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कहानी: चाहत

एक बेटे की चाहत में तनु ने जैसे अपनी सुधबुध ही खो दी थी. पति से बेरुखी, प्यारी प्यारी बेटियों को अपने प्यार से वंचित सा कर दिया था. दिल में गहरे पैठी हुई अपनी इस चाहत के पीछे क्या तनु अपना हंसता खेलता परिवार उजाड़ बैठी.

देशी घी के लड्डुओं की खुशबू घरआंगन में पसरी हुई थी. तनु एकटक लड्डुओं को देखे जा रही थी. उन्हें उठा कर बाहर फेंक देने का मन हो रहा था.


‘‘मां, लड्डू,’’ मालू, शालू दोनों बहनें मचल उठीं.


‘‘अपने घर भी जब हमारा नन्हा सा भाई आएगा तो लड्डू बंटेंगे, है न मां?’’


बच्चियां पुलक रही थीं. ‘भाई’ शब्द तनु को कहीं गहरे तक बेध गया. कमोबेश सबकुछ तो है उस के पास. छोटा सा घर, प्यार करने वाला सुदर्शन पति, सुंदरप्यारी 2 बेटियां. परंतु नहीं है तो बस एक बेटा. बेटे की चाहत तनु के दिल में गहरे पैठी हुई थी. समय के साथ उस की जड़ें गहरी और मजबूत होती जा रही थीं. काश, एक पुत्र उसे भी होता. बेटे की मां का गौरव उसे भी प्राप्त होता.


प्रत्येक दंपती को संतान की चाहत रहती है पर बेटे की चाहत कुछ ज्यादा ही होती है. तनु भी इस का अपवाद नहीं थी.


‘‘नहीं खाना लड्डू. फेंको,’’ बेटियों के हाथ से लड्डू छीनती अपने ही संकुचित विचारों के दायरे में कैद तनु जोर से चीखी.


बच्चियां सहम गईं. आंखों में आंसू आ गए. बच्चियां अपना अपराध सम झ नहीं पाईं. चुपचाप सिसकती रहीं. रो तो तनु भी रही थी. मालू, शालू तो डांट के कारण रो रही थीं. तनु के रोने का क्या कारण हो सकता है? पड़ोसिन के घर बेटे के जन्म पर ईर्ष्याजनित पीड़ा. स्वयं को पुत्र न होने का दुख और इस संबंध में कुछ कर न पाने की विवशता.


शाम को अतुल दफ्तर से आए तो अति प्रसन्न थे. उन के हाथ में मिठाई का डब्बा था.


‘‘तनु, मैं मामा बन गया और तुम मामी. रैना के बेटा हुआ है. लो, मुंह मीठा करो और पड़ोस में मिठाइयां बांटो,’’ अतुल खुशी से चिल्लाया.


‘‘क्या, बेटा हुआ है?’’ तनु चौंक उठी.


‘‘क्यों, तुम्हें विश्वास नहीं होता? लो, तार पढ़ो,’’ कहते हुए हाथ का पुर्जा पत्नी की ओर बढ़ा दिया.


तनु अनमनी हो उठी.


‘‘हां, सभी के यहां बेटा हो रहा है. दुखिया तो हम ही हैं. बेटे का मुंह देखने के लिए तरस रहे हैं,’’ तनु की ठंडी आवाज सुन अतुल आश्चर्यचकित रह गया.


‘‘ऐसा, क्यों कहती हो? हमारी


मालू, शालू ही हमारे लिए बेटे से कम नहीं हैं. बेटेबेटी में अंतर तुम कब से करने लगीं?’’


‘‘हां, तुम्हें क्या? सुनना तो मुझे पड़ता है,’’ तनु अपना दुखड़ा रोने लगी.


तनु के इस बेमौके फसाद पर अतुल का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. दफ्तर की थकान अतुल पर हावी होने लगी. खुशी के अवसर पर तनु को यह क्या हो गया? कैसी कुंठा पाले है वह अपने मन में? जो वस्तु अपने हाथ में न हो, उस के लिए सिर धुनने से क्या लाभ? देवीदेवता,  झाड़फूंक और इस तरह के ढोंग, आडंबरों पर अतुल को जरा भी आस्था नहीं. उस का मन कड़वा हो उठा.


बेटे की चाहत में तनु अपनी सुधबुध खो बैठी. बातबात पर पति से ठनने लगी. सदा हंसनेमुसकराने वाला अतुल अब कुछ  झुं झलाया सा रहने लगा.


तनु, जो सुघड़ गृहिणी, ममतामयी जननी और भावुक पत्नी थी, बड़ी उदास रहने लगी. बेवजह बच्चियों को पीट देना, पति से  झगड़ पड़ना, छोटीछोटी बातों पर चिढ़ जाना, राई को पर्वत बना कर रोनाधोना उस की दिनचर्या में शामिल हो गया.


घरगृहस्थी की लहलहाती बगिया तहसनहस होने लगी. हंसताखेलता परिवार एक तनाव में जीने लगा. तनु नीमहकीमों और पाखंडी ओ झाओं के घरों के चक्कर लगाने लगी. तनु का ध्यान घरगृहस्थी से बिलकुल उचट गया. सोचती, ‘बिना बेटे की मां की जिंदगी भी कोई माने रखती है?’


जब भी कोई पूछता, ‘आप की 2 बेटियां ही हैं?’ तो वह उबल पड़ती. पूछने वाले को उलटासीधा सुना देती. अतुल भौचक्का था. इस विकट परिस्थिति में तनु को सामान्य बनाने के लिए वह क्या करे, उस की कुछ सम झ में नहीं आता था. तनु के अवचेतन मन में जो बेटे की चाहत थी, वह अब पल्लवितपुष्पित हो कर बाहर की ओर फैलने लगी थी. किसी के घर पुत्र के जन्म की खबर पा कर तनु उत्तेजित हो उठती. सारे घर में कुहराम मचा देती. इस के विपरीत किसी के घर पुत्री के जन्म की खबर पर एक व्यंग्यात्मक मुसकान उस के होंठों पर छा जाती. शायद उस खबर से उसे संतुष्टि मिलती थी.


अतुल उसे किसी मनोचिकित्सक से मिलाना चाहता था परंतु वह तैयार न होती. उलटे, पति से  झगड़ा करने लगती. बेटे की चाहत ने एक मनोरोग का रूप ले लिया.


पुत्रप्राप्ति की ललक ने तनु को तरहतरह के अंधविश्वासों के चक्कर में डाल दिया. पाखंडियों के कहने पर वह आएदिन उपवास भी करने लगी. उस का स्वास्थ्य चौपट होने लगा. जो पैसा और श्रम घरगृहस्थी में लगना चाहिए था वह  झाड़फूंक करने वालों की भेंट चढ़ने लगा. पुत्ररत्न की प्राप्ति का नुसखा जहां से भी प्राप्त होने की उम्मीद होती, तनु वहां दौड़ पड़ती. लोग उस की इस दीवानगी पर हंसते, पड़ोसिनें पीठ पीछे उस का मजाक उड़ातीं.


तनु को किसी की परवा नहीं थी. उस के जीवन का एकमात्र लक्ष्य था एक बेटे की प्राप्ति. फूल की तरह 2 बेटियों की पूरी जिम्मेदारी तनु पर थी. उसे भुला कर वह बेटा पाने की उम्मीद में तरहतरह के पाखंडों में उल झ गई.


फलस्वरूप बेटियों का स्वास्थ्य गिरने लगा. पढ़ाई में वे पिछड़ने लगीं. पूरा परिवार हीनभावना का शिकार हो उठा. अतुल हैरान हो सोचता, ‘यह कैसी मनोग्रंथि पाल रखी है तनु ने? एक बेटे की चाहत में बेटियों की फौज खड़ी करना कहां की सम झदारी है? इस महंगाई के जमाने में जहां जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुकी है, ज्यादा संतान पैदा करना नैतिकता के विरुद्ध है, दूसरों के मुंह की रोटी छीनने समान है, दूसरों का हक मारना है. छोटा परिवार, सुखी परिवार.’


‘‘हम मालू, शालू की ही उचित परवरिश करें. वे ही बुढ़ापे में हमारी देखभाल करेंगी.’’


‘‘बेटियों के शादीब्याह नहीं करोगे? सिर्फ उन की कमाई खाने का इरादा है?’’ तनु का तीखा उत्तर पा अतुल सम झाने का प्रयत्न करता, ‘‘कमाई तो हम किसी की नहीं खाएंगे. इस बदलते युग में जहां प्रत्येक क्षण जीवनमूल्य परिवर्तित हो रहे हों, किसी का भी आसरा करना अदूरदर्शिता है. रही बेटियों की शादी के बाद की बात, तो समय आने पर उस का भी हल हो जाएगा. वृद्ध होने पर पास की पूंजी काम आएगी और फिर हमतुम एकसाथ रहेंगे ही,’’ और फिर ठहाका लगा कर अतुल वातावरण को सहज करने की कोशिश करता.


क्षणभर के लिए स्मित मुसकान तनु के नाजुक होंठों पर भी छिटकती परंतु अगले ही पल गायब भी हो जाती.


दिन, सप्ताह, महीने बीतने लगे. शहर के दूसरे छोर पर एक पाखंडी महात्मा पधारे थे. जोरशोर से उन का प्रचार हो रहा था. व्यक्तियों की अधूरी मनोकामनाओं को पूरी करने वाले कल्पतरु कहे जा रहे थे वे. उन की शरण में जो भी जाता, मनवांछित फल पा जाता था. भला, ऐसे चमत्कारी महात्मा की खबर तनु के कानों तक कैसे न पहुंचती. तनु की मानसिकता वाले अंधभक्तों के बल पर ही तो पाखंडियों की दुनिया रोशन होती है.


मालू, शालू को स्कूल और अतुल को दफ्तर भेज तनु रिकशे से महात्मा के पास जा रही थी कि रास्ते में अचानक उस की भेंट अपनी स्कूल की एक सहपाठिन से हो गई.


‘‘सरला, तू यहां?’’


‘‘अरे तनु…’’ कह कर दोनों गले मिलीं, ‘‘हां, मेरे पति का तबादला इसी शहर में हुआ है. हम दोनों एक ही दफ्तर में कार्यरत हैं.’’


दोनों पुरानी सहेलियां साथ बिताए कटुमधु प्रसंगों को याद कर पुलकित होने लगीं.


‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ सरला ने पूछा, ‘‘आज मेरी छुट्टी है. यहीं पास ही रहती हूं, चलो न मेरे घर.’’


तनु इनकार न कर सकी. सरला तनु को अपने घर ले गई. तनु भूल गई कि उसे किसी महात्मा के पास जाना है.


घर खूब साफसुथरा, सजासंवरा था. तनु को अपना बिखरा घर याद आया. अंदर कुरसी पर बैठी सरला की मां मटर की फलियां छील रही थीं, ‘‘अरे चाचीजी? आप भी यहीं हैं? नमस्ते,’’ तनु हाथ जोड़े वृद्धा की  झुर्रियों का युवावस्था के रूप में सामंजस्य बैठाने लगी.


खानापीना और बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था.


‘‘मां तुम्हारे साथ ही रहती हैं?’’ एकांत पा कर तनु फुसफुसाई, ‘‘तुम्हारे तो 5 भाई थे न?’’


‘‘हां, थे क्या, हैं. 5 भाइयों की मैं अकेली बहन हूं. लेकिन तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा कि मां की देखभाल सही ढंग से करने के लिए कोई बेटाबहू तैयार नहीं हुए. मां की बढ़ती उम्र और लाचारी से द्रवित हो मैं उन्हें अपने पास ले आई. उन की जिंदगी के जो 2-4 वर्ष बाकी हैं, कम से कम आराम से तो कटें?’’


‘‘तुम्हारे पति इस का विरोध नहीं करते? मां बेटी के यहां रह लेती हैं?’’ रूढि़वादी मानसिकता वाली तनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.


‘‘मैं स्वयं कमाती हूं. इसलिए पति क्यों विरोध करेंगे? और मु झे पढ़ालिखा कर इस योग्य मेरी मां ही ने तो बनाया है. तुम्हें शायद पता नहीं कि पिता की मृत्यु के बाद भाइयों ने मेरी पढ़ाई का कितना विरोध किया था. परंतु दूरदर्शी व दृढ़निश्चयी मेरी मां ने कभी भी बेटी होने का अनुचित दंड मु झे नहीं दिया. जहां तक मां का बेटी के घर रहने का सवाल है तो वृद्ध, शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति को क्या चाहिए? उचित देखभाल, सेवा और प्यारभरे दो मीठे बोल. वह चाहे बेटाबहू दें या फिर बेटीदामाद. बदलती दुनिया में जहां बेटाबहू मांबाप को अवांछित बो झ सम झने लगते हैं, बेटी का मृदु स्पर्श, प्यारभरा आश्वासन उन्हें नया जीवन देता है.


‘‘अब देखो न, मेरी 3 बेटियां हैं, तीनों को मैं ने पढ़ाई के अतिरिक्त हर तरह की शिक्षा देने का निश्चय किया है. जब वे स्वयं सक्षम होंगी तभी तो जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सहजता से मुकाबला कर सकेंगी. वे किसी की आश्रित न रहेंगी तभी तो किसी का सहारा बन सकती हैं. अब वे दिन लद गए जब बेटियों को बेटों से अयोग्य सम झा जाता था. आंखें खोल कर देखो, दुनिया में कौन सा कार्यक्षेत्र है जो लड़कियों की पहुंच से बाहर है?’’


‘‘पर एक बेटा तो होना ही चािहए,’’ तनु की दलील में पहले वाली तुर्शी नहीं थी.


‘‘होना क्यों नहीं चाहिए पर ऐसा तो नहीं कि पुत्र की चाह में बेटियों की संख्या बढ़ाई जाए और उन्हें तुच्छ सम झा जाए. क्या अपनी किसी संतान को मात्र इसलिए प्रताडि़त व निरुत्साहित किया जाए क्योंकि वह बेटी है. जिस बेटी के अभिभावक बाल्यावस्था में ही उस का मनोबल तोड़ देते हैं वही बेटी वयस्क होने पर अंधविश्वासी, कुंठित, डरपोक और बातबात पर पलायन करने वाली साबित होती है. खैर छोड़ो, तुम सुनाओ, तुम्हारी गृहस्थी कैसी चल रही है? कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’ सरला ने तनु से पूछा.


यही प्रश्न तनु की दुखती रग थी. परंतु इस प्रश्न से आज वह आहत नहीं हुई. बेटे और बेटी का बड़ा ही सहज और स्पष्ट चित्रण सरला ने किया था. तनु की आंखों पर छाई धुंध धीरेधीरे छंटने लगी.


उस के पति भी तो 4 भाई हैं. मगर वृद्ध सासससुर की सेवा करने के लिए कोई दंपती हृदय से तैयार नहीं. पुत्र और पुत्रवधुओं की उदासीनता का ही परिणाम है कि वे आज अपनी बेटी के यहां पड़े हुए हैं. कैसा बेटा? कैसी बेटी? संतान को जैसी शिक्षा देंगे उस की मनोवृत्ति वैसी ही होगी.


अपनी बेटियों की कितनी उपेक्षा कर रही है तनु और अजन्मे बेटे के लिए चिंतित है. किंतु उस बेटे की मां बनने वाली बेटी की ऐसी अवहेलना? उस का सोया कर्तव्य जाग उठा. मृगमरीचिका के पीछे भागने वालों को आखिरकार निराश ही होना पड़ता है. पति व बेटियों के प्रति अपनी उदासीनता याद कर वह सिहर उठी. अब बेटे की चाहत समूल नष्ट हो चुकी थी.


‘‘अरे, 3 बज गए? मेरी भी 2 प्यारीप्यारी बेटियां हैं. स्कूल से आती ही होंगी.’’


इतने दिनों से रुका वात्सल्य बेटियों पर लुटाने के लिए तनु व्यग्र हो उठी. अतुल का मनपसंद नाश्ता भी बनाना है, इसलिए बगैर विदा की औपचारिकता पूरी किए वह घर के लिए दौड़ पड़ी.


तनु की भावनाओं से अनजान सरला अपनी सहेली के उतावलेपन को ठगी सी देखती रही.

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