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कहानी: दुविधा

अजीब सी कशमकश थी. प्रखर के पास होते हुए भी वह उस के पास नहीं होती. उस के न चाहते हुए भी सुबोध उस के और प्रखर के बीच आ जाता.
एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं. कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

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मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती. लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

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भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता.
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