विवाह की खास रस्म सुहागरात का आयोजन हुआ. दूल्हादुलहन को एक कमरे में धकेल कर कुंडी चढ़ा दी गई. कुछ अलबेली इस मौके के गीत गाने लगीं तो कुछ चुहल करने लगीं. ऐसेऐसे फिकरे कसे गए, ऐसेऐसे मजाक हुए कि यदि कोईर् पुरुष सुन ले तो उसे अपने कानों पर विश्वास न हो. भले घरों की स्त्रियां भी ऐसा मजाक कर सकती हैं, यह वह कभी मान भी नहीं सकता.

बसंती भाभी इस सब से बेखबर सी अपने आज के दूल्हे को बांहों में भींचे जा रही थीं. चुंबन पर चुंबन लिए जा रही थीं. दूल्हा बनी रेखा चुंबनों की इस बाढ़ से जैसे घबरा गईर् थी. वह अपनी इस दुलहन की बांहों की कैद से मुक्त होने की कोशिश कर रही थी. वह बारबार समझा रही थी. मगर भाभी पर तो तो जैसे नशा सा सवार हो गया था. वे जैसे होश में ही नहीं थीं. तमाशा देखने वाली स्त्रियां हंसहंस कर दोहरी हुई जा रही थीं.

बसंती भाभी को परे झटक कर रेखा बाहर आने के लिए उठी कि तमाशा देखने वालियों ने बाहर से दरवाजे की कुंडी लगा दी. भाभी ने दौड़ कर भीतर से कुंडी लगा ली.

रेखा चीखी, ‘‘यह क्या कर रही हो?’’

भाभी ने नाटकीय स्वर में कहा, ‘‘छलिया, आज तो खुल कर खेल लेने दे.’’

रेखा ने साश्चर्य कहा, ‘‘होश में आओ भाभी. मैं छलिया नहीं हूं, यह टूटिया है.’’

रेखा को बांहों में भींचते हुए भाभी फुसफुसाईं, ‘‘वह भी तो टूटिया ही था. वह छलिया मुझे छल कर चला गया. उसे दौलत चाहिए थी तो वह मुझे भुलावा क्यों देता रहा? मेरे बाबूजी ने तो पहले ही कह दिया था कि उन के पास कुमकुम और कन्या के सिवा और कुछ भी नहीं है. फिर भला वह छलिया ऐनक लगा कर, मोहिनी मूरत बना कर मुझे क्यों ठगता रहा? ठगने के बाद भी अब वह मेरे मन में क्यों डेरा जमाए हुए है? जाता क्यों नहीं?’’

 भाभी फफकफफक कर रोने लगीं. रेखा ने उन्हें अपनी बांहों में ले कर उन के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘उसे अब भूल जाजो, भाभी. ठेकेदार भैया में ही मन लगाओ.’’

 ‘‘ठेकेदार तो अब मेरे सबकुछ हैं ही. भले ही वे मेरे काका की उमर के हों, पर अब हैं तो मेरे पति. उन्होंने गरीब बाप की इस बेटी को अपनाया तो. दुहाजू ही सही, पर वर तो मिल गया मुझे. मेरा रोमरोम उन का है री. पर इस मुए मन को कैसे समझाऊं? वह छलिया…’’ 

भाभी का कंठ रुंध सा गया. बाहर से स्त्रियां कुंडी खटखटाती हुई शोर मचाए जा रही थीं. फब्ती पर फब्ती कस रही थीं, मगर भाभी और रेखा अपनेआप में ही डूबी हुई थीं. भाभी की व्यथा से रेखा भी अभिभूत हो गई थी. वह भाभी के गालों पर चुंबन अंकित करती हुई उन्हें अपनी बांहों में कसे जा रही थी. भाभी उन बांहों में पड़ी बुदबुदाए जा रही थीं, ‘‘छलिया, अब तो मुझे छोड़ दे. तेरामेरा नाता टूट गया. अब क्यों मुझे सताता है रे?’’ 

बच्चों के मुखसे मेरा बेटा 2 वर्ष का है. मैं उसे प्यार से अकेले में जानू, चीकू बुलाती हूं.इस बार की होली में ससुराल गए थे. वहां मेरे जेठ, जेठानी व उन के बच्चे भी आए थे. सभी बाहर आंगन में बैठे थे. खेलखेल में सासुमां मेरे बेटे को सब के नाम बोलना सिखा रही थीं. तभी उन्होंने बेटे से पापा का नाम पूछा तो वह बोला, ‘जानू.’ चूंकि इन का घर का नाम ‘रानू’ था. उस के इतना बोलने पर सब खिलखिला कर हंस पड़े. 

खुशबू मित्तल हमारी हिंदी की टीचर हमें मुहावरे का अर्थ व उन का प्रयोग यानी वाक्य प्रयोग पढ़ा रही थीं. उन के साथ उन की बेटी भी आई थी जो हमारे ही स्कूल में कक्षा 2 में पढ़ती थी. मैम सब से मुहावरों का अर्थ पूछ कर वाक्य प्रयोग करवा रही थीं. तभी एक मुहावरा आया, ‘धूल चाटना.’ एक बच्चे ने वाक्य प्रयोग किया, ‘‘रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से दुश्मनों को धूल चटा दी.’’

यह सुन कर मैम की बेटी बोली, ‘‘छीछी, उन के पास टौफी नहीं थी जो धूल चटा दी.’’ यह सुन कर सारी क्लास ठहाका लगा कर हंस पड़ी और मैम भी मुसकराए बगैर न रह सकीं.   संकेत अग्रवाल हमारे जेठ का बेटा अर्श बौएज

हाईस्कूल की 5वीं कक्षा में पढ़ता है. उस की हिंदी लिटरेचर की पुस्तक के एक पाठ ‘आजाद देश’ के अंत में ‘आओ कुछ नया करें’ शीर्षक से एक प्रश्न पूछा गया  कि ‘‘आप किस से आजादी चाहते हैं? पुस्तकों से, पुस्तकों के बोझ से? मातापिता की डांट से? अपने मन की बात दो पंक्तियों में लिखिए.’’

वह मुझ से पूछने लगा, ‘‘चाची, इस का क्या उत्तर लिखें?’’ वहीं पास खड़ा 5 वर्ष का मेरा बेटा आरुष सुन रहा था. बड़े भोलेपन से हंस कर बोला, ‘‘भैया, लिख दो हमें इन सब से आजादी चाहिए. हहा, बुक नहीं पढ़नी पड़ेगी. बड़ा मजा आएगा.’’

सब उस की बात सुन अचंभे से उस की ओर देखने लगे. अर्श बोला, ‘‘अरे नहीं मेरे भाई, इन सब से आजादी ले लेंगे तो हमारे पास सिर्फ शरारतें और खेलकूद ही बचेगा और बाकी की जिंदगी ठप. पुस्तकें और मम्मीपापा की डांट तो जरूरी आइटम हैं न.’’
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