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कहानी: उड़ान

हवा के झोंके की तरह राकेश के जीवन में आई सुष्मिता के विवाह प्रस्ताव ने मानो राकेश के एकाकी विधुर जीवन में रस की बरसात कर दी थी, और एक दिन...

सांचे में ढला तन, अंगअंग से झलकते अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य से भरी उस नवयौवना ने जब झुक कर बडे़ अदब से दोनों हाथ जोड़ कर मुझे प्रणाम किया तो मैं स्तंभित रह गया. एक कशिशभरी आवाज में जब उस ने होठों पर मुसकान ला कर, पूछा, ‘‘आप ने मुझे पहचाना, सर?’’ मैं ने अपने दिमाग पर थोड़ा जोर दिया और फिर अचानक बोल पड़ा, ‘‘तुम, सुष्मिता हो न?’’


उस नवयुवती ने अदब से मगर उसी प्यारभरे अंदाज में कहा, ‘‘हां सर, मैं सुष्मिता ही हूं.’’


‘‘पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ सुष्मिता ने दिल्ली के कनाट प्लेस की भीड़ में मुझ से धीरे से कहा, ‘‘सर, चलिए कहीं रेस्तरां में कौफी पीते हैं. वहीं आप से ढेर सारी बातें करनी हैं.’’ मैं ने स्वीकृति में सिर हिला दिया तो उस ने अपनी स्कूटी पर पीछे बैठने का इशारा किया. मैं एक आज्ञाकारी बालक की तरह स्कूटी की पिछली सीट पर बैठ गया. स्कूटी को तेज रफ्तार से भगाती सुष्मिता के लंबे, घने बाल हवा में लहरा रहे थे और बारबार एक भीनी खुशबू से मुझे भावविभोर कर रहे थे. मैं अतीत के भंवर में खो गया था और पिछले 5 वर्षों का अंतराल किसी सिनेमा के फ्लैशबैक की तरह मेरी आंखों के सामने घूम गया…


सुष्मिता एक छात्रा की तरह आई थी उस कोचिंग क्लास में (जिस में मैं अधिकारवंचित, साधनविहीन छात्रछात्राओं को निशुल्क, शौकिया तौर पर प्रशिक्षण देता था) अंगरेजी पढ़ने. एक जहीन बालिका जिस के नयनों में एक अजीब सी चमक थी कुछ जानने, कुछ सीखने की जिज्ञासा. मेरे क्लास में कई लड़कियां थीं जिन में अंगरेजी भाषा सीखने और समझने की अदम्य लालसा थी. मुझे उन्हें पढ़ाने में काफी दिलचस्पी थी. वे सभी साधनविहीन सामाजिक वर्ग अंडर प्रिविलेज्ड की बालिकाएं थीं जिन में समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की उत्कट प्यास थी. मैं अपनी कक्षा में 10 मिनट, 15 मिनट तक सभी छात्राओं से विभिन्न विषयों पर बोलने का अभ्यास भी कराता था. सुष्मिता कई मानों में सब से अच्छी छात्रा थी. यों तो सभी छात्राओं में प्रशिक्षण के प्रति जागरूकता थी और आगे जा कर अपनी एक पहचान बनाने की अदम्य लालसा थी पर सुष्मिता अद्वितीय थी, बेमिसाल थी. उस दिन मैं सचमुच अचंभित रह गया जब अच्छेअच्छे विद्वानों और विदुषियों की सभा में उसे बालिकाओं की शिक्षा और नारी सशक्तीकरण विषय पर अंगरेजी में व्याख्यान देने का मौका मिला. सभी श्रोताओं ने सुष्मिता की वाककला और विषय पर उस की समझबूझ की भूरिभूरि प्रशंसा की.


सुष्मिता का प्रशिक्षण समाप्त हुआ. उसे सभी छात्राओं ने भावभीनी विदाई दी. सुष्मिता ने मेरे चरण छुए. सुष्मिता के पिता पोस्टल विभाग में सहायक का काम करते थे. उन का स्थानांतरण उत्तर प्रदेश के एक सुदूर स्थान पर हो गया. सुष्मिता चली गई तो मुझे लगा मेरे जीवन में एक खालीपन आ गया. किसी व्यक्ति के प्रति आत्मीयता इतनी गहरी क्यों हो जाती है कि जिस की याद भुलाए नहीं भूलती. यह जीवन की एक ऐसी अनसुलझी पहेली है, जिस का सही उत्तर मुझे अभी तक नहीं मिला. शायद, इसी भावना को प्रेम कहते हैं. तो क्या सुष्मिता से मुझे प्रेम हो गया था?


सुष्मिता मेरी प्रेमिका तो नहीं थी और न ही मैं ने कभी प्रेमिका के रूप में उसे देखा था. वह मात्र एक छात्रा थी, शिष्या. किंतु अंगरेजी साहित्य में मैं ने पढ़ा था कि शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ जैसे महान कवियों की एक ‘कविप्रिया’ थी, शायद एक काल्पनिक छवि थी जिस की प्रेरणाओं से उन्होंने महाकाव्यों की रचना कर डाली थी. अचानक झटके से सुष्मिता ने अपनी स्कूटी एक पौश रेस्तरां के सामने रोक दी और विचारों के मेरे प्रवाह को भी एक झटका सा लगा. सुष्मिता ने मधुर मुसकराहट के साथ उस रेस्तरां में चलने का इशारा किया. कैंडल लाइट डिनर वाले एक खूबसूरत छोटे से केबिन में उस ने चलने का इशारा किया. झालरदार खूबसूरत परदे से सुसज्जित माहौल में अभी मेरा भावुक मन कुछ और सोचता, इस के पहले वेटर ने आ कर सलाम किया और पानीभरे गिलास के साथ एक मैन्यू कार्ड रख दिया. मैं घबरा कर लगभग अपनी जेब टटोलने लगा. सुष्मिता ने मेरी दुविधा भांप ली और तपाक से बोली, ‘‘घबराइए नहीं सर. सारा बिल मैं पेमैंट करूंगी. आप सिर्फ और्डर कीजिए. क्या खाएंगे?’’


मेरे मन में उत्सुकता की लहरें हिलोरे ले रही थीं और मैं एकबारगी ही सुष्मिता के बारे में सबकुछ जान लेने को उत्सुक हो रहा था. शायद, सुष्मिता ने मेरी उत्सुकता भांप ली थी. मैं विचारों की दुनिया में मानो खो गया था. कैंडल लाइट की झीनी रोशनी में सुष्मिता बहुत खूबसूरत लग रही थी. मैं ने आंखें बंद कर उस सौंदर्य को पी जाना चाहा. तभी सुष्मिता ने टोका, ‘‘क्या लेंगे सर, चायकौफी या कोल्डडिं्रक? मैं ने आंखें खोल कर सुष्मिता से कहा, ‘‘सिर्फ एक कप कौफी पी लेते हैं.’’ सुष्मिता ने प्रतिवाद किया, ‘‘यह कैसे हो सकता है सर? इतने अरसे बाद मिले हैं. कुछ तो नोश फरमाइए.’’ बिलकुल लखनवी अंदाज में झुक कर उस ने कहा. मुझे थोड़ी हंसी आ गई.


मैं भावविभोर हो उठा था. उस नवयौवना की एकएक भंगिमा पर, उस के एकएक अंदाज पर. क्या यह वही सुष्मिता थी जो मन में अनगिनत सवालों के जवाब पूछती थी और मैं पुलकित हो कर उस के हर सवाल का जवाब देता था. वह बड़ी तन्मयता से अपनी कौपी में सारे जवाब लिख जाती और दूसरे दिन पूछने पर बारीकी से उन सवालों का जवाब दे देती थी और नए सवालों के साथ फिर उपस्थित हो जाती. सुष्मिता ने कौफी के साथ गरमागरम पकौड़ों का भी और्डर दे डाला. मैं प्रतिवाद किए बिना कौफी की चुस्कियां लेता रहा. सुष्मिता ने अपने घने व काले बादलों जैसे बालों को झटका दिया जो मेरे कपोलों से टकरा गए तो ऊष्मा से भरी भीनी सुगंध के साथ सुष्मिता के मदमाते यौवन की सुगंध ने मानो मुझे मदहोश कर दिया. अचानक सुष्मिता ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया और पूछा, ‘‘सर, आप सो गए क्या?’’


मैं ने मानो अर्द्धनिद्रित सी अवस्था की स्थिति में कहा, ‘‘सुष्मिता, मैं सो नहीं गया, खो गया था, शायद तुम्हारे अतीत और वर्तमान के भंवर में उलझ गया है मेरा मन.’’


सुष्मिता ने रेस्तरां से बाहर निकल  कर पूछा, ‘‘आप कितने दिनों के  लिए दिल्ली में रहेंगे?’’


मैं ने कहा, ‘‘मैं अपने जरूरी औफिशियल काम से आया हूं. 3 दिनों तक रुकने का प्रोग्राम है. पब्लिक रिलेशंस का एक वर्कशौप है. उसी में शामिल होना है.’’


सुष्मिता ने छूटते ही कहा, ‘‘तो फिर आप को मेरे ही साथ रहना होगा. आरके पुरम में मेरा छोटा सा फ्लैट है. आप मेरे साथ रहेंगे. मैं आशा करती हूं कि आप मेरे आग्रह को ठुकराएंगे नहीं.’’ सुष्मिता मानो साधिकार बोल रही थी. मुझे भी अच्छा लगा कि


सुष्मिता ने मुझे अपने साथ रहने का निमंत्रण दिया. यों तो कार्यशाला में शामिल होने वाले पदाधिकारियों को ठहराने के लिए एक पंचसितारा होटल में व्यवस्था की गई थी, फिर भी सुष्मिता के आग्रह को टालने की इच्छा नहीं हो रही थी. मैं ने हामी भर दी. सुष्मिता ने कहा, ‘‘तो फिर आप मेरे निवास पर ही चलें. सुष्मिता की स्कूटी फिर हवा से बातें करने लगी. मैं ने 1-2 बार आगाह किया, ‘‘सुष्मिता, जरा धीरे चलो.’’ सुष्मिता ने बड़े इत्मीनान से लहराते बालों को एक झटका सा दिया और बड़े आत्मविश्वास से बोली, ‘‘घबराइए नहीं, सर. इन सड़कों पर मैं ने सैकड़ों बार स्कूटी दौड़ाई है. आप बेफिक्र रहें.’’ फिर उस के बालों से उठती हुई भीनी सुगंध का एक झोंका मेरे नथुने में समा गया, मानो मेरा भावुक मन मदहोश हो उठा.


एक बहुमंजिली अपार्टमैंट के कंपाउंड में स्कूटी पार्क कर के सुष्मिता ने लिफ्ट से चल कर तीसरी मंजिल पर स्थित एक फ्लैट के बाहरी दरवाजे का ताला खोल कर अंदर चलने को इशारा किया. अंदर आ कर मैं ने देखा, एक सुसज्जित छोटी सी बैठक, एक बैडरूम, एक किचन, बाथरूम आदि बडे़ साफसुथरे और सुसज्जित थे. हर चीज में सुष्मिता की सुरुचि और स्वच्छ जीवनशैली झलक  रही थी. एक सुंदर से सोफे पर बैठते ही मैं ने पूछा, ‘‘सुष्मिता, तुम यहां कब और कैसे आई?’’ ‘‘मैं सबकुछ बताऊंगी. पहले आप मेरे हाथ की इलायची वाली चाय पीजिए.’’ मैं ने प्रतिवाद किया, ‘‘अभीअभी तो हम ने रेस्तरां में कौफी पी है.’’ सुष्मिता ने इस का कोई उत्तर दिए बिना ‘मैं अभी आई’ कह कर साड़ी के पल्लू को कमर में खोंस कर किचन की तरफ बढ़ गई.


सचमुच सुष्मिता के हाथ की चाय पी कर मैं तरोताजा हो उठा. चाय सचमुच लाजवाब बनी थी. धीरेधीरे मध्याह्न से संध्या की ओर बढ़ते हुए सूरज को देख कर सुष्मिता ने कहा, ‘‘सर, आज लालकिले में आयोजित लाइट ऐंड साउंड का प्रोग्राम देखने चलेंगे.’’ सुष्मिता के चापल्य, अल्हड़ यौवन की खुशबू मेरे रोमरोम में समा चुकी थी. मैं यंत्रचालित सा उस के उसी हवाईजहाज यात्री स्कूटी पर बैठ कर लालकिले की ओर चल पड़ा. लाइट ऐंड साउंड का प्रोग्राम सचमुच काबिलेतारीफ था. मुगल बादशाहों के राजघराने, राजाओं के आम और खास दरबार के इतिहास में पढ़ी कहानियां मानो लाइट ऐंड साउंड के प्रभाव द्वारा अभिचित्रित की गई थीं. साथ ही, राजमहल की रानियों के अंतरंग क्षणों, जैसे उन के स्नानागार, उन की किल्लोलें मानो साकार दिखाई पड़ रहे थे. विज्ञान, प्रौद्योगिकी और कला का अद्भुत संगम था. सुष्मिता मुझ से बिल्कुल सट कर बैठ गई और झपकियां लेने के बहाने मेरे कंधों पर अपना हाथ रख दिया. एक बार फिर भीनी खुशबू से मानो मैं विभोर हो उठा.


फिर सुष्मिता जीन्स और टीशर्ट में सज कर बिलकुल महानगर की आधुनिका बन कर आ गई. सुष्मिता की स्कूटी पर सवार हम लोग कुतुबमीनार की ओर चल पड़े.

एक खूबसूरत रेस्तरां में कैंडल लाइट डिनर के बाद हम सुष्मिता के घर चले आए. सबकुछ एक सुंदर सपना सा लग रहा था, जिस सपने को सुष्मिता जैसी स्वप्नजयी ने साकार कर दिया था. इधरउधर की बातें करतेकरते मुझे झपकी सी आने लगी. सुष्मिता ने कहा, ‘‘हमारे यहां तो एक ही बैडरूम है सर, आप पलंग पर सो जाएं. मैं सोफे पर सो जाती हूं.’’


5 मिनट में कपड़े बदल कर सुष्मिता आ गई. मैं ने कहा, ‘‘सुष्मिता, तुम कितनी सुंदर लग रही हो. जी करता है तुम्हें बांहों में भर लूं.’’ सुष्मिता इस बात से मुसकरा दी. यौवन का एक तेज आवेग मेरे शरीर में भी जाग उठा और हम एकदूसरे की बांहों में खो गए. सुबह मेरी आंखें खुलीं तो सुष्मिता  अभी सो रही थी. एक मीठी सी  मुसकान उस के अधरों पर अठखेलियां कर रही थी मानो किसी सुखद सपनों में खोई हुई हो. सुबह के लगभग 8 बज चुके थे और दिल्ली की झीनी धूप खिड़की के परदों से छन कर आ रही थी. सुष्मिता नींद से जाग उठी थी.


मैं ने पूछा, ‘‘सुष्मिता, आज का तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’


सुष्मिता ने बड़ी बेपरवाही के से अंदाज में कहा, ‘‘आज संडे है. आज कुतुबमीनार की सैर करेंगे.’’ मैं ने मजाकिया अंदाज में चुटकी ली, ‘‘और कुतुबमीनार पर चढ़ कर हाथों में हाथ लिए कूद कर आत्महत्या कर लेंगे.’’


सुष्मिता ने उसी शोख अल्हड़पन में जवाब दिया, ‘‘आत्महत्या करें हमारे दुश्मन. हम भला क्यों आत्महत्या करेंगे.’’ फिर हम दोनों इस हासपरिहास पर खिलखिला कर हंसते रहे. सुष्मिता ने कहा, ‘‘पहले मैं कुछ नाश्ता तैयार कर लेती हूं. नाश्ता करने के बाद तब निकलेंगे. आप तब तक फ्रैश हो जाइए. मैं बाथरूम की ओर बढ़ गया. बाथरूम भीनीभीनी सुगंध से सराबोर था. मैं ने मन में सोचा, ‘कितनी सुरुचिपूर्ण और कलात्मक हो गई वह नाजुक किशोरी और पूर्णयौवना बन कर और भी मादक हो गई है.’ मेरा भावुक मन इस नवयौवना के इस परिवर्तन के बारे में सबकुछ जान लेने को मचल रहा था. स्वादिष्ठ पकौड़े, आलू के परांठे, टोस्ट, औमलेट का नाश्ता किया. सुष्मिता के हाथों में मानो जादू था. बहुत थोड़े समय में इतना सारा बेहतरीन नाश्ता उस ने तैयार कर लिया था.


फिर सुष्मिता जीन्स और टीशर्ट में सज कर बिलकुल महानगर की आधुनिका बन कर आ गई. सुष्मिता की स्कूटी पर सवार हम लोग कुतुबमीनार की ओर चल पड़े. लगभग आधे घंटे में हम लोग कुतुबमीनार पहुंच गए. दूसरे माले के ऊपर जाने की इजाजत नहीं थी. इसलिए दूसरे माले पर चढ़ कर हम लोग नीचे उतर गए. घर लौटतेलौटते शाम घिर आई. सुष्मिता ने आज अपने हाथ से बनाया डिनर खिलाया. डिनर के बाद हवा के झोंकों का आनंद लेने हम लोग कुरसियां डाल कर बालकनी में बैठ गए. सुष्मिता ने स्वयं ही सबकुछ बताया. पटना के छोटे शहर से दिल्ली के महानगर की यह यात्रा भी उतनी ही रोमांचक थी जितनी सुष्मिता स्वयं थी. पटना विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान विषय में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो कर वहां के एक डिगरी कालेज में व्याख्याता बन गई. फिर दिल्ली के एक डिगरी कालेज में एक स्थान की रिक्ति निकली और वह सफलतापूर्वक चयनित हो कर यहां आ गई.


सुष्मिता से जब मैं ने उस के अध्यवसाय की कथायात्रा को कुछ विस्तार से बताने का आग्रह किया, तो उस ने जो कुछ बताया वह और भी रोमांचक व विस्मयकारी था. बोर्ड की परीक्षा में अपने जिले में प्रथम आने के कारण उसे आगे की पढ़ाई करने के लिए 2-2 वजीफे एकसाथ मिले, एक मेधावी वजीफा तथा दूसरा लोक शिक्षा निदेशक द्वारा प्रदत्त निर्धनतासहमेधावी वजीफा. व्याख्याता होने के बाद के 1-2 वर्षों में उस ने जो कुछ किया वह भी उस के संघर्षशील जीवन की अद्भुत मिसाल थी. प्रश्नोत्तरी के रूप में कालेज के छात्रछात्राओं के लिए सरल हिंदी में किताबें लिखीं. जिन के प्रकाशन से प्रकाशकों ने अच्छे पैसे बनाए, जिन की रौयल्टी के पैसों को मितव्ययिता से खर्च कर सुशी ने अपना आर्थिक आधार मजबूत किया. फ्रायड, एडलर आदि की मुख्य पुस्तकों को छात्रोपयोगी बना कर हिंदी में अनुवाद भी किया. एक पुरानी कहावत है कि प्रकृति भी उसी की सहायता करती है जो अपनी सहायता स्वयं करता है. बिहार के सारण जिले में एक कसबानुमा गांव है – शीतलपट्टी. उसी गांव में उस के पिता की थोड़ी सी पैतृक संपत्ति थी, जिसे उस के चाचा लोगों ने उस के पिता के सीधेपन और अनभिज्ञता का नाजायज फायदा उठा कर हथिया लिया था. सुष्मिता के पिता की मृत्यु हो जाने के बाद शायद उस के चाचा लोगों ने इन बहनों पर कुछ तरस की खातिर और शायद कुछ विवेक जागृत होने की खातिर उस के पिता के हिस्से की जमीन बेच कर तीनों बहनों में बांट देने का निश्चय किया. सुष्मिता की बहनों ने अपने हिस्से का पैसा भी सुष्मिता के नाम कर दिया था. इस प्रकार दिल्ली जैसे महानगर में आ कर प्रतियोगिता परीक्षाओं में अपनी आजमाइश करने का एक सुदृढ़ आर्थिक आधार इसे मिल चुका था.


‘‘दिल्ली का चयन तुम ने क्यों किया,’’ यह पूछने पर सुष्मिता ने दूसरे रहस्य से परदा उठाया, ‘‘यहां रह कर मैं यूपीएससी की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रही हूं. इस के लिए यहां की एक सर्वश्रेष्ठ कोचिंग इंस्ट्टियूट में दाखिला ले कर अपनी ड्यूटी के बाद कोचिंग क्लासेस अटैंड करती हूं.’’ सुष्मिता ने एक स्वर में कह कर मेरी उत्सुकता के सभी परदों को एकबारगी ही उठा दिया. मैं इस लड़की की उद्यमिता और प्रगतिशील विचारों का कायल हो चुका था.


सुष्मिता ने मेरी प्रशंसा के जो चंद शब्द कहे, वे चंद शब्द मेरे लिए सर्वथा अप्रत्याशित थे. उस ने कहा, ‘‘आप की कोचिंग ने मुझे मात्र अंगरेजी भाषा पर कमांड की टे्रनिंग ही नहीं दी, बीचबीच में प्रेरणा और प्रोत्साहन के जो शब्द और भारतीय नारियों व बालिकाओं की सच्ची कहानियां जो आप सुनाया करते थे, वे मेरी अब तक की प्रगति के संबल बने.’’ मैं उल्लसित हो उठा था. सुष्मिता ने अपनी कहानी को आगे  बढ़ाते हुए बताया कि उस की  पढ़ाई पूरी भी नहीं हो पाई थी कि उस के पिता का देहांत हो गया था और वह मानो दुनिया में सब से अकेली हो गई थी. अपने उद्यम और परिश्रम से उस ने जो हासिल किया था, वह काबिलेतारीफ तो था ही, प्रेरणादायक भी था.


रात गहरा गई तो सुष्मिता चुपके से छोटे बालक की तरह मेरी बांहों में समा गई. किंतु रात्रि की कालिमा में उस की उज्जवल चांदनी का सा यौवन जब उफान पर आया तो मुझे अपने आगोश में कुछ इस तरह ले लिया मानो उस का संपूर्ण नारीत्व, संपूर्ण यौवन मुझ में खो जाने को आतुर हो उठा हो. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सुष्मिता मुझ में समा चुकी थी और मैं सुष्मिता में. इस तरह 3 दिन कैसे पंख लगा कर बीत गए, उसे न मैं समझ पाया और न सुष्मिता. शाम की गाड़ी से मुझे वापस जाना था. सुष्मिता के चेहरे पर एक उदास मुसकान थी. आज सुष्मिता ने बिना बांहों का टीशर्ट और बरमूडा पहन रखा था. सुष्मिता ने सुबह का नाश्ता तैयार किया. किचन से एक मधुर स्वरलहरी मेरे कानों से टकराई तो मैं स्तंभित रह गया. सुष्मिता की आवाज मानो जानीपहचान थी, किंतु उस में कितनी कोमलता और माधुर्य की चाश्नी मिली हुई थी, वह काबिलेतारीफ थी. सुष्मिता हौलेहौले गा रही थी, ‘‘तुम मिले, दिल खिले और जीने को क्या चाहिए…’’ सुष्मिता ने कहा, ‘‘सर, आज कहीं नहीं चलेंगे. आज यहीं बैठ कर गप्पे लड़ाएंगे.’’


मैं ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘सुष्मिता, तुम बारबार ‘सर’ कह कर मुझे शर्मिंदा कर रही हो. तुम मुझे सिर्फ ‘राकेश’ या राकेशजी कह सकती हो. सुष्मिता ने अपने संघर्ष की लंबीयात्रा की ढेर सारी बातें बताईं. सुष्मिता 3 बहनें थीं. एक जयपुर में और एक मुंबई में अपनीअपनी गृहस्थी में मग्न थीं. उन के पति भी समृद्ध और सुरुचिपूर्ण थे. एक बहन के पति बिजनैसमैन और दूसरे के पति एक राष्ट्रीयकृत बैंक में मैनेजर थे. सुष्मिता ने अगले पल कहा, ‘‘मैं आप को कभी अपनी बहनों से मिलवाऊंगी. वे आप से मिल कर काफी प्रसन्न होंगी. आप की ढेर सारी तारीफें मैं ने कर दी हैं.’’ मैं ने भी हामी भर दी. सुष्मिता अपनी बहनों में सब से छोटी थी. मुझे उसी दिन वापस लौटना था. सैमिनार समाप्त हो चुका था. मेरी गाड़ी शाम 7 बजे की थी. शाम को नई दिल्ली स्टेशन पर सुष्मिता मुझे छोड़ने आई. मुझे प्रथम श्रेणी के कोच में बिठा कर कुछ देर बड़ी प्यारी बातें करती रही.


प्रशिक्षण के लिए जाने से पहले मेरे हाथों को अपने हाथ में ले सुशी ने जो प्रस्ताव रखा था, वह शायद इसी मिलन की सब से रोमांचक बात थी.

अचानक पूछ बैठी, ‘‘सर, सौरी राकेशजी, फिर आप दिल्ली कब आ रहे हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘जब तुम बुलाओगी.’’


सुष्मिता ने जो कुछ कहा वह एक अविस्मरणीय बात थी, ‘‘मैं ने आप को यहां बिठा रखा है राकेशजी.’’ ऐसा कह कर अपने धड़कते दिल के बीच में मेरे हाथों को पकड़ कर रख लिया. मैं रोमांच से भर उठा. गाड़ी के छूटने की सीटी बज चुकी थी. मैं ने सुष्मिता को उतर जाने का इशारा किया. सुष्मिता गाड़ी से उतर आई. मैं ने खिड़की के पास आ कर हाथ हिला कर उसे विदाई दी. सुष्मिता प्लेटफौर्म पर खड़ी हो कर आर्द्र नयनों से हाथ हिलाती रही जब तक गाड़ी नजरों से ओझल नहीं हो गई. उस के आर्द्र नयनों को मैं अपलक निहारता रहा. सुष्मिता सचमुच मृगनयनी थी. ? लगभग 3 वर्ष मानो पलक झपकते बीत गए. मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर होने के नाते मेरी व्यस्तता काफी बढ़ गई थी. इसी बीच, सुष्मिता ने कई बार मुझ से फोन पर बातें कीं. उस ने प्यारभरे अंदाज में एक बार मुझ से पूछा, ‘‘कैसे हैं सर, सौरी राकेशजी, आप ने काफी लंबे अरसे के बाद मुझे याद किया.’’ लंबे अरसे के इस विनोद पर मैं भावविभोर हो गया. मैं ने स्वरचित एक छोटी सी कविता सुना दी:


‘‘जिस दिन आई याद न तेरी गीत न बोले, अधर न डोले. जिस दिन आई याद न तेरी देह लगी मिट्टी की ढेरी.’’ सुष्मिता ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी लगी आप की कविता. इसी तरह लिखते रहिए. जब मैं आप से मिलूंगी, आप मुझे अपनी सारी कविताओं और गीतों का संग्रह मुझे प्रेजैंट करेंगे,’’ उस ने बालपनभरे अंदाज में पूछा, ‘‘प्रौमिस?’’ मैं ने भी उसी अदांज में प्रत्युत्तर दिया, ‘‘प्रौमिस.’’ उत्तर भारत की प्रचंड गरमी, रिमझिम बरसातें, पूस की ठिठुरती सर्दियां आईं और चली गईं. अचानक एक दिन सुष्मिता का एसएमएस मिला. सुष्मिता को मैं ने ‘सुशी’ कहना शुरू कर दिया था. ‘‘सर, सौरी राकेश, आप को जान कर खुशी होगी कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में मेरा चयन हो गया है. ठीक 2 दिनों बाद मैं ट्रेनिंग के लिए मसूरी जा रही हूं. आशा करती हूं आप मुझे सीऔफ करने दिल्ली अवश्य आएंगे. आप की प्यारी सुशी.’’


मेरी उत्सुकता और प्रसन्नता की लहर चरम सीमा पर पहुंची जब सुशी के पास दिल्ली पहुंचा. सुष्मिता एक छोटी बच्ची की तरह भावविभोर हो कर मुझ से लिपट गई और उस के नेत्रों से झरझर आंसू निकलने लगे. मैं सुशी की पीठ पर थपकियां देता रहा. ‘‘सुशी, यह तुम्हारी मेहनत, लगनशीलता और प्रबल इच्छाशक्ति का परिणाम है. यह तो असीम खुशी का दिन है.’’ सुष्मिता ने छूटते ही कहा, ‘‘नहीं सर, आज मुझे सर कहने दीजिए, यह आप की प्रेरणा और प्रोत्साहन का फल है.’’ मैं भी भावविभोर था. मेरे पहुंचने के दूसरे दिन सुष्मिता को मसूरी जाना था. सुशी की प्रेरणादायी कहानी का शायद यहीं पटाक्षेप हो जाता, किंतु आगे भी कुछ होना था, मेरे और सुशी के जीवन में.


प्रशिक्षण के लिए जाने से पहले मेरे हाथों को अपने हाथ में ले सुशी ने जो प्रस्ताव रखा था, वह शायद इसी मिलन की सब से रोमांचक बात थी. सुशी ने कहा था, ‘सर, सौरी राकेश, आप मुझ से शादी करेंगे. ट्रेनिंग से लौट कर आते ही मैं शादी कर लेना चाहती हूं.’ मैं ने बिलकुल खामोश हो कर स्वीकृति की मुहर लगा दी थी. मेरे एकाकी विधुर जीवन में मानो किसी ने रस की बरसात कर दी थी और एक मधुर मदिर हवा का झोंका मेरे तनमन को आल्हादित कर गया था. पत्नी सविता की असामयिक मृत्यु हो जाने के बाद मैं एकाकी ही तो हो गया था. उसी एकाकीपन को भरने के लिए ही तो मैं ने अपनेआप को अध्ययन, अध्यापन और सामाजिक कार्यों में व्यस्त कर लिया था. अपनी कार्यव्यस्तता के बीच भी लगा करता था – ‘हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी, फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी.’ अपना प्रशिक्षण समाप्त कर प्रोबेशन पर सुष्मिता आ गई थी. समस्तीपुर में उस की पोस्ंिटग थी बिहार संवर्ग (कैडर) के अंतर्गत. बड़ा सा क्वार्टर, सारी सुविधाएं. सचमुच सुष्मिता ने अपने गाए गीत को चरितार्थ कर दिया था, ‘‘और जीने को क्या चाहिए…’’


सुष्मिता वही थी, मगर मानो निखरे सौंदर्य पर किंचित गंभीरता, स्मार्टनैस और आत्मविश्वास की अभूतपूर्व झलक आ गई थी. मुझे देखते ही चहक कर बोली, ‘‘राकेश, तुम्हें अपना वादा याद है न?’’ अकस्मात ‘आप’ से ‘तुम’ संबोधन पर आत्मीयता और सामीप्य की मिलीजुली प्रतिक्रिया ने मुझे भावविभोर कर दिया. तनमन भावनाओं के ज्वार में भीग उठा था. किंतु अनजान सा बन कर मैं ने पूछा, ‘‘कैसा वादा?’’ सुशी ने भी कृत्रिम अभिज्ञता के स्वर में पूछा, ‘‘हमारी शादी की बात.’’ मैं ने उसी के गाए गीत को मुसकान के साथ दोहरा दिया, ‘‘और जीने को क्या चाहिए…’’

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