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कहानी: कुछ तो लोग कहेंगे

दुनियावालों की परवा किए बगैर, जातिवाद के खिलाफ, अतुल और दिव्या का विवाह हुआ था. कितने खुश थे वे दोनों. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. एक आंधी आई और सबकुछ उड़ा ले गई.

उन्हें भरती किए हुए 18 घंटे हो चुके थे. पर सुधार की अभी कोई सूचना नहीं आई थी. जब अतुल का घर में फोन आया था तब वे होशहवास में थे. गंभीर दुर्घटना की बात कह रहे थे. याचनाभरे शब्दों में बोल रहे थे, ‘मुझे बचा लो. मैं मरना नहीं चाहता. मैं मसूरी से करीब 17 मिलोमीटर दूर देहरादून वाली रोड पर बड़े मोड़ पर पड़ा हूं. मेरे साथी गजेंद्र बाबू मर चुके हैं. किसी जीप ने हमारी बाइक को टक्कर मार दी. लोग आजा रहे हैं, पर हमें कोई उठा नहीं रहा है. मेरा खून बहुत बह चुका है. शायद मैं बच न सकूं. दिव्या का खयाल रखना.’ फिर फोन बंद हो गया था. शायद अतुल बेहोश हो गए थे.


शहर के एक बड़े अस्पताल जीवनदायिनी हौस्पिटल में भारी उम्मीदों के साथ मेरे ससुर दिगंबरजी ने अतुल को अस्पताल में भरती कराया था. वे रोड के बीच में बेसुध अवस्था में पड़े थे. गाड़ी का एक पहिया उन की जांघ के बीचोंबीच से निकल गया था. हाथपैरों में कई जगह फै्रक्चर थे. हैलमेट के कारण सिर तो बच गया पर चेहरा बुरी तरह जख्मी था. पास ही गजेंद्र बाबू की लाश पड़ी थी. सिर फटा था. गुद्दी बाहर फैली थी. बाइक का भी कचूमर निकल गया था.


ये सब देखने की मुझ में हिम्मत ही कहां थी. यह तो साथ में गए मेरे देवर दिवाकर व गांववालों ने ही बतलाया था. मैं तो सासूमां और बिरादरी की अन्य औरतों के साथ अस्पताल सीधी पहुंची थी. वहीं सुना, गजेंद्र बाबू की बौडी को पोस्टमार्टम के लिए मौरचरी में ले जाया जा रहा था.


अस्पताल के वेटिंगरूम में तमाम ग्रामीण व रिश्तेदार जमा थे. वे आपस में चर्चा कर रहे थे. मेरे कान उन की बातें सुनने में लगे थे. व्याकुल दशा में मेरा दिल धकधक कर मुझे ही सुनाई दे रहा था. अपने तनमन को संतुलित करने का प्रयास कर रही थी. सासूमां का रुदन थम नहीं रहा था. आंसुओं की मानो बाढ़ आ गई थी. पड़ोसी महिलाएं उन्हें शांत करने का प्रयास कर रही थीं. मेरा ध्यान उन लड़कों की बातों में लगा था जो कुछ दूर धीमेधीमे बतिया रहे थे. मेरा चचेरा देवर बता रहा था, ‘यार, गाड़ी का पहिया उस के कमर व जांघ से हो कर निकल गया था. जिस का निशान साफ दिखाई पड़ रहा था. हम ने जायजा लिया था कि कितनी चोट लगी है. कमर व जांघ की हड्डी चूरचूर हो गई थी. हालत बड़ी गंभीर लगती है…’


मैं ने सुना तो जैसे मुझे बेहोशी सी छाने लगी. मेरे मुंह से घुटीघुटी चीख निकल पड़ी. औरतों ने सुना, वे मेरी ओर लपकीं. मुझे पास ही बिछी चटाई पर लिटा दिया गया. मेरी ननद तनुजा मुझे अखबार से पंखा झलने लगी, हालांकि अस्पताल के पंखे भी चल रहे थे. मैं कुछ देर बाद तनिक सामान्य हालत में आ गई थी. मैं घुटने सिकोड़ कर लेटी रही. औरतें धीरेधीरे फुसफुसा रही थीं. दूर से आदमियों की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं. कुछ ही क्षणों बाद कोई नर्स आईसीयू से बाहर आई. हमारे तीमारदारों ने उसे घेर लिया. हालात के बारे में पूछने लगे. ‘‘अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. डाक्टर लगातार देख रहे हैं,’’ कह कर वह तेजी से दूसरे वार्ड में चली गई.


अस्पताल वाले हमारे लोगों को आईसीयू में घुसने नहीं दे रहे थे. उन का कहना था कि घरवालों को देख कर मरीज को दिल का दौरा पड़ सकता है. अभी 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि एक वार्डबौय आईसीयू से बाहर निकला. उस की चाल में धीमापन था. चेहरे में हताशा की कालिमा पुती हुई थी. श्मशान सी उदासी. वह बिना इधरउधर देखे मंथर गति से बाहर की ओर बढ़ा जा रहा था. दोएक ने उसे रोक कर कुछ पूछना चाहा. पर वह रुका नहीं, चलता ही गया. चलतेचलते हाथ इस प्रकार हिला रहा था मानो कह रहा हो ‘मुझे पता नहीं.’ हाथ हिलाने से यह भी अर्थ निकलता था कि, ‘मुश्किल है.’ यह भी समझा जा सकता था कि ‘अब कुछ नहीं बचा.’


लगभग सभी नजरें उसी पर थीं. उस के हाथ हिलाने का सब मन ही मन अपनेअपने ढंग से अर्थ निकाल रहे थे. दिवाकर ने मेरी ओर देखा. आंखों में प्रश्नचिह्न थे. मैं ने इशारे से वार्डबौय का पीछा करने को कहा. वे समझ गए और धीरेधीरे अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा दिए. जब लौटे तो मुरझाए हुए थे. डूबते कदमों से मेरे पास आए और बोले, ‘‘मांजी ने कहा है अपनी भाभी को घर पर पहुंचा आ. चलो, घर चलते हैं.’’ वे नजर उठा कर मेरी ओर नहीं देख रहे थे. मैं सशंकित होते हुए उठी, पूछा, ‘‘क्या कहा उस ने?’’


‘‘2-4 घंटे बाद डाक्टर ही बतलाएंगे,’’ दिवाकर ने फिर मांजी से कहा, ‘‘मैं भाभी को घर पहुंचाने जा रहा हूं.’’ मांजी ने सहमति में सिर हिलाया.


मुझे लगा किसी को भी मेरा यहां रुकना अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो यहां स्थिति नाजुक थी, दूसरा मैं गर्भवती थी. पांचवां महीना चल रहा था. ऐसे में मुझे वहां रोकना कौन पसंद करेगा. मैं घर चली आई. खाली घर भायभाय सा खाने को दौड़ रहा था. मैं ने पलंग पर सिरहाने रखे उन के स्वेटर को उठा लिया. पलंग पर गिर कर जोरजोर से रोने लगी. बड़े जतन से मैं ने उन का स्वेटर बुना था. जब पूर्ण होने को आया तो…? दिवाकर को मेरा रुदन बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन का खुद भी गला भर आया था. यह कह कर कि, ‘‘भाभी, अपना खयाल रखना. मैं अस्पताल जा रहा हूं.’’ और बिना पानी पिए ही वे लौट गए. कल रात्रि से परिवार वालों के गले में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था.


चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो...मेरा जीवन... नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो.

मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.


अपने घर का भी कुछ कामकाज निबटा कर नौकरानी फिर से हमारे मकान में आ गई. आवाज दे कर बोली, ‘‘बीबीजी, दूध पिया कि नहीं…?’’ दूध वैसे ही पड़ा देख कर दुखित मन से बोली, ‘‘बीबीजी, यह तो अच्छी बात नहीं. बच्चे को बचाने के लिए आप को कुछ न कुछ खानापीना तो होगा ही. बच्चा भूखा होगा.’’ उस ने जिद कर दूध का गिलास मुझे पकड़ा दिया. बोली, ‘‘बीबीजी, मालकिन को पता चलेगा कि हम ने आप को कुछ भी खानेपीने को नहीं दिया तो वे बहुत नाराज होंगी. हम क्या जवाब देंगे?’’ मैं ने ठंडा हो गया दूध पी लिया. वह ठीक ही कहती थी. बच्चे की खातिर मुझे कुछ न कुछ लेना ही था. वह पानी का जग और गिलास रख गई थी.


मैं तकिये को सीने में दबाए फिर लेट गई. मेरा ध्यान अस्पताल की ओर ही था. आशानिराशा के भंवर में मेरा मन डोल रहा था. कभीकभी ऐसा लगता जैसे आंधीतूफान के तेज झोंके में मेरी नौका बच न सकेगी, कईकई मीटर उछलती लहरों में सदा के लिए डूब जाएगी.


चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो…मेरा जीवन… नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो. मैं ने घुमड़ आए अपने आंसुओं को तकिये से पोंछा. जब मन कुछ हलका हुआ, स्मृतिपटल पर अतीत की सुखद यादें उभरने लगीं और कुछकुछ ऊहापोह में लिपटी भयभीत कर देने वाली यादें तड़प पैदा करने लगीं.


हमारा संगसाथ कालेज के दिनों से ही अठखेलियां खेलता चला आ रहा था. तब मैं इंटर फर्स्ट ईयर में थी और अतुल इंटर फाइनल में थे. हम पैदल ही कालेज आतेजाते थे. पर इधर कुछ महीनों से अनजाने में एकदूसरे का इंतजार करने लगे. सिलसिला चलता रहा. बोर्ड की परीक्षा आ गई. इंटर क्लास को फर्स्ट ईयर वालों ने विदाई दी. उस दिन हम दोनों ही उदास थे. हमें पता हीं नहीं चला कि हमें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया. वे इंटर पास हो कर बड़े कालेज जाने लगे थे. रास्ता मेरे घर के पास से ही जाता था. मैं इंतजार करती, वे मुसकरा कर आगे बढ़ जाते थे. कहते हैं इश्क, मुश्क, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते. कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. गांव के लड़केलड़कियों को कभी इस की भनक लग गई थी. पर ठाकुर दिंगबर से भी दुकान में किसी परिचित ने बात छेड़ दी. ठाकुर साहब को यकीन हुआ ही नहीं. बात टालते हुए सशंकित, भारी मन से वे घर लौट आए.


ठाकुर साहब बचपन से ही जातिवाद के कठोर हिमायती थे. उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों से कोई शिकायत नहीं थी. पर वे ब्राह्मणों से खार खाते थे. कभी किसी पंडित ने उन के सीधेसाधे पिता को ठगा था. एक पुरोहित ने शादी में दूसरे पक्ष के पुरोहित से मिल कर दोनों जजमानों की खूब लूटखसोट मचाई थी. ऐसी ही कई बातों के कारण उन के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत भर गई. हर कोई इस बात को जानता था कि ठाकुर साहब ब्राह्मणों के नाम से नाकभौं सिकोड़ते हैं. पर जब दुकानों, महफिलों में ठाकुर साहब के लड़के अतुल और सुखदानंदजी की लड़की दिव्या के प्रेमप्रसंग का जिक्र आता तो वे लोग मुंह दबा कर हंसते.


शाम के वक्त घर पहुंच कर ठाकुर साहब ने बाहर से ही अतुल को आवाज दे कर बाहर बुलाया. वे गुस्से में थे, दहाड़ कर बोले, ‘क्यों रे अतुवा, यह मैं क्या सुन रहा हूं. तू क्या ब्राह्मण सुखदिया की लड़की के चक्कर में पड़ा है?’ अतुल इस अकस्मात आक्रमण से सन्न रह गया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. ‘तुझे शरम नहीं आई एक ठाकुर हो कर ब्राह्मण की ही लड़की तुझे पसंद आई. कुछ तो शरम करता.’


अतुल अंदर अपने कमरे में चला गया. पापा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. अब वह यही कोशिश करता कि वह अपने पापा के सामने न आए.


कुछ समय बाद ठाकुर साहब ने उस का विवाह करने की सोची. दोएक जगहों से लड़कियों के फोटो भी उपलब्ध किए. अतुल की मां ने उसे फोटो दिखाते हुए शादी की बात की तो अतुल ने फोटो देखने से इनकार कर दिया. उस ने कह दिया, ‘मुझे शादी नहीं करनी है.’ इसी तरह समय निकलता गया. महीना व साल गुजर गया. अब हम दोनों का मिलनाजुलना तो कम हो गया पर दिल में आकर्षण बना रहा. मेरे पिताजी को भी मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उन्हें भी पता हो गया था हम दोनों के प्रेमप्रसंग का. उन्होंने मुझे डांट लगाई थी कि मैं आइंदा अतुल से न मिलूं. वे जानते थे कि ठाकुर साहब कट्टर ठाकुरवादी हैं. सो, शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. वे स्वयं तो सवर्ण में शादी करने के विरोधी नहीं थे. अपने बच्चों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे.


मैं ने ही अपनी मां से कहा, ‘मांजी, अगर अतुल कहीं और शादी कर लेते हैं तो तब मुझे कहीं भी शादी करने से कोई एतराज नहीं होगा. पर अभी मेरी शादी तय नहीं करें तो अच्छा होगा.’


अतीत की यादें घबराहट में ठहर गईं. मैं ने घड़ी की ओर देखा, रात्रि के 2 बज रहे थे. लेकिन अस्पताल से न कोई आया और न ही कोई खबर आई.

आखिर जब ठाकुर साहब को दोएक बार हार्टअटैक पड़े तो उन की पत्नी शिवानी ने चिंतित हो कर उन से आग्रह किया, ‘अब अपनी जिद छोड़ दो. लड़की मेरी देखीभाली है, ठीक है. अपनी जाति की जिद में लड़के को भी खो दोगे. वह उस से ही शादी करना चाहता है, अन्यथा कहीं नहीं करना चाहता. देखो, तुम हार्टपेशेंट हो, इस से तुम्हें और धक्का लगेगा. तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी? उस की बात मान लो.’


आखिर ठाकुर साहब मान गए. उन्होंने मेरे पिताजी को अपने घर बुलवाया. संयम व शालीनता के साथ हमारी बात सामने रख कर शादी का प्रस्ताव रखा. मेरे पिताजी एक निर्धन परिवार के किसान थे. उन्हें क्या आपत्ति थी? अच्छे माकूल घर में लड़की को देने में उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. शादी संपन्न हो गई. ठाकुर साहब ने महिला संगीत व प्रीतिभोज की पार्टी एकसाथ निबटा दी. कुछ दिन तक गांव तथा समाज में अच्छी व बुरी प्रतिक्रियाएं होती रहीं. फिर लोगों ने इसे भुला सा दिया. अब सब सामान्य सा हो गया. इधर, हमारा दांपत्य जीवन सुखकर बीत रहा था. घर के लोग मेरे अच्छे व्यवहार व काम से संतुष्ट थे. मुझे परिवार में ऐडजस्ट होने में अधिक समय नहीं लगा. शादी से पूर्व के विवाद पर न घर वाले बात करते और न हम.


अतुल एक मशहूर कंपनी में फील्ड का काम देखते थे. उन्हें अधिकांश दूरदराज जिलों में सामान की सप्लाई करना व खराब मशीनों की रिपेयरिंग करने का जिम्मा सौंपा गया था. इसी काम से उस दिन वे मसूरी से लौट रहे थे कि रास्ते में…


अतीत की यादें घबराहट में ठहर गईं. मैं ने घड़ी की ओर देखा, रात्रि के 2 बज रहे थे. लेकिन अस्पताल से न कोई आया और न ही कोई खबर आई.


कुरसी डाल कर मैं बरामदे में बैठ गई. बाहर से चैनलगेट बंद था. बिजली का प्रकाश दूरदूर तक फैला था.


तभी मुझे किसी बाइक की आवाज सुनाई दी. रात के सन्नाटे में यह आवाज डरावनी सी लग रही थी. मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. बाइक आ कर गेट पर रुक गई. बाइक से 2 लोग उतरे थे. वे उतर कर कुछ बातें कर रहे थे. उन की नजरें उस


सड़क को ताक रही थीं जिस से वे आए थे. शायद किसी का इंतजार था. वे रुके क्यों, सीधे घर क्यों नहीं आए, या कहीं उन की…?


मेरे मन में तरहतरह के विचार कौंधने लगे. मैं बरामदे में खड़ी हो गई. मैं ने चैनल जोर से जकड़ कर पकड़ लिया था. मेरे पैर कांप रहे थे. मुझे अस्पताल के उस वार्डबौय के हाथ के ऐक्शन का बारबार ध्यान आ जाता था. वह हथेली को नकारात्मक ढंग से हिलाता सुस्त चाल में चला जा रहा था. उस के हावभाव से मुझे लगा जैसे वह अपने असली होशहवास में नहीं था या उस ने कुछ गलत देखा था, जिस का प्रभाव उस के दिलोदिमाग में घूम रहा था.


मेरे विचारों की शृंखला फिर से तब टूटी जब मैं ने कुछ कारों और मोटरसाइकिलों की आवाजें सुनीं. उन का प्रकाश भी दूर सड़क तक फैल रहा था. कुछ ही क्षणों में तमाम कारें व मोटरसाइकिलें मुख्य रोड से लिंक रोड को मुड़ गईं. प्रांगण का गेट खुला था. वे सब कारें घर के प्रांगण में प्रवेश कर गईं. मैं ने बरामदे का चैनल खोल दिया था और जिज्ञासावश मैं बाहर आ गई. तभी कारों से महिलाएं व पुरुष बाहर निकले. महिलाओं की ओर से घुटीघुटी रोने की आवाजें आ रही थीं. ससुरजी ने भारी गले से आज्ञा दी, ‘‘अतुल को गाड़ी से बाहर निकालो.’’


सफेद कपड़े में लिपटी अतुल की बौडी को बाहर निकाल कर पोर्च के नीचे लिटा दिया गया. मैं ने देखा और पछाड़ खा कर बौडी पर गिर गई. औरतें भी जोरजोर से रोने लगीं. गांव वाले आवाज सुन कर आने लगे थे.


लोग चर्चा कर रहे थे, ‘वह तो उसी समय खत्म हो गया था जब नर्स और वार्डबौय बाहर आए थे. उस समय 6-7 बजे का समय रहा होगा. अस्पताल वालों ने एक दिन का मैडिकल बिल बढ़ाने के लिए बौडी को रोके रखा था.’


मेरा सबकुछ समाप्त हो गया. विधवा नारी का जीवन भी क्या जीवन होता है. वह अनूठा प्यार जिस की खातिर हम ने सालोंसाल संघर्ष किया. लोगों के ताने सुने. घर की फटकार सुनी. समाज में फैली जातिप्रथा का सामना किया. बड़ी मुश्किल से विजय हासिल की. पर यह हमारी विजय कहां थी, यह तो जीवन की भयानक हार साबित हुई. अब मेरा क्या होगा? इस पहाड़ से जीवन को कैसे ढो पाऊंगी? कितने प्यारे थे. सब के दुलारे थे. अब क्या होगा मेरा?


ठाकुर साहब का इलाके भर में मान था. सो, दाहसंस्कार तथा पीपलपानी में भारी संख्या में लोग उपस्थित थे. सब की सहानुभूति उन के परिवार के साथ थी. धीरेधीरे परिवार का दुख कम होता गया. पर मैं उन्हें कैसे भूल पाती. उन की निशानी दिनप्रतिदिन मेरे गर्भ में बढ़ती चली जा रही थी. आखिर एक दिन उन का प्रतिरूप कन्या बन कर इस धरातल पर उतर आया. घर में बच्ची के रुदन व किलकारी का स्वर सब को आनंदविभोर करने लगा. ऐसा लगा जैसे घर का सूनापन बच्ची की स्वरलहरी में कहीं बहने लगा हो. उदासी का घना बादल छंट रहा हो. बच्ची बहुत सुंदर थी. सो, वह सब के हाथोंहाथ रहती थी. खाली समय में दिवाकर ही उसे अपनी गोद में बैठा कर घुमाया करते थे.


दिवाकर नौकरी के लिए दिल्ली जाने की सोच रहे थे. पर घर में दुर्घटना के बाद ठाकुर साहब ने उन्हें नौकरी करने के लिए मना कर दिया. वे स्वयं भी बूढ़े हो चले थे. फिर बड़े लड़के के निधन ने उन की कमर ही तोड़ दी थी. सो, वे चाहते थे कि छोटा लड़का दिवाकर ही उन के सारे कामकाज को देखे.


घर में रहने और अधिकतर बच्ची को अपने साथ घुमाने से दिवाकर का लगाव मेरी ओर भी होने लगा. यह लगाव बच्ची के कारण था या मेरी टूट कर बिखर चुकी जिंदगी के प्रति दयाभाव का था. यह भी हो सकता है कि भरीपूरी जवानी का उन्माद पिघल कर मेरी ओर पसर रहा हो. ऐसा नहीं कि यह उन्माद का ज्वार मात्र दिवाकर की ओर से ही पनप रहा हो. स्वयं मुझे भी न जाने क्या होता जा रहा था कि मैं उन में अपने पति अतुल का प्रतिबिंब देख रही थी. उन का वही दबे पांव चलना, मुसकराना, अनोखी महक, स्पर्श करना मुझे, अतुल की ही भांति, मदहोश सा कर जाता था. कभीकभी मैं उन्हें अर्द्घचेतनावस्था में अतुल ही समझ बैठती थी. यही खिंचाव मुझे बेचैन कर जाता था. मैं कोशिश करती दिवाकर मेरे पास न आए. अगर घर वालों को उन की मंशा की भनक तनिक भी लग जाएगी तो अनर्थ हो जाएगा. पर वे बच्ची के बहाने बारबार मेरे पास आ जाते. मैं मना करती, पर वे मानते तब न.


मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न.

धीरेधीरे घर के भीतर फुसफुसाहट होने लगी. मम्मी ने पापाजी से कहा, ‘‘दिवाकर की शादी कर देनी चाहिए. अब वह सयाना हो गया है.’’


पापा ने कहा था,‘‘हां, तू ठीक कहती है. मैं बीमार रहने लगा हूं. जिंदगी का क्या भरोसा? पर बेरोजगार को एकदम लड़की कहां मिलती है? कोशिश करनी पड़ेगी.’’


इस कार्य में देरी होती गई. मम्मी बेचैन हो उठीं. एक दिन उन्होंने पापा से कह ही दिया, ‘‘तुम तो आंखें बंद किए रहते हो. घर में क्या हो रहा है, तुम्हें पता भी है?’’ आज मम्मी का मूड बहुत खराब था.


‘‘आखिर क्या हो रहा है हमें भी तो पता चले,’’ पापा ने जिज्ञासा से पूछा.


मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न. तभी तो मैं तुम से उस की जल्दी शादी कर देने की बात कह रही हूं.’’ मम्मी गुस्से में थीं.


‘‘अरे भई, भाभी है उस की, जाता है तो इस में बुराई क्या है?’’ पापा ने सामान्य ढंग से उत्तर दिया.


‘‘इतने में ही बात होती तो मैं तुम से क्यों कहती? वह तो बेशर्म उस की पलंग पर भी देरदेर तक बैठने लगा है. कल कुछ ऊंचनीच हो जाए तो हम मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे,’’ मम्मी खीझ कर बोली थीं.


‘‘ओह, यह तो अच्छी बात नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘एक बात बता, ये दोनों एकदूसरे को चाहते हैं?’’


‘‘जब चाहते होंगे तभी तो बेशर्मी की हद पार कर रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.


पापा कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘शिवानी, मैं तुम्हारी राय लेना चाहता हूं. अगर तुम ठीक समझा तो…?’’


‘‘हां, कहो, क्या कहना चाहते हो?’’


‘‘भई, अगर बात इतनी आगे बढ़ गई है तो क्यों न हम इन दोनों की शादी कर दें. बहू की जिंदगी भी संवर जाएगी और दिवाकर की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. घर की जायदाद भी बंटने से बची रहेगी,’’ पापा ने मम्मी से कह दिया.


‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? दिमाग तो ठीक है? अरे, दुनिया क्या कहेगी? एक तो पहले ही पंडित की लड़की ला कर खूब खिल्ली उड़ी थी, अब फिर…?’’ मम्मी तिक्त स्वर में बोलीं.


‘‘देख, तू पहले इन दोनों का मन टटोल ले. दिवाकर से कहना कि तेरे लिए तेरे पापा किसी लड़की वालों से बात कर रहे हैं. 2-4 दिन में खबर मिल जाएगी,’’ पापा ने राय दी.


‘‘अगर अतुल की तरह वह भी नहीं माने तो…?’’ मम्मी सशंकित बोलीं.


‘‘तब हमारे लिए लाचारी होगी. बहू अच्छी लड़की है. घर का घर में ही निबट जाए, तो ठीक ही है. जहां तक बाहर वालों की टीकाटिप्पणी की बात है, वह तो पहले भी हुई थी. फिर सब शांत हो गया. यहां भी लोग आलोचना करेंगे. फिर वे समय पर शांत हो जाएंगे,’’ पापा ने कहा था.


‘‘ठीक है, देखती हूं. क्या कहते हैं…?’’ मम्मी ने बुझे मन से कहा.


शाम को मम्मी ने दिवाकर से लड़की देखने की बात कही. दिवाकर ने अनमनाते हुए मना कर दिया. फिर मुझ से पूछा, ‘‘बहू, तू क्या चाहती है इस के लिए लड़की ढूंढ़ें?’’


मैं ने कह दिया, ‘‘इन से ही पूछो, ये क्या चाहते हैं?’’ फिर मम्मी सीधे असली बात पर आ गईं. दोनों को आमनेसामने बुला कर बोलीं, ‘‘क्या तुम दोनों एकदूसरे को चाहते हो? हां या न में उत्तर दो. वरना पापा अभी लड़की वालों से बात करने वाले हैं.’’ मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर दिवाकर ने ‘हां’ में जवाब दिया.


‘‘तो तुम दोनों शादी के लिए तैयार हो? हां या न में जवाब दो,’’ मम्मी का मूड खराब हो चला था.


कुछ देर मौन रहने के बाद दिवाकर बोले, ‘‘हां, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं.’’


‘‘और बहू तुम…?’’


‘‘मम्मीजी, दिवाकर जैसा चाहेंगे, मैं उन के साथ हूं,’’ मैं ने अपनी बात सामने रख दी. मैं जानती थी अगर अब चूकी तो फिर आगे पछताना पड़ेगा.


मम्मी सुन कर चली गईं. उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. 10-15 दिनों बाद हम दोनों का विवाह संपन्न हो गया. अगले दिन शाम को प्रीतिभोज की पार्टी की गई. अधिकांश समझदार पढे़लिखे पुरुष विधवा विवाह, वह भी घर ही घर में किए जाने पर मेरे ससुरजी को बधाई दे रहे थे और खुशी जाहिर कर रहे थे. यह सारा कार्यक्रम निबट जाने से मेरी और दिवाकर की खुशी का ठिकाना नहीं था. यह तो मैं जानती थी, पुरुषवर्ग इस तरह के सामाजिक कार्यों में संतोष ही जाहिर करते हैं. उन्हें किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं होती. पर कुछ महिलाएं विधवा विवाह, पुनर्विवाह या अपने ही घर में देवर से विवाह कर लेना पचा नहीं पातीं. यही वे महिलाएं हैं जो स्वयं के विवाह में या अपनों के विवाह में दहेज की भरपूर लोलुप भी होती हैं. कम दहेज आने का मलाल उन में बना रहता है, जो आगे दुलहन के साथ कलह का कारण बना रहता है.


खैर, मेरा अपने ही घर में अपने देवर से पुनर्विवाह हो गया. लोगों का कहा भलाबुरा सब सहन कर लूंगी. जब घर वालों को कोई एतराज नहीं, तो बाहर वालों की क्या चिंता करनी. अगले दिन सुबहसुबह मम्मी ने मुझे और मेरी ननद तनुजा को पासपड़ोस व बिरादरी में पैंणा यानी शादी का लड्डू वगैरा देने के लिए भेज दिया. जब हम अपने चचिया ससुर मानवेंद्र सिंह के घर की बाउंडरी के पास पहुंचे तो हमें कई औरतों के जोरजोर से बतियाने की आवाज सुनाई पड़ी. बातें हमारे परिवार व शादी को ले कर ही हो रही थी. हमारे पैर थम गए. एक औरत की चिरपरिचित आवाज आ रही थी. ‘‘अरी, ये पंडिताइन तो उन के बड़े लड़के को तो खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. सीधेसीदे बच्चों को न जाने किस की नजर लग गई?’’


दूसरी सयानी औरत कह रही थी, ‘‘बुढि़या को भी तो तनक समझ होनी थी. उस ने क्या उन के रंगढंग नहीं देखे होंगे. पता नहीं, उस ने न जाने कब से उसे फांस रखा होगा.’’ अगली आवाज मिर्चमसाला लगा कर आ रही थी, ‘‘उस घर में तो डायन आई है, डायन. एक को तो खा गई, अभी न जाने कितनों को और खा जाएगी.’’ कई औरतें हां में हां मिला रही थीं. मैं आगे सुन न सकी. मुझे रुलाई आने लगी. मैं ने धोती के छोर को मुंह में डाल लिया और वहीं से वापस लौट गई. भरे मन से मेरी ननद भी मेरे पीछेपीछे लौट आई.


मेरी रुलाई रोके नहीं रुक रही थी. बारबार वही शब्द कानों में गूंज रहे थे, ‘बड़े लड़के को खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. न जाने कब से फांस रखा है. उस घर में डायन आई है, डायन. खा जाएगी.’ मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर फूटफूट कर रोने लगी. उस पूरे दिन मैं अपने कमरे में बंद रही. किसी से नहीं बोली और न कुछ खायापिया ही. ननद ने सारी बात मम्मी से कह दी होगी. सो, उन्होंने मुझ पर अधिक दबाव नहीं डाला. मन हलका होने के लिए छोड़ दिया. मेरी बेटी दिवाकर के पास थी. कभीकभी उन्हीं के पास सो जाती थी. मैं ने भी उसे अपने पास नहीं मंगाया.


मेरे लिए यह सब बरदाश्त के बाहर होता जा रहा था. मैं अपनेआप से ही सवालजवाब करने लगी थी. मैं ने किस का क्या बिगाड़ा था? प्यार करना क्या गुनाह है? हम ने तो जातिवाद का बंधन तोड़ा था. इस में हम दोनों की रजामंदी थी. विदेश या दूरदराज के शहरों में जाति कौन देखता है. गुणयोग्यता देखी जाती है. फिर यहां यह ढकोसला क्यों? बाद में दिवाकर की इच्छा को मैं टाल नहीं सकी. दिवाकर में मुझे अपने अतुल का प्रतिबिंब नजर आता था. सो, मैं भी उस की ओर झुकती चली गई. मैं विधवा विवाह के लिए राजी हो गई. वह भी अपने ही घर में. इस में क्या बुराई थी. अतुल तो एक हादसे के शिकार हो गए. उन के साथ गजेंद्र बाबू भी तो मारे गए. क्या वे भी मेरे ही कारण मृत्यु को प्राप्त हुए?


क्या उन्हें भी मैं ही खा गई. दुनिया तो अब एडवांस हो गई. पर हमारे गांवों की महिलाओं की रूढि़वादी सोच, अंधविश्वास कब समाप्त होगा? उन के हिसाब से मैं दिवाकर को भी खा जाऊंगी. समझ नहीं आता, मैं क्या करूं? कहीं, कभी सचमुच दिवाकर को भी कुछ हो जाए तो मैं सचमुच गांवभर की डायन कही जाऊंगी. लोग मुझे ढेले, पत्थर मारेंगे. मैं कल्पना मात्र से ही सिहर उठी. ये सब लांछन मेरी बरदाश्त के बाहर थे. इन उलाहनों, पाखंड व दोगलेपन की बातें सुन कर मन ही मन एक दृश्य आकार  लेने लगा-


कल सुबह मेरा शव आंगन में उगे बूढ़े नीम के पेड़ में लटका है, साथ में जातिवाद, विधवा विवाह तथा अंधविश्वास पर मेरा सूसाइड नोट भी है. मैं ने इन उलाहनों से बचने के लिए कायरता का रास्ता अपनाया है. अचानक विचारों की डरावनी लडि़यां टूट गईं. वर्तमान में मौजूद मन में एक ऊर्जा स्फुटित होने लगी. मैं खुद से कह रही थी कि जब अतुल को खो कर मैं ने हार नहीं मानी. जिंदगी का डट कर सामना कर, समाज की खोखली रस्मों व रिवाजों की दीवारें लांघ कर दिवाकर सरीखा जीवनसाथी पा लिया तब किनारे में आ कर डूबने की बेवकूफी आखिर क्यों? मुझे अभी जीना है. अपने लिए. अपनी बच्ची के लिए और दिवाकर के लिए भी. समाज व लोगों का क्या है? कुछ तो लोग कहेंगे…

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