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कहानी: दायरे में सिमटी सोच

यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, 'आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन...
‘बहु, मैं छत पर जा रही हूं, अगर कोई आये तो उसे छत पर ही भेज देना, अभी-अभी मेरी हलवाई से फोन पर बात हुई है वो आता ही होगा, हमने जो एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है न उसी बारे में उससे कुछ बात करनी है.’ कहते हुए मनोरमा सीढियों की और बढ़ी.

थोड़ी देर बाद हलवाई भी आ गया. और ब्राह्मण भोज के लिए मनोरमा और हलवाई के बीच बातचीत होने लगी.

‘बाकी सब तो ठीक है, लेकिन तुम्हे एक बात का खास खयाल रखना होगा.’ मनोरमा ने हलवाई को चेताया तो हलवाई ने भी अपने कान खड़े कर लिए.

मनोरमा बोली, ‘ये तो तुम्हे पता ही है कि हमनें एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है, खाना बनाते समय तुम्हे और तुम्हारे साथ आने वाले कारीगरों को शुद्धता व साफ सफाई का अच्छा खासा ख्याल रखना होगा, और ध्यान रहे कि तुम्हारे स्टाफ का कोई भी आदमी नीची जाती न हो वरना हम सभी का धर्म भ्रष्ट तो होगा ही पाप के भागीदार बनेंगे सो अलग.”

यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, ‘आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन..’

“लेकिन क्या..” मनोरमा तपाक से बोली.

तभी बहु चाय ले आई. चाय का कप उठाते हुए हलवाई बोला-

“देखिए खाना बनाने वाले हमारे स्टाफ में तो कोई भी आदमी नीची जाति का नहीं है, लेकिन खाने के बाद झुंठे बर्तन साफ करने के लिए मैं कह नही सकता की कोन मिलेगा और किस जाति का मिलेगा, इसलिए बर्तन साफ करने के लिए जो भी आदमी मिलेगा उसे ही लाना होगा.”

यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, ‘आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन, मुझे कोई आपत्ति नही हैं.”

“फिर ठीक है.” कहकर हलवाई समय व दिन तय करके वहां से निकल गया.

हाथ में चाय की खाली ट्रे पकड़े बहु भी यह सब देख सुन रही थी.

हलवाई के जाते ही बहु ने अपनी सास से कहा “माजी, अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं ?”

“हां, बोलो बेटा”

“माजी, हमने जिस दिन ब्राह्मण भोज रखा है, उस दिन बुलाएं गये सभी एक सौ आठ ब्राह्मण एक साथ तो आएगें नहीं, कोई पहले आएगा तो कोई बाद में, लेकिन पहले भोजन कर चूके ब्राह्मणों के झूंठे बर्तनों को जब नीची जाति का आदमी साफ करेगा और फिर उसके छुएं उन्ही बर्तनों में बाद में आने वाले सभी ब्राह्मणों को खाना परोसा जाएंगा, क्या तब उनका धर्म भ्रष्ट नही होगा, क्या तब आप हम सभी पाप के भागीदार नही बनेंगे ?”

मनोरमा को अपनी बहु से इस तरह के तर्क की उम्मीद नही थी, और न ही मनोरमा के पास अपनी बहु की इस बात का कोई जबाब था, वो बगलें झांकने लगी, उसके पास इससे आगे बोलने के लिए कुछ भी बचा. लेकिन बहु ने बोलना जारी रखा.

“माजी, जब सुरज चांद, पृथ्वी प्रकृति, पेड़ पौधें यहां तक की पशु पक्षी भी जातपात या ऊंचनीच को लेकर भेदभाव नहीं करते तो इंसानों को यह अधिकार किसने दिया, जो भी बड़े है या आज उच्च पदों पर कार्यरत हैं उसमें भी कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से इन्ही छोटी जाति व छोटे लोगों का ही हाथ हैं, फिर इतना भेदभाव क्यूं.” मनोरमा बहु को एकटक देखती रही, बहु ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा.

“माजी, मैं जब से इस घर में आयी हूं तब से देख रही हूं, हम लोग हर साल ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं, और हर बार कहीं न कहीं कोई न कोई कोर कसर रह ही जाती है. जिस वजह से घर आए ब्राह्मणों में से कोई न कोई बिदक जाता हैं, याद है आपको पिछले साल जब हमने भोजन करवाया था तो उनके गिलास में पानी डालते समय जब बिट्टू ने पानी का जग गल्ती से उनकी झुंठी गिलास से टकरा दिया था, तो कैसे भडक गये थे वें लोग.”

मनोरमा ने याद करने की कोशिश करते हुए हां में जबाब दिया.

‘माजी, मैं तो कहती हूं इसबार हमें इन साधन सम्पन्न ब्राह्मणों को भोजन करवाने की बजाए उन गरीब, बेसहारा और जरूरतमंद लोंगो को भोजन करवाना चाहिए जिन्हें अगर सुबह का भोजन मिल जाए तो शाम का पता नही और शाम का मिल जाए तो सुबह का पता नही. अगर आप भोजन करवाना ही चाहती है तो इस बार इन्ही जरूरतमंद लोगों को भोजन करवाएं और फिर देखना आपके दिल को कितनी तसल्ली मिलती है. सही मायने में तो इन साधन सम्पन्न ढोंगी पाखंडी लोगों की वजह से वंचितों को अपना सही हक नही मिल पाता जो कि इसके असली हकदार हैं.”

मनोरमा ने पहली दफा अपनी बहु को इतना बोलते हुए सुना, बहु की बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया, अपनी सास को मौन देखकर बहु असमंजस में पड़ गयी और सोचने लगी कहीं कुछ ज्यादा तो नही बोल गयी मै, कुछ गलत तो नहीं कह दिया, हो सकता है माजी को मेरी कोई बात बुरी लगी हो. कई ऐसे खयाल उसके दिमाग में घर करने लगें.

तभी मनोरमा ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “बेटा, आज तुम्हारे मुंह से इस तरह की बात सुनकर अच्छा लगा, काश.. मैं भी अपनी सास से इस बेबाकी के साथ यह सब कहने की हिम्मत जुटा पाती, भले मुझे अपनी सोच के मुताबिक सास न मिली, लेकिन खुशी इस बात की है कि अपनी सोच के मुताबिक बहु तो मिली है, तुम्हारी विस्तृत सोच ने मेरी दायरे में सिमटी सोच को नया आयाम दिया है, वैसे भी किसी को तो पहल करनी होगी, सो तुमने कर दी..”

अपनी सास का बदला मिजाज देखकर बहु का आत्म विश्वास आसमां छूने लगा था.
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