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कहानी: एकाधिकार

बचपन से अनाथ ससुराल में भरेपूरे परिवार में पति के प्यार की संपूर्ण अधिकारिणी होने पर भी क्यों मोहिनी के हृदय का एक कोना सामाजिक बंधनों से परे नितांत खाली.

मोहिनी को लगने लगा था, उस के घर की छत पर टंगा यह आसमान का टुकड़ा केवल उसी की धरोहर है. बचपन से ले कर आज तक वह उस के साथ अपना सुखदुख बांटती आई है. गुडि़यों से खेलना बंद कर जब वह कालेज की किताबों तक पहुंची तो यह आसमान का टुकड़ा उस के साथसाथ चलता रहा. फिर जब चाचाचाची ने उस का हाथ किसी अजनबी के हाथ में थमा कर उसे विदा कर दिया, तब भी यह आसमान का नन्हा टुकड़ा चोरीचोरी उस के साथ चला आया. तब मोहिनी को लगा कि वह ससुराल अकेली नहीं आई, कोई है उस के साथ. उस भरेपूरे परिवार में पति के प्यार की संपूर्ण अधिकारिणी होने पर भी उस के हृदय का कोई कोना इन सारे सामाजिक बंधनों से परे नितांत खाली था और उसे वह अपनी कल्पना के रंगों से इच्छानुसार सजाती रहती थी.


मोहिनी के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. मां की तो उसे याद भी न थी. हां, पिता की कोई धुंधली सी आकृति उस के अवचेतन मन पर कभीकभी उभरती थी. किसी जमाने के पुराने रईसों का उन का परिवार था, जिस में बड़े चाचा के बच्चों के साथ पलती, बढ़ती मोहिनी को यों तो कोई अभाव न था किंतु जब कभी कोई रिश्तेदार उसे ‘बेचारी’ कह कर प्यार करने का उपक्रम करता तो वह छिटक कर दूर जा खड़ी होती और सोचती, ‘वह ‘बेचारी’ क्यों है? बिंदु व मीनू को तो कोई बेचारी नहीं कहता.’ एक दिन उस ने बड़े चाचा के सम्मुख आखिर अपना प्रश्न रख दिया, ‘पिताजी, मैं बेचारी क्यों हूं?’ इस अचानक किए गए भोले प्रश्न पर श्यामलाल अपनी छोटी सी मासूम भतीजी का मुंह ताकते रह गए. उन्होंने उसे पास खींच कर अपने से चिपटा लिया. अपने छोटे भाई की याद में उन की आंखें भर आई थीं, जिस से वे बेहद प्यार करते थे. उस की एकमात्र बेटी को उस की अमानत मान कर भरसक लाड़प्यार से पाल रहे थे.


यों तो चाची भी स्नेहमयी महिला थीं, किंतु जब वे अपनी दोनों बेटियों को अगलबगल लिटा कर अपने साथ सुलातीं तो दूर खड़ी मोहिनी उदास आंखों से उन का मुंह देखती, उस पर आतेजाते रिश्तेदार मोहिनी के मुंह पर ही कह जाते, ‘अभी तो इस का बोझा भी उतारना होगा, बिन मांबाप की बेटी ब्याहना आसान है क्या?’ और टुकुरटुकुर ताकती वह उन रिश्तेदारों के पास भी न फटकती. अपनी किताबें समेट कर मोहिनी छत पर जा बैठती. नन्हीमुन्नी प्यारीप्यारी कविताएं लिखती, चित्र बनाती, जिन में बादलों के पीछे छिपे उस के बाबूजी और मां उसे प्यार से देख रहे होते. इस तरह अपनी कल्पनाओं के जाल में उलझी, सिमटी मोहिनी बड़ी होती रही. वह अधिक सुंदर तो न थी किंतु उस के भोलेपन का आकर्षण अनायास ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था. बड़ीबड़ी आंखों में मानो सागर लहराता था. फिर एक दिन श्यामलाल के पुराने मित्र लाला हरदयाल ने अपने छोटे भाई के लिए मोहिनी को मांग ही लिया. यों तो शहर में लाला हरदयाल की गिनती भी पुराने रईसों में होती थी, किंतु अब वह सब शानोशौकत समाप्त हो चुकी थी.


उन का काफी बड़ा परिवार था. 5 छोटे भाई थे, जिन में से 2 अभी पढ़ ही रहे थे. मां थीं, अपनी पत्नी और 3 बच्चे थे. पिता का निधन हुए काफी समय हो चुका था और नरेंद्र के साथ मिल कर वे इस सारे परिवार के खर्चे का इंतजाम करते थे. नरेंद्र सभी भाइयों में सब से सीधा और आज्ञाकारी था. लाला हरदयाल उस के लिए किसी ऐसी लड़की को घर में लाना चाहते थे जो उन के परिवार के इस संगठन को बिखरने न दे. हरदयाल की पत्नी और मां में बनती न थी. काफी समय से वे किसी ऐसी सुलझी हुई, पढ़ीलिखी लड़की की तलाश में थे जो उन के घर के इस दमघोंटू वातावरण को बदल सके. श्यामलाल के यहां आतेजाते वे मोहिनी को अपने छोटे भाई नरेंद्र के लिए पसंद कर बैठे. श्यामलाल ने नरेंद्र को बचपन से देखा था, बेहद सीधा लड़का था, या यों कहिए कि कुछ हद तक दब्बू भी था. किंतु उस की नौकरी अच्छी थी. मोहिनी को उस घर में कोई कष्ट न होगा, यह श्यामलाल जानते थे. सो, पत्नी से पूछ उन्होंने विवाह के लिए हां कर दी. मोहिनी से पूछने की या उसे नरेंद्र से मिलवाने की आवश्यकता नहीं समझी गई, क्योंकि उस परिवार में ऐसी परंपरा ही न थी. बिंदु और मीनू के विवाह में भी उन की सहमति नहीं ली गई थी. मोहिनी और नरेंद्र का विवाह अत्यंत सीधेसादे ढंग से संपन्न हो गया. घर के दरवाजे पर बरात पहुंचते ही शोर मच गया, ‘‘बहू आ गई…बहू आ गई.’’


चाय का प्याला थाम कर उस ने धीरे से सिर उठा कर उन सभी लड़कियों की ओर देखा, जिन के भोले चेहरों पर अपनत्व झलक रहा था किंतु आंखें शरारत से बाज नहीं आ रही थीं.

‘‘मांजी कहां हैं, भाभी?’’ पहली बार मोहिनी ने नरेंद्र के मुंह से कोई बात सुनी.


‘‘वे अंदर कमरे में हैं, अभी आएंगी. तुम दोनों थोड़ा सुस्ता लो. मैं चाय भेजती हूं,’’ और जेठानी चली गईं. थोड़ी ही देर में चाय की ट्रे उठाए 3-4 लड़कियों ने अंदर आ कर मोहिनी को घेर लिया. शीघ्र ही 2-3 लड़कियां और भी आ गईं. किसी के हाथ में नमकीन की प्लेट थी तो किसी के हाथ में मिठाई की. नई बहू को सब से पहले देखने का चाव सभी को था. नरेंद्र इस शैतानमंडली को देख कर घबरा गया. वह चाय का प्याला हाथ में थामे बाहर खिसक लिया.


‘‘भाभी, हमारे भैया कैसे लगे?’’ एक लड़की ने पूछा.


‘‘भाभी, तुम्हें गाना आता है?’’ दूसरी बोली.


‘‘अरे भाभी, हम सब तो नरेंद्र भैया से छोटी हैं, हम से क्यों शरमाती हो?’’ और भी इसी तरह के न जाने कितने सवाल वे करती जा रही थीं.


मोहिनी इन सवालों की बौछार से घबरा उठी. फिर सोचने लगी, ‘नरेंद्र की मांजी कहां हैं? क्या वे उस से मिलेंगी नहीं?’


चाय का प्याला थाम कर उस ने धीरे से सिर उठा कर उन सभी लड़कियों की ओर देखा, जिन के भोले चेहरों पर अपनत्व झलक रहा था किंतु आंखें शरारत से बाज नहीं आ रही थीं. मोहिनी कुछ सहज हुई और आखिर पूछ ही बैठी, ‘‘मांजी कहां हैं?’’


‘‘कौन, चाची? अरे, वे तो अभी तुम्हारे पास नहीं आएंगी. शगुन के सारे काम तो बड़ी भाभी ही करेंगी.’’ मोहिनी कुछ ठीक से समझ न पाई, इसलिए चुप ही रही. चुपचाप चाय पीती वह सोच रही थी, क्या वह अंदर जा कर मांजी से नहीं मिल सकती.


तभी जेठानी अंदर आ गईं, ‘‘चलो मोहिनी, मांजी के पांव छू लो.’’ मोहिनी उठ खड़ी हुई. सास के पास पहुंच कर उस ने बड़ी श्रद्धा से झुक कर उन के पांव छुए और इस इंतजार में झुकी रही कि अभी वे उसे खींच कर अपने हृदय से लगा लेंगी, किंतु ऐसा कुछ भी न हुआ.


‘‘सदा सुखी रहो,’’ कहते हुए उन्होंने उस के सिर पर हाथ रख दिया और वहां से चली गईं.


ममता की प्यासी मोहिनी को ऐसा लगा जैसे उस के सामने से प्यार का ठंडा अमृत कलश ही हटा लिया गया हो. फूलों से सजे कमरे में रात्रि के समय नरेंद्र व मोहिनी अकेले थे. यों तो नरेंद्र स्वभाव से ही शर्मीला था, किंतु उस रात वह भी सूरमा बन बैठा. हिचकिचाती, अपनेआप में सिमटी मोहिनी को उस ने जबरन अपनी बांहों में समेट लिया. जीवनभर के विश्वासों की नींव शायद इसी परस्पर निकटता की आधारशिला पर टिकी होती है. इसीलिए सुबह होतेहोते दोनों आपस में इस तरह घुलमिल कर बातें कर रहे थे मानो वर्षों से एकदूसरे को जानते हों. मोहिनी नरेंद्र के मन को भा गई थी. दसरे दिन सुबह सभी मेहमान जाने को हो रहे थे. रसोई में नाश्ते की व्यवस्था हो रही थी. शायद उसे भी काम में हाथ बंटाना चाहिए, यही सोच कर मोहिनी भी रसोई के दरवाजे पर जा खड़ी हुई. जेठानी प्यालों में चाय छान रही थीं और मां पूरियां उतार रही थीं.


मोहिनी ने धीरे से चकला अपनी ओर खिसका कर सास के हाथ से बेलन ले लिया और ‘मैं बेलती हूं, मांजी’ कह कर पूरियां बेलने लगी. उस की बेली 4-6 पूरियां उतारने के बाद ही सास धीरे से बोल उठीं, ‘‘नरेंद्र की बहू, पूरियां मोटी हो रही हैं…रहने दो, मैं ही कर लूंगी.’’ मोहिनी सहम कर बाहर आ गई. रात को मोहिनी ने नरेंद्र के कंधे पर सिर टिका कर 2 दिन से अपने हृदय में मथ रहे प्रश्न को पूछ ही लिया, ‘‘मांजी मुझे पसंद नहीं करतीं क्या?’’


नरेंद्र इस बेतुके, किंतु बिना किसी बनावट के किए गए सीधे प्रश्न से चौंक उठा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’


‘‘मांजी मुझ से प्यार से बोलती नहीं, न ही मुझे अपने से चिपटा कर प्यार किया. भाभी ने तो प्यार किया लेकिन मांजी ने नहीं.’’


मोहिनी के दोनों हाथ थाम कर वह बोला, ‘‘मां को समझने में तुम्हें अभी कुछ समय लगेगा. वैधव्य के सूनेपन ने ही उन्हें रूखा बना दिया है, उस पर भाभी के साथ कुछ न कुछ खटपट चलती ही रहती है. इसी कारण मांजी अंतर्मुखी हो गई हैं. किसी से अधिक बोलती नहीं. कुछ दिन तुम्हारे साथ रह कर शायद वे बदल जाएं.’’


‘‘मैं पूरा यत्न करूंगी,’’ और अपनेआप में हलका महसूस करते हुए मोहिनी नरेंद्र से सट कर सो गई. दूसरे दिन सुबह नरेंद्र के बड़े भाई एवं भाभी भी बच्चों सहित लौट गए. नरेंद्र से छोटे दोनों भाई अपनीअपनी नौकरियों पर वापस चले गए थे और 2 सब से छोटे भाई, जो नरेंद्र के पास रह कर पढ़ाई करते थे, अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.


नरेंद्र ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. मोहिनी सोच रही थी कि शायद वे दोनों कहीं बाहर जाएंगे. किंतु नरेंद्र ने उस से बिना कुछ छिपाए अपने मन की बात उस के सामने रख दी, ‘‘मांजी और छोटे भाइयों को अकेला छोड़ कर हमारा घूमने जाना उचित नहीं.’’


मोहिनी खुशीखुशी पति की बात मान गई थी. उसे तो वैसे भी अपने दोनों छोटे देवर बहुत प्यारे लगते थे. मायके में बहनें तो थीं, लेकिन छोटे भाई नहीं. हृदय के किसी कोने में छिपा यह अभाव भी मानो पूरा होने को था. किंतु वे दोनों तो उस से इस कदर शरमाते थे कि दूरदूर से केवल देखते भर रहते थे. कभी मोहिनी से आंखें मिल जातीं तो शरमा कर मुंह छिपा लेते. तब मोहिनी हंस कर रह जाती और सोचती, ‘कभी तो उस से खुलेंगे.’ एक दिन मोहिनी को अवसर मिल ही गया. दोपहर का समय था. नरेंद्र किसी काम से बाहर गए हुए थे और मां पड़ोस में किसी से मिलने गई हुई थीं. अचानक दोनों देवर रमेश और सुरेश किताबें उठाए स्कूल से वापस आ गए.


‘‘मां, जल्दी से खाना दो, स्कूल में छुट्टी हो गई है. अब हम मैच खेलने जा रहे हैं.’’ किताबें पटक कर दोनों रसोई में आ धमके, किंतु वहां मां को न पा दोनों पलटे तो दरवाजे पर भाभी खड़ी थीं, हंसती, मुसकराती.


‘‘मैं खाना दे दूं?’’ मोहिनी ने हंस कर पूछा तो दोनों सकुचा कर बोले, ‘‘नहीं, मां ही दे देंगी, वे कहां गई हैं?’’


‘‘पड़ोस में किसी से मिलने गई हैं. उन्हें तो मालूम नहीं था कि आप दोनों आने वाले हैं. चलिए, मैं गरमगरम परांठे सेंक देती हूं.’’


मोहिनी ने रसोई में रखी छोटी सी मेज पर प्लेटें लगा दीं. सुबहसुबह जल्दी से सब यहीं इसी मेज पर खापी कर भागते थे. मोहिनी ने फ्रिज से सब्जी निकाल कर गरम की. कटा हुआ प्याज, हरीमिर्च, अचार सबकुछ मेज पर रखा. फ्रिज में दही दिखाई दिया तो उस का रायता भी बना दिया. ये सारी तैयारी देख रमेश व सुरेश कूद कर मेज के पास आ धमके. जल्दीजल्दी गरम परांठे उतार कर देती भाभी से खाना खातेखाते उन की अच्छीखासी दोस्ती भी हो गई. स्कूल के दोस्तों का हाल, मैच में किस की टीम अच्छी है, कौन सा टीचर अच्छा है, कौन नहीं आदि सब खबरें मोहिनी को मिल गईं. उस ने उन्हें अपने मायके के किस्से सुनाए. बिंदु और मीनू के साथ होने वाले छोटेमोटे झगड़े और फिर छत पर बैठ कर उस का कविताएं लिखना, सबकुछ सुरेश, रमेश को पता लग गया. ‘‘अरे वाह भाभी, तुम कविता लिखती हो? तब तो तुम हमें हिंदी भी पढ़ा सकती हो?’’ सुरेश उत्साहित हो कर बोला.


‘‘हांहां, क्यों नहीं. अपनी किताबें मुझे दिखाना. हिंदी तो मेरा प्रिय विषय है. कालेज में तो…’’ और मोहिनी बोलतेबोलते सहसा रुक गई क्योंकि चेहरे पर अजीब सा भाव लिए मांजी दरवाजे के पास खड़ी थीं. मोहिनी से कुछ न कह वे अपने दोनों बेटों से बोलीं, ‘‘तुम दोनों मेरे आने तक रुक नहीं सकते थे.’’


रमेश और सुरेश को तो मानो सांप ही सूंघ गया. मां के चेहरे का यह कठोर भाव उन के लिए नया था. भाभी से खाना मांग कर उन्होंने क्या गलती कर दी है, समझ न सके. हाथ का कौर हाथ में ही पकड़े खामोश रह गए. पल दो पल तो मोहिनी भी चुप ही रही, फिर हौले से बोली, ‘‘ये दोनों तो आप ही को ढूंढ़ रहे थे. आप थीं नहीं तो मैं ने सोचा, मैं ही खिला दूं.’’


‘‘क्यों? क्या घर में फल, डबलरोटी… कुछ भी नहीं था जो परांठे सेंकने पड़े?’’ मां ने तल्खी से पूछा.


‘‘ऐसा नहीं है मांजी. मैं ने सोचा बच्चे हैं, जोर की भूख लगी होगी, इसलिए बना दिए.’’


‘‘तुम्हारे बच्चे तो नहीं हैं न? मैं खुद ही निबट लेती आ कर,’’ अत्यंत निर्ममतापूर्वक कही गई सास की यह बात मोहिनी को मानो अंदर तक चीर गई, ‘क्या रमेश, सुरेश उस के कुछ नहीं लगते? नरेंद्र के छोटे भाइयों को प्यार करने का क्या उसे कोई हक नहीं? उन पर केवल मां का ही एकाधिकार है क्या? फिर कल जब ये दोनों भी बड़े हो जाएंगे तो मांजी क्या करेंगी? विवाह तो इन के भी होंगे ही, फिर…?’


विचारों में उलझी मोहिनी के सामने सास का एक नया ही रूप उभर कर आया था. उसे लगा, व्यर्थ ही वह मांजी से अपने लिए प्यार की आशा लगाए बैठी थी. इन के प्यार का दायरा तो इतना सीमित, संकुचित है कि उस में उस के लिए जगह बन ही नहीं सकती और जैसेजैसे उन के बेटों के विवाह  होते जाएंगे, यह दायरा और भी सीमित होता जाएगा, इतना सीमित कि उस में अकेली मांजी ही बचेंगी. मोहिनी के मुंह में न जाने कैसी कड़वाहट सी घुल गई. उस का हृदय वितृष्णा से भर उठा. जीवन का एक नया ही पक्ष उस ने देखा था. शायद नरेंद्र भी 23 वर्षों में अपनी मां को इतना न जान पाए होंगे जितना इन कुछ पलों में मोहिनी जान गई. साथ ही, वह यह भी जान गई कि प्यार यदि बांटा न जाए तो कितना स्वार्थी हो सकता है. मोहिनी ने मन ही मन एक निश्चय किया कि वह प्यार को इन संकुचित सीमाओं में कैद नहीं करेगी. मांजी को बदलना ही होगा. प्यार के इस सुंदर कोमल रूप से उन्हें परिचित कराना ही होगा.


नरेंद्र के पीछे धीमेधीमे चलती मोहिनी की आंखें इधरउधर नरेंद्र की मां को खोज रही थीं, किंतु वे कहीं दिखाई न दीं. सारे नेग जेठानी ही पूरे करा रही थीं.

रमेश व सुरेश न जाने कब के अपने कमरों में जा दुबके थे और मांजी अपनी तीखी दृष्टि के पैने चुभते बाणों से मोहिनी का हृदय छलनी कर अपने कमरे में जा बैठी थीं. एक अजीब सा तनाव पूरे घर में छा गया था. मोहिनी की आंखें छलछला आईं. उसे याद आया अपना मायका, जहां वह किसी पक्षी की भांति स्वतंत्र थी, जहां उस का अपना आसमान था, जिस के साथ अपने छोटेमोटे सुखदुख बांट कर हलकी हो जाती थी. मोहिनी को लगा, अब भी उस के साथसाथ चल कर आया आसमान का वह नन्हा टुकड़ा उस का साथी है, जो उसे हाथ हिलाहिला कर ऊपर बुला रहा है. वह नरेंद्र की अलमारी में कुछ ढूंढ़ने लगी. एक सादी कौपी और पैन उसे मिल ही गया. जल्दीजल्दी धूलभरी सीढि़यां चढ़ती हुई वह छत पर जा पहुंची. कैसी शांति थी वहां, मानो किसी घुटनभरी कैद से मुक्ति मिली हो. मन किसी पक्षी की भांति बहती हवा के साथ उड़ने लगा. धूप छत से अभीअभी गई थी. पूरा माहौल गुनगुना सा था. वहीं जीने की दीवार से पीठ टिका कर मोहिनी बैठ गई और कौपी खोल कर कोई प्यारी सी कविता लिखने की कोशिश करने लगी.


‘‘अरे, शरबत का गिलास तो लाओ,’’ नरेंद्र की भाभी आगे बढ़ आईं और गाड़ी से पांव नीचे रखती मोहिनी को हाथ के इशारे से रोक दिया. वे धीरे से बोलीं, ‘‘अभी रुको, शरबत का घूंट पी कर उतरना.’’


मोहिनी का जी घबरा रहा था. 2-3 दिन शादी की गहमागहमी में काफी थक गई थी, प्यास भी बड़ी जोर से लगी थी. जेठानी ने शरबत का गिलास मुंह से लगाया तो पीती ही गई. गाड़ी से उतार कर मोहिनी और नरेंद्र को अंदर लाया गया. नरेंद्र के पीछे धीमेधीमे चलती मोहिनी की आंखें इधरउधर नरेंद्र की मां को खोज रही थीं, किंतु वे कहीं दिखाई न दीं. सारे नेग जेठानी ही पूरे करा रही थीं. मोहिनी का घूंघट उठा, हंसते हुए वे नरेंद्र से बोलीं, ‘‘लो, अब ठीक से देख लो और चंद बातें भी कर लो. फिर रात तक फुरसत नहीं मिलेगी. मैं चलती हूं, जरा बाहर का भी देखना है.’’

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