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कहानी: सोने का कारावास

अभिषेक अपने सपनों के आगे मां बाप को कुछ नहीं समझता था, वह खुद के बारे में सोचता था.
विदेश जाने के पीछे अभिषेक ने सिर्फ अपने बारे में सोचा था. बूढ़े मातापिता को उस की कितनी जरूरत है, यह बात उसे बेमानी लगी थी. लेकिन आज ऐसा क्या हो गया था कि वह अपनों के लिए तड़प रहा था?

अभिषेक अपनी कैंसर की रिपोर्ट को हाथ में ले कर बैठेबैठे यह ही सोच रहा था कि क्या करे, क्या न करे. सबकुछ तो था उस के पास. वह इस सोने के देश में आया ही था सबकुछ हासिल करने, मगर उस का गणित कब और कैसे गलत हो गया, वह समझ नहीं पाया. हर तरह से अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के बावजूद क्यों और कब उसे यह भयंकर बीमारी हो गई थी. सब से पहले उस ने अपनी बड़ी बहन को फोन किया तो उन्होंने फौरन अपने गुरुजी को सूचित किया और समस्या का कारण गुरुजी ने पितृदोष बताया था.

छोटी बहन भी फोन पर बोली, ‘‘भैया, आप लोग तो पूरे अमेरिकी हो गए हो, कोई पूजापाठ, कनागत कुछ भी तो नहीं मानते, इसलिए ही आज दंडस्वरूप आप को यह रोग लग गया है.’’ यह सुन कर अभिषेक का मन वापस अपनी जड़ों की तरफ लौटने को बेचैन हो गया. सोने की नगरी अब उसे सोने का कारावास लग रही थी. यह कारावास जो उस ने स्वयं चुना था अपनी इच्छा से.

अभिषेक और प्रियंका 20 वर्षों पहले इस सोने के देश में आए थे. अभिषेक के पास वैसे तो भारत में भी कोई कमी नहीं थी पर फिर भी निरंतर आगे बढ़ने की प्यास ने उसे इस देश में आने को विवश कर दिया था. प्रियंका और अभिषेक दोनों बहुत सारी बातों में अलग होते हुए भी इस बात पर सहमत थे कि भारत में उन का और उन के बेटे का भविष्य नहीं है.

प्रियंका अकसर आंखें तरेर कर बोलती, ‘है क्या इंडिया में, कूड़ाकरकट और गंदगी के अलावा.’

अभिषेक भी हां में हां मिलाते हुए कहता, ‘शिक्षा प्रणाली देखी है, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो देश के विद्यार्थियों को आगे के लिए तैयार करे. बस, रटो और आगे बढ़ो. अमेरिका के बच्चों को कभी देखा है, वे पहले सीखते हैं, फिर समझते हैं. हम अपने सार्थक को ऐसा ही बनाना चाहते हैं.’

प्रियंका आगे बोलती, ‘अभि, तुम अपने विदेश जाने के कितने ही औफर्स अपने मम्मीपापा के कारण छोड़ देते हो, एक बेटे का फर्ज निभाने के लिए. पर उन्होंने क्या किया, कुछ नहीं.’

‘मेरा सार्थक तो अकेला ही पला. उस के दादादादी तो अपना मेरठ का घर छोड़ कर बेंगलुरु नहीं आए.’

यह वार्त्तालाप लगभग 20 वर्ष पहले का है जब अभिषेक को अपनी कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का प्रस्ताव मिला था. अभिषेक के मन में एक पल के लिए अपने मम्मीपापा का खयाल आया था पर प्रियंका ने इतनी सारी दलीलें दीं कि अभिषेक को यह लगा कि उसे ऐसा मौका छोड़ना नहीं चाहिए.

अभिषेक अपनी दोनों बहनों का इकलौता भाई था. उस से बड़ी एक बहन थी और एक बहन उस से छोटी थी. उस के पति अच्छेखासे सरकारी पद से सेवानिवृत्त हुए थे. बचपन से अभिषेक हर रेस में अव्वल ही आता था. अच्छा घर, अच्छी नौकरी, खूबसूरत और उस से भी ज्यादा स्मार्ट बीवी. रहीसही कसर शादी के 2 वर्षों बाद सार्थक के जन्म से पूरी हो गई थी. सबकुछ परफैक्ट पर परफैक्ट नहीं था तो यह देश और इस के रहने वाले नागरिक. वह तो बस अभिषेक का जन्म भारत में हुआ था, वरना सोच से तो वह पूरा विदेशी था.

विवाह के कुछ समय बाद भी उसे अमेरिका में नौकरी का प्रस्ताव मिला था, पर अभिषेक के पापा को अचानक हार्टअटैक आ गया था, सो, उसे मजबूरीवश प्रस्ताव को ठुकराना पड़ा. कुछ ही महीनों में प्रियंका ने खुशखबरी सुना दी और फिर अभिषेक और प्रियंका अपनी नई भूमिका में उलझ गए. वे लोग बेंगलुरु में ही बस गए. पर मन में कहीं न कहीं सोने की नगरी की टीस बनी रही.

जब सार्थक 7 वर्ष का था, तब अभिषेक को कंपनी की तरफ से परिवार सहित फिर से अमेरिका जाने का मौका मिला, जो उस ने फौरन लपक लिया.

खुशी से सराबोर हो कर जब उस ने अपने पापा को फोन किया तो पापा थकी सी आवाज में बोले, ‘बेटा, मेरा कोई भरोसा नहीं है, आज हूं कल नहीं. तुम इतनी दूर चले जाओगे तो जरूरत पड़ने पर हम किस का मुंह देखेंगे.’ अभिषेक ने चिढ़ी सी आवाज में कहा, ‘पापा, तो अपनी प्रोग्रैस रोक लूं आप के कारण. वैसे भी, आप और मम्मी को मेरी याद कब आती है? प्रियंका को आप दोनों के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि आप दोनों मेरठ छोड़ कर आना ही नहीं चाहते थे. फिर सार्थक को हम किस के भरोसे छोड़ते और

आज आप को अपनी पड़ी है.’ अभिषेक के पापा ने बिना कुछ बोले फोन रख दिया.

अभिषेक की मम्मी, सावित्री, बड़ी आशा से अपने पति रामस्वरूप की तरफ देख रही थी कि वे उस को फोन देंगे पर जब उन्होंने फोन रख दिया तो उतावली सी बोली, ‘मेरी बात क्यों नहीं कराई पिंटू से?’

रामस्वरूप बोले, ‘पिंटू अमेरिका जा रहा है परिवार के साथ.’

सावित्री बोली, ‘हमेशा के लिए?’

रामस्वरूप चिढ़ कर बोले, ‘मुझे क्या पता. वह तो मुझे ही उलटासीधा सुना रहा था कि हमारे कारण उस की बीवी नौकरी नहीं कर पाई.’
अभिषेक और प्रियंका सभी घर वालों का दिल तोड़कर अपनी खुशी के लिए अमेरिका आएं थे.
सावित्री थके से स्वर में बोली, ‘तुम अपना ब्लडप्रैशर मत बढ़ाओ, यह घोंसला तो पिछले 10 वर्षों से खाली है. हम हैं न एकदूसरे के लिए,’ पर यह कहते हुए उन का स्वर भीग गया था.

सावित्री मन ही मन सोच रही थी कि वह अभिषेक को भी क्या कहे, आखिर प्रियंका उस की बीवी है. पर वे दोनों कैसे रहें उस के घर में, क्योंकि बहू का तेज स्वभाव और उस से भी तेज कैंची जैसी जबान है. उस के अपने पति रामस्वरूपजी का स्वभाव भी बहुत तीखा था. कोई जगहंसाई न हो, इसलिए सावित्री और रामस्वरूप ने खुद ही एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. पर इस बात को अभिषेक अलग तरीके से ले लेगा, यह उन्हें नहीं पता था.

उधर रात में अभिषेक प्रियंका को जब पापा और उस के बीच का संवाद बता रहा था तो प्रियंका छूटते ही बोली, ‘नौकर चाहिए उन्हें तो बस अपनी सेवाटहल के लिए, हमारा घर तो उन्होंने अपने लिए मैडिकल टूरिज्म समझ रखा है, जब बीमार होते हैं तभी इधर का रुख करते हैं. अब कराएं न अपने बेटीदामाद से सेवा, तुम क्यों अपना दिल छोटा करते हो?’

एक तरह से सब को नाराज कर के ही अभिषेक और प्रियंका अमेरिका  आए थे. साल भी नहीं बीता था कि पापा फिर से बीमार हो गए थे, अभिषेक ने पैसे भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. आखिर, अब उसे सार्थक का भविष्य देखना है.

उस की बड़ी दी ऋचा और उन के पति जयंत, मम्मीपापा को अपने साथ ले आए थे. पर होनी को कौन टाल सकता है, 15 दिनों में ही पापा सब को छोड़ कर चले गए.

अभिषेक ने बहुत कोशिश की पर इतनी जल्दी कंपनी ने टिकट देने से मना कर दिया था और उस समय खुद टिकट खरीदना उस के बूते के बाहर था. पहली बार उसे लगा कि उस ने अपनेआप को कारावास दे दिया है, घर पर सब को उस की जरूरत है और वह कुछ नहीं कर पा रहा है.

प्रियंका ने अभिषेक को सांत्वना देते हुए कहा, ‘आजकल बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है. वे तो ऋचा दी के पास थे. हम लोग अगले साल चलेंगे जब कंपनी हमें टिकट देगी.’

अगले साल जब अभिषेक गया तो मां का वह रूप न देख पाया, ऐसा लग रहा था मां ने एक वर्ष में ही 10 वर्षों का सफर तय कर लिया हो. सब नातेरिश्तेदार की बातों से अभिषेक को लगा जैसे वह ही अनजाने में अपने पिता की मृत्यु का कारण हो. उस के मन के अंदर एक डर सा बैठ गया कि उस ने अपने पिता का दिल दुखाया है. अभिषेक मां को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘मां, मैं आप को अकेले नहीं रहने दूंगा, आप मेरे साथ चलोगी.’

जयंत जीजाजी बोले, ‘अभिषेक, यह ही ठीक रहेगा, सार्थक के साथ वे अपना दुख भूल जाएंगी.’अभिषेक के जाने का समय आ गया, पर मां का पासपोर्ट और वीजा बन नहीं पाया.

मां के कांपते हाथों को अपनी बहनों के हाथ में दे कर वह फिर से सोने के देश में चला गया. फिर 5 वर्षों तक किसी न किसी कारण से अभिषेक का घर आना टलता ही रहा और अभिषेक की ग्लानि बढ़ती गई.

5 वर्षों बाद जब वह आया तो मां का हाल देख कर रो पड़ा. इस बार मां की इच्छा थी कि रक्षाबंधन का त्योहार एकसाथ मनाया जाए उन के पैतृक गांव में. अभिषेक और प्रियंका रक्षाबंधन के दिन ही पहुंचे. प्रियंका को अपने भाई को भी राखी बांधनी थी.

दोनों बहनों ने पूरा खाना अभिषेक की पसंद का बनाया था और आज मां भी बरसों बाद रसोई में जुटी हुई थी. मेवों की खीर, गुलाबजामुन, दहीबड़े, पुलाव, पनीर मसाला, छोटेभठूरे, अमरूद की चटनी, सलाद और गुड़ के गुलगुले. अभिषेक, ऋचा और मोना मानो फिर से मेरठ के घर में आ कर बच्चे बन गए थे. बरसों बाद लगा अभिषेक को कि वह जिंदा है.

2 दिन 2 पल की तरह बीत गए. बरसों से सोए हुए तार फिर से झंकृत हो गए. सबकुछ बहुत ही सुखद था. ढेरों फोटो खींचे गए, वीडियो बनाई गई. सब को बस यह ही मलाल था कि सार्थक नहीं आया था.

मोना ने अपने भैया से आखिर पूछ ही लिया, ‘भैया, सार्थक क्यों नहीं आया, क्या उस का मन नहीं करता हम सब से मिलने का?’

इस से पहले अभिषेक कुछ बोलता, प्रियंका बोली, ‘वहां के बच्चे मांबाप के पिछलग्गू नहीं होते, उन को अपना स्पेस चाहिए होता है. सार्थक भारतभ्रमण पर निकला है, वह अपने देश को समझना चाहता है.’

ऋचा दी बोली, ‘सही बोल रही हो, हर देश की अपनी संस्कृति होती है. पर अगर सार्थक देश को समझने से पहले अपने परिवार को समझता तो उसे भी बहुत मजा आता.’

अभिषेक सोच रहा था, सार्थक को अपना स्पेस चाहिए था, वह स्पेस जिस में उस के अपने मातापिता के लिए भी जगह नहीं थी.

शाम को वकील साहब आ गए थे. मां ने अपने बच्चों और नातीनातिनों से कहा, ‘मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद तुम लोगों के बीच में मनमुटाव हो, इसलिए मैं ने अपनी वसीयत बनवा ली है.’

प्रियंका मौका देखते ही अभिषेक से बोली, ‘सबकुछ बहनों के नाम ही कर रखा होगा, मैं जानती हूं इन्हें अच्छे से.’

वसीयत पढ़ी गई. पापा के मकान के 4 हिस्से कर दिए गए थे, जो तीनों बच्चों और मां के नाम पर हैं, चौथा हिस्सा उस बच्चे को मिलेगा जिस के साथ मां अपना अंतिम समय बिताएंगी.

अभिषेक अपने हाथ में कैसर का रिपोर्ट लेकर अपने पुराने दिन को याद कर रहा था कि काश में अमेरिका नहीं आया होता.
100 बीघा जमीन जो उन की गांव में है, उस के भी 4 हिस्से कर दिए गए थे. दुकानें भी सब के नाम पर एकएक थी और गहनों के 3 भाग कर दिए गए थे. मां ने अपने पास बस वे ही गहने रखे जो वे फिलहाल पहन रही थीं. वसीयत पढ़े जाने के पश्चात तीनों भाईबहन सामान्य थे पर छोटे दामाद और प्रियंका का मुंह बन गया था. जबकि छोटे दामाद और बहू ने अब तक मां के लिए कुछ भी नहीं किया था.

प्रियंका उस दिन जो गई, फिर कभी ससुराल की देहरी पर न चढ़ी. मां के गुजरने पर अभिषेक अकेले ही बड़ी मुश्किल से आ पाया था. फिर तो जैसे अभिषेक के लिए अपने देश का आकर्षण ही खत्म हो गया था.

पूरे 7 वर्षों तक अभिषेक भारत नहीं गया. बहनों की राखी मिलती रही, पर उस ने अभी कुछ नहीं भेजा क्योंकि कहीं न कहीं यह फांस उस के मन में भी थी कि जब उन्हें बराबर का हिस्सा मिला है तो फिर किस बात का तोहफा.

अमेरिका में वह पूरी तरह रचबस गया था कि तभी अचानक से एक छोटे से टैस्ट ने भयानक कैंसर की पुष्टि कर दी थी. उन्हीं रिपोर्ट्स को बैठ कर वह देख रहा था. न जाने क्यों कैंसर की सूचना मिलते ही सब से पहले उसे अपनी बहनों की याद आई थी.

सार्थक अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था, उस से कुछ उम्मीद रखना व्यर्थ था. वह एक अमेरिकी बेटा था. सबकुछ नपातुला, न कोई शिकायत न कोई उलाहना, एकदम व्यावहारिक. कभीकभी अभिषेक उन भावनाओं के लिए तरस जाता था. वह 2 हजार किलोमीटर दूर एक मध्यम आकार के सुंदर से घर में रहता था.

सार्थक से जब अभिषेक ने कहा, ‘‘सार्थक, तुम यहीं शिफ्ट हो जाओ, मुझे और तुम्हारी मम्मी को थोड़ा सहारा हो जाएगा.’’

सार्थक हंसते हुए बोला, ‘‘पापा, यह अमेरिका है, यहां पर आप को काम से छुट्टी नहीं मिल सकती है और सरकार की तरफ से इलाज तो चल रहा है

आप का, जो भारत में मुमकिन नहीं. मुझे आगे बढ़ना है, ऊंचाई छूनी है, मैं आप का ही बेटा हूं, पापा. आप सकारात्मक सोच के साथ इलाज करवाएं, कुछ नहीं होगा.’’

पर अभिषेक के मन में यह भाव घर कर गया था कि यह उस की करनी का ही फल है और उस की बातों की पुष्टि के लिए उस की बहनें भी रोज कोई न कोई नई बात बता देती थीं. अब अकसर ही अभिषेक अपनी बहनों से बातें करता था जो उसे मानसिक संबल देती थीं. सब से अधिक मानसिक संबल मिलता था उसे उन ज्योतिषियों की बातों से जो अभिषेक के लिए इंडिया से ही पूजापाठ कर रहे थे.

भारत में दोनों बहनों ने महामृत्युंजय के पाठ बिठा रखे थे. हर रोज प्रियंका अभिषेक का फोटो खींच कर व्हाट्सऐप से दोनों बहनों को भेजती और उस फोटो को देखने के पश्चात पंडित लोग अपनी भविष्यवाणी करते थे. सब पंडितों का एकमत निर्णय यह था कि अभिषेक की अभी कम से कम 20 वर्ष आयु शेष है. यदि वह अच्छे मुहूर्त में आगे का इलाज करवाएगा तो अवश्य ही ठीक हो जाएगा.

सार्थक हर शुक्रवार को अभिषेक और प्रियंका के पास आ जाता था. उस रात जैसे ही उसे झपकी आई तो देखा. इंडिया से छोटी बूआ का फोन था, वे प्रियंका को बता रही थीं, ‘‘भाभी, आप अस्पताल बदल लीजिए, पंडितजी ने कहा है, जगह बदलने से मरकेश ग्रह टल जाएगा.’’

सार्थक ने मम्मी के हाथ से फोन ले लिया और बोला, ‘‘बूआ, ऐसी स्थिति में अस्पताल नहीं बदल सकते हैं और ग्रह जगह बदलने से नहीं, सकारात्मक सोच से बदलेगा, मेरी आप से विनती है, ऐसी फालतू बात के लिए फोन मत कीजिए.’’

परंतु अभिषेक ने तो जिद पकड़ ली थी. उस ने मन के अंदर यह बात गहरे तक बैठ गई थी कि बिना पूजापाठ के वह ठीक नहीं हो पाएगा. सार्थक ने कहा भी, ‘‘पापा, आप इतना पढ़लिख कर ऐसा बोल रहे हो, आप जानते हो कैंसर का इलाज थोड़ा लंबा चलता है.’’

अभिषेक थके स्वर में बोला, ‘‘तुम नहीं समझोगे सार्थक, यह सब ग्रहदोष के कारण हुआ है, मैं अपने मम्मीपापा का दिल दुखा कर आया था.’’

सार्थक ने फिर भी कहा, ‘‘पापा, दादादादी थोड़े दुखी अवश्य हुए होंगे पर आप को क्या लगता है, उन्होंने आप को श्राप दिया होगा, आप खुद को उन की जगह रख कर देखिए.’’

प्रियंका गुस्से में बोली, ‘‘सार्थक, तुम बहुत बोल रहे हो. हम खुद अस्पताल बदल लेंगे. हो सकता है अस्पताल बदलने से वाकई फर्क आ जाए.’’

सार्थक ने अपना सिर पकड़ लिया. क्या समझाए वह अपने परिवार को. उसे डाक्टरों की चेतावनी याद थी कि जरा सी भी असावधानी उन की जान के लिए खतरा सिद्ध हो सकती है.

अभिषेक की इच्छाअनुसार अस्पताल बदल लिया गया. अगले हफ्ते जब सार्थक आया तो देखा, अभिषेक पहले से बेहतर लग रहा था. प्रियंका सार्थक को देख कर चहकते हुए बोली, ‘‘देखा सार्थक, महामृत्युंजय पाठ वास्तव में कारगर होते हैं.’’

पापा को पहले से बेहतर देख कर सार्थक ने कोई बहस नहीं की. बस, मुसकराभर दिया. पर फिर उसी रात अचानक से अभिषेक को उल्टियां आरंभ हो गईं. डाक्टरों का एकमत था कि  पेट का कैंसर अब गले तक पहुंच गया है, फौरन सर्जरी करनी पड़ेगी.

परंतु प्रियंका मूर्खों की तरह इंडिया में ज्योतिषियों से सलाह कर रही थी. ज्योतिषियों के अनुसार अभी एक हफ्ते से पहले अगर सर्जरी की तो अभिषेक को जान का खतरा है क्योंकि पितृदोष पूरी तरह से समाप्त होने में अभी भी एक हफ्ते का समय शेष है. एक बार पितृदोष समाप्त हो जाएगा तो फिर अभिषेक को कुछ नहीं होगा. कहते हैं जब बुरा समय आता है तो इंसान की अक्ल पर भी परदा पड़ जाता है. अभिषेक अपनी दवाइयों में लापरवाही बरतने लगा पर भभूत, जड़ीबूटियों का काढ़ा वह नियत समय पर ले रहा था. इन जड़ीबूटियों के कारण कैंसर की आधुनिक दवाओं का असर भी नहीं हो रहा था क्योंकि जड़ीबूटियों में जो कैमिकल होते हैं वे किस तरह से कैंसर की इन नई दवाओं को प्रभावित करते हैं, इस पर अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कभी ध्यान नहीं दिया था. नतीजा उस का स्वास्थ्य दिनबदिन गिरने लगा. इस कारण से अभिषेक की कीमोथेरैपी के लिए भी डाक्टरों ने मना कर दिया.

सार्थक ने बहुत प्यार से समझाया, सिर पटका, गुस्सा दिखाया पर अभिषेक और प्रियंका टस से मस न हुए. डाक्टरों ने सार्थक को साफ शब्दों में बता दिया था कि अब अभिषेक के पास अधिक समय नहीं है. सार्थक को मालूम था कि अभिषेक का मन अपनी बहनों में पड़ा है. जब उस ने अपनी दोनों बुआओं को आने के लिए कहा तो दोनों ने एक ही स्वर में कहा, ‘‘गुरुजी ने एक माह तक सफर करने से मना किया है क्योंकि दोनों ने अपने घरों में अखंड ज्योत जला रखी है, एक माह तक और फिर गुरुजी की भविष्यवाणी है कि भैया मार्च में ठीक हो कर आ जाएंगे. यदि हम बीच में छोड़ कर गए तो अपशकुन हो जाएगा.’’ सार्थक को समझ आ गया था कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं है.

उधर, अभिषेक को सोने की नगरी अब कारावास जैसी लग रही थी. तरस गया था वह अपनों के लिए, सबकुछ था पर फिर भी मानसिक शांति नहीं थी. दोनों बहनों ने अपनी ओर से कोई भी कोरकसर नहीं छोड़ी पर ग्रहों की दशा सुधारने के बावजूद अभिषेक की हालत न सुधरी. मन में अपनों से मिलने की आस लिए वह दुनिया से रुखसत हो गया.

आज सार्थक को बेहद लाचारी महसूस हो रही थी. दूसरे अवश्य उसे अमेरिकी कह कर चिढ़ाते हों पर वह जानता था कि उस के गोरे अमेरिकी दोस्त कैसे मातापिता की सेवा करते हैं. उस की एक प्रेमिका तो मां का ध्यान रखने के लिए उसे ही नहीं, अपनी अच्छी नौकरी को भी छोड़ कर इस छोटे से गांवनुमा शहर में 4 साल रही थी. वह मां के मरने के बाद ही लौटी थी. वह समझता था कि अमेरिकी युवा अपने मन से चलता है पर अपनी जिम्मेदारियां समझता है. अब वह हताश था क्योंकि पूर्वग्रह के कारण उस के मातापिता भारत में बैठी बहनों के मोहपाश में बंधे थे. वे धर्म की जो गठरी सिर पर लाद कर लाए थे, अमेरिका में रह कर और भारी हो गई थी.

सबकुछ तो था उस के परिवार के पास पर इन अंधविश्वासों में उलझ कर वह अपने पापा की आखिरी इच्छा पूरी न कर पाया था, काश, वह अपने पापा और परिवार को यह समझा पाता कि कैंसर एक रोग है जो कभी भी किसी को भी हो सकता है, उस का इलाज पूजापाठ नहीं. सकारात्मक सोच और डाक्टरी सलाह के साथ नियमित इलाज है. अमेरिका न तो सोने की नगरी है और न ही सोने का कारावास, पापा की अपनी सोच ने उन्हें यह कारावास भोगने पर मजबूर किया था. गीली आंखों के साथ सार्थक ने अपने पापा को श्रद्धांजलि दी और एक नई सोच के साथ हमेशा के लिए अपने को दकियानूसी सोच के कारावास से मुक्त कर दिया.
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