कहानी: खुशियों की तलाश
अभी भी बड़ी भाभी की जबान कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘दोनों में से एक काम हो- या उस मरदुए की आवभगत की जाए या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाए.
अपनी छोटी सी गृहस्थी में मस्त रमा की खुशियों में सेंध लगी तब
उसे होश आया कि पति अवध की बेवफाई बरदाश्त नहीं हुई पर उसे
खुशियां बहुत कुछ सहने पर ही वापस मिलीं.
रमा तिलमिला उठी. परिस्थिति ने उसे कठोर व असहिष्णु बना दिया था.
बड़ी भाभी की तीखी बातें नश्तर सी चुभ रही थीं. कैसे इतनी कड़वी बातें कह जाते हैं वे लोग, वह भी मुन्ने के सामने. उन की तीखीकड़वी बातों का मुन्ने के बालमन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह वे जरा भी नहीं सोचतीं.
क्यों सोचेंगी वे जब मां हो कर वे अपनी नन्ही सी संतान की भलाईबुराई सम?ा नहीं पाईं, भला उन्हें क्या गरज है.
हां, हां, सारा कुसूर उस का है… घरपरिवार, भैयाभाभी यहां तक कि मां भी उसे ही दोषी करार देती हैं. सोने सी गृहस्थी तोड़ने की जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है.
घर टूटा उस का जिसे सभी ने देखा और दिल, हृदय पर जो चोट लगी, उस पर किसी की नजर नहीं गई.
‘‘बेटी, मर्द को वश में रखना सीख. इस तरह अपना घर छोड़ कर आने से तुम्हारा जीवन कैसे पार लगेगा,’’ मां के सम?ाने पर रमा बिफर उठी थी, ‘‘मां, किस मर्द की बात करती हो, उस की जो बातबात पर अकड़ता है. अपनी मांबहन के इशारे पर नाचता है या फिर उस की जो शादीशुदा, एक बच्चे का पिता होते हुए भी…छि..’’ आगे के शब्द आंसुओं में डूब गए.
‘‘रमा, होश से काम लो. अब तुम अकेली नहीं, एक नन्ही सी जान है तुम्हारे साथ,’’ मां ने धीरे से कहा.
‘‘इसी नन्ही सी जान की खातिर ही अपनी जान नहीं दी मैं ने. नहीं तो किसी कुएंतालाब में कूद जाती.’’
‘‘न बेटी, ऐसी कायरों सी बातें मुंह से मत निकालो,’’ मातृ हृदय पिघल उठा.
‘‘तुम्हारे दरवाजे नहीं आती, तुम लोगों के उलाहने नहीं सुनती. मेरे लिए इधर कुआं, उधर खाई है,’’ रमा रोती जाती, बीचबीच में अपनी वेदना मां के आंचल में डालती जाती.
अभी भी बड़ी भाभी की जबान कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘दोनों में से एक काम हो- या उस मरदुए की आवभगत की जाए या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाए.’’
‘‘सच में दोनों बातें एकसाथ संभव नहीं लगतीं. उधर कोर्टकचहरी के चक्कर लगाओ और इधर हंसहंस कर पकवान खिलाओ,’’ छोटी भाभी भला कब पीछे रहने वाली थी.
‘‘ओह, तो एक कप चाय और 2 सूखे बिस्कुट को पकवान कहा जाता है,’’ परिस्थिति ने रमा को मुंहफट बना दिया था.
‘‘खिलाओ पकवान, कोर्टकचहरी की क्या जरूरत है. एक ओर गालियां देती हो, दुनियाजहान से उस की बुराई करते नहीं थकती और दूसरी ओर उस को एंटरटेन करती हो. दुनिया क्या सम?ोगी,’’ बड़ी भाभी, छोटी भाभी एक बार शुरू हो जाती हैं, उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है.
उस का कुसूर यही था कि शिष्टाचारवश अपने पति अवध को एक कप चाय बना कर दी थी, साथ में 2 बिस्कुट भी. अवध से उस का कोर्ट में तलाक का मुकदमा चल रहा है. कोर्ट के आदेश से वह महीने में एक बार अपने 4 वर्षीय बेटे से मिलने आता है. उसे घुमाताफिराता और तय समय पर वापस पहुंचा जाता.
वैसे भी दुखी हृदय, कमजोर काया, दुर्बल पक्ष ले कर कब तक बहस की जा सकती है, रमा रोने लगी.
हैरानपरेशान मुन्ना कभी बिलखती मां को देखता, कभी रणचंडिका बनी दोनों मामियों को. वह किस का पक्ष ले. ?ागड़ा अकसर उसे ही ले कर होता है. इस तथ्य को वह सम?ाने लगा है. लेकिन क्यों इसे सम?ा नहीं पाता. इस घर में और भी बच्चे रहते हैं, लड़ते हैं, ?ागड़ते हैं, खाते हैं, खेलते हैं, स्कूल पढ़ने जाते हैं उसी की तरह. लेकिन किसी को ले कर ऐसी लड़ाई नहीं होती, न हायतौबा. किसी की मम्मी उस की मम्मी की तरह नहीं बिसूरती रहती.
मामियां रेशमी साडि़यों में बनसंवर कर अपने पतिबच्चों के साथ सैरसपाटे पर जाती हैं, हंसतीखिलखिलातीं.
एक उस की मम्मी है… बदरंग कपड़ों, सूखे होंठ, उल?ो बाल… किचन में रहेगी या पीछे बालकनी में उदास खड़ी आंखें पोंछती रहेगी.
30 वर्ष की युवावस्था में 60 वर्ष की गंभीरता ओढ़े मम्मी नानी के पास बैठेगी. उन की खुसुरफुसुर मुन्ने की सम?ा में नहीं आती. कुछ रोनेधोने की ही बात होगी, तभी मम्मी का गला रुंधा रहता है, आवाज फंसीफंसी निकलती है. नानी भी एक ही टौपिक से ऊबी हुई प्रतीत होती है, सो मुन्ने को ?िड़क देती है, ‘‘जा, बाहर खेल, जब देखो मां से चिपका रहता है.’’
‘‘कहां जाएगा मां. इसे कोई साथ नहीं खेलाता,’’ मम्मी तुनक जाती.
‘‘ढंग से खेलेगा, सभी खेलाएंगे,’’ नानी उकताई हुई सी बोली.
‘‘मां, तुम क्यों नहीं सम?ातीं. बच्चे इस के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. बिना कारण मुन्ने से ?ागड़ते हैं, मारते व चिढ़ाते हैं,’’ रमा का दबा आक्रोश मुखर हो गया.
नानी चुप रही. रमा का बातबात पर उत्तेजित हो जाना उन्हें नागवार गुजरता है क्योंकि घर में तेजतर्रार बहुएं हैं. मांबेटी का यों बातें करना दोनों भाभियों को जरा भी नहीं सुहाता.
‘‘आज हमारी खैर नहीं. छोटी, खूब लगाईबु?ाई हो रही है.’’
‘‘होने दो दीदी, हम नहीं डरतीं किसी से, अपने पति की कमाई खाती हैं. कोई आंखें उठा कर देखे तो सही, नोच डालूंगी.’’
बहुओं के तानेतिश्ने से मां घबरा जाती, मन ही मन उस घड़ी को कोसती जब रमा हाथ में अटैची और गोद में 10 माह का बच्चा लिए उस की देहरी पर आई थी.
5 वर्ष पहले ही कितनी धूमधाम से बिटिया का विवाह किया था. दोनों भाइयों से छोटी, सब की लाड़ली. पिता थे नहीं. उन की जगह दोनों भाइयों ने रमा को पूर्ण संरक्षण दिया. दोनों भाभियां भी प्यारदुलार की वर्षा करते नहीं थकती थीं. आज वही भाभियां तलवार की धार बनी उस पर हर घड़ी वार करने के लिए बेचैन रहती हैं.
शायद बदली हुई स्थिति के कारण. ‘रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर…’
आज मुन्ने को कोर्ट के निर्देशानुसार अपने पापा के पास 8 घंटे के लिए जाना था. वह उतावला हो रहा था, ‘‘जल्दी, मम्मी जल्दी…’’
अर्द्धविक्षिप्त सी रमा गिरतेगिरते बची, ‘‘ओह, चप्पल टूट गई. इसे भी अभी ही धोखा देना था.’’ दो कदम चलना दूभर हो गया. पुरानी घिसी हुई चप्पल. वह लाचार इधरउधर देखने लगी.
‘‘मम्मी, जल्दी चलो, पापा आ गए होंगे.’’ उस की मनोस्थिति से अनजान मुन्ने की बेसब्री बढ़ती जा रही थी.
‘‘मैं क्या करूं. तेरी जान को रोऊं. जब देखो सिर पर सवार रहता है. दो मिनट का चैन नहीं. कभी यह तो कभी वह. महीनेभर मैं खटतीपिटती रहती हूं, उस की कोई कीमत नहीं. तेरे पापा को क्या, महीने में एक दिन लाड़चाव लगाना रहता है. और तू, उन्हीं की माला जपता रहता है. सब की नजरों में मैं खटकती हूं. अब इस चप्पल को भी कब का बैर था मु?ा से. इसे अभी ही टूटना था. मु?ा से चला नहीं जाता,’’ रमा बिफर उठी. मुन्ना सहम गया. उस ने मां के पांव की ओर देखा और सोचा, ‘सच्ची मम्मी, इन टूटी चप्पलों में कैसे चलेंगी?’
चप्पल मम्मी के गोरे पैरों का सहारा भर थीं वरना वह कब की घिस चुकी थीं, बदरंग, पुरानी…
मुन्ने की आंखों के समक्ष मामियों की ऊंची एड़ी की मौडर्न, चमचमाती जूतियों का जोड़ा घूम गया. कितनी जोड़ी होंगी उन के पास. जब वे उन्हें पहन कर खटखटाती चलती हैं, कितनी स्मार्ट लगती हैं, किसी फिल्म तारिका जैसी. और उस की मम्मी, घरबाहर यही एक जोड़ी चप्पल… और आज वह भी टूट गई.
मुन्ना अपने पापा की कार को देखते हुए खुश हो गया , इतना स्मार्ट लग रहा था वह अपने पापा के साथ.
मुन्ना उदास हो गया. उस का बालसुलभ मन इन विसंगतियों को सम?ा नहीं सका. रमा किसी प्रकार अपना पैर संभालसंभाल कर मंजिल तक पहुंची. सामने खड़े अवध उसे एकटक देख रहे थे. नजरें मिलते ही उन्होंने आंखें ?ाका लीं.
कितने स्मार्ट लग रहे हैं अवध. लगता है नया सूट सिलवाया है, रौयल ब्लू पर लाल टाई, कार भी नई खरीदी है. अरे वाह, क्षणभर के लिए ही सही उस की आंखें चमक उठीं.
मुन्ना पापा को देखते ही दौड़ पड़ा, ‘‘बाय मम्मी.’’ ‘‘बाय.’’ ‘‘पापा, नई गाड़ी किस की है?’’ पापा को पा कर मुन्ना सारे जग को भूल जाता है, शायद मां को भी. ‘‘तुम्हारी है. तुम्हें कार की सवारी पसंद है न.’’
‘‘सच्ची, मेरे लिए, मेरी है,’’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था. पिछले सप्ताह वह मामा की कार में ताक?ांक कर रहा था. उसे मामा के बेटे ने हाथ पकड़ कर धकेल दिया था. ‘मैं भी गाड़ी में बैठूंगा,’ मुन्ने का मन कार से निकलने का नहीं कर रहा था.
मामा का बेटा उसे परास्त करने का तरीका सोच ही रहा था, उसी समय बड़ी मामी सजीधजी कहीं जाने के लिए निकली. मुन्ने को कार में ढिठाई करते देख सुलग पड़ी, ‘पहले घर, अब कार. सब में इस को हिस्सा चाहिए. इन मांबेटे ने जीना दूभर कर दिया है, सांप का बेटा संपोला.’
मामी की कटुक्तियां वह सम?ा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य सम?ा गया कि इस खूबसूरत कार पर उस का कोई अधिकार नहीं है. उसे, उस की मम्मी, उस के पापा से कोई प्यार नहीं करता. उस ने कार से उतरने में ही अपनी भलाई सम?ा. अभी जा कर मम्मी से सब की शिकायत करता हूं.
लेकिन मम्मी है कहां? वह रसोई में शाम की पार्टी की तैयारी में जुटी थी. बड़े मामा का प्रमोशन हुआ था और उन की शादी की सालगिरह भी थी. सभी व्यस्त थे, खरीदारी, घर की सजावट, रंगरोगन में. फालतू तो वह और उस की मम्मी.
वह मम्मी के पास जा पहुंचा. आग की लपटों में मम्मी का गोरा रंग ताम्बई हो रहा था. वह एक के बाद एक स्वादिष्ठ व्यंजन बनाने में हलकान हो रही थी. इस स्थिति में उन्हें परेशान करना सही नहीं.
‘मम्मी, एक ले लूं.’ लाल सुर्ख कचौड़ी की खुशबू उसे सदैव आकर्षित करती है. मम्मी ने उंगली के इशारे से मना किया. उस के बढ़ते हाथ रुक गए. ‘पूजा के बाद मिलेगा न, मम्मी?’
‘हां मेरे लाल,’ मम्मी ने लाड़ले को सीने से लगा लिया. मां का शरीर कितना गरम है. सीने में उबलते हुए जज्बात चक्षु से भाप बन निकलने लगे.
‘मेरा राजा बेटा, अपना होमवर्क करो. मैं थोड़ी देर में आती हूं.’ वह जानता है मम्मी रात्रि के 12 बजे से पहले नहीं आने वाली. तब तक वह दुबक कर सो जाएगा.
मम्मी पार्टी समाप्त होने पर बचाखुचा काम समेटेंगी. 2 निवाले खाएंगी या ‘भूख नहीं है,’ कह कर छुट्टी पा लेंगी. उसे एक बार मम्मी ने इसी तरह किसी पार्टी में एक मिठाई खाने के लिए दे दी थी. उस दिन कितना शोर मचा था. यों अपने बेटे को कुछ खाने के लिए देना दोनों मामियों को कितना नागवार गुजरा था. उस दिन से मम्मी ने जैसे कसम खा ली थी. न कुछ उठा कर बेटे को देती थीं न खुद लेती थीं. अपने ही मांबाप के घर में, अपने लोगों के बीच दोनों मांबेटे किरकिरी बने हुए हैं.
सिर्फ मांग में सिंदूर पड़ जाने से, एक बच्चे की मां बन जाने से कोई इतना पराया हो जाता है. यही भाभियां रमा की एकएक अदा पर न्योछावर होती थीं. उस को खिलानेपिलाने में आगे रहती थीं. उन्हीं की नजरों में वह ऐसा गिर चुकी है.
‘‘मम्मी, देखो, नई गाड़ी मेरे लिए. तुम भी चलो, खूब घूमेंगे, पिकनिक पर जाएंगे. अपने दोस्तों को भी ले जाऊंगा,’’ मुन्ना खुशी से बावला हो रहा था.
अवध अपने बेटे का चमकता मुखड़ा निहार रहे थे और रमा, बापबेटे के इस मिलन को किस प्रकार ले- हंसे या रोए. हंसना वह भूल चुकी है और रोना… इस आदमी के सामने जो उस के बेटे का बाप है.
न, वह रोएगी नहीं. कमजोर नहीं पड़ेगी. वहां से भागना चाहती है. टूटी हुई चप्पल… हाय रे, समय का फेर. पति कार स्टार्ट कर जा चुके थे. मुन्ने का हिलता हाथ नजरों से ओ?ाल हो गया. वह टूटी चप्पल वहीं फेंक नंगे पांव घर लौट आई.
मां किताब पढ़ रही थीं. भाभियां अपनेआप में मस्त. किसी का ध्यान उस की ओर नहीं. वह बिस्तर पर कटे पेड़ के समान गिर पड़ी. हृदय की पीड़ा आंखों में आंसू बन बह चली. बचपन से ले कर आज तक की घटनाएं क्रमवार याद आने लगीं…
रमा के पिता व्यापारी थे. अच्छा खातापीता परिवार. दोनों भाइयों से छोटी रमा सब की लाड़ली, सुंदर, संस्कारी.
पिता के बाद भाइयों ने कारोबार संभाल लिया. भाभियां उस पर दिलों जान छिड़कतीं. भाईबहन का प्यार देख मां फूली नहीं समातीं. रमा रूपवती, मिलनसार लड़की थी. लेकिन मां के अत्यधिक लाड़प्यार, भाइयों के संरक्षण, भाभियों के दोस्ताना व्यवहार ने उसे कुछ ज्यादा ही भावुक बना दिया था. निर्णय लेने की क्षमता का उस में विकास नहीं हो पाया था. आगापीछा नहीं जानती थी. शायद यही सब उस के सर्वनाश का कारण बना और इसी सब ने उसे आज इस विकट स्थिति में खड़ा कर दिया.
‘रमा बड़ी हो गई है, उस के लिए वर ढूंढ़ने की जिम्मेदारी तुम दोनों भाइयों की और विवाह की तैयारी दोनों भाभियों की,’ मां बेटी रमा के ब्याह के लिए चिंतित थी.
भाइयों ने इसे गंभीरता से लिया और उसी दिन से शुरू हुआ उचित वर, घर की तलाश. घरवर दोनों मनोनुकूल मिलना आसान नहीं.
कहीं लड़का योग्य तो घर कमजोर. कहीं घर समृद्ध लेकिन वर रमा के योग्य नहीं. इसी बीच गांवघर की बूआ अवध का रिश्ता ले कर आईं. वे कभी अवध के रूपगुण का बखान करतीं, कभी उस के ऊंचे खानदान व धनदौलत का. रमा छिपछिप कर सुनती, अपने भावी जीवन की कल्पना में डूबतीउतराती रहती.
रिश्ता पक्का हो गया. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ. लेनदेन में कोई कमी नहीं. वरपक्ष से कोई दबाव भी नहीं था. अवध के परिवार वालों को रमा भा गई थी. परिवार पसंद आ गया था. शुरू में सबकुछ ठीकठाक रहा. अवध रमा पर जान छिड़कता था. मायके की तरह रमा ससुराल में भी सब की लाड़ली बनी हुई थी.
गर्भ में मुन्ने के आते ही अवध खुशी से ?ाम उठा. सासससुर, देवरननद ने रमा की बलैया लीं. देखने वाले दंग. इतने वर्षों पश्चात घर में पहला बच्चा. रमा को सभी हथेली पर रखते. ‘बहू यह न करो, वह न करो,’ सासुमां लाड़ लगातीं.
‘लो बहू तुम्हारे लिए,’ ससुर का हाथ फल, मेवों अन्य पौष्टिक पदार्थों से भरा रहता. और अवध… वह बावला रमा को पलभर के लिए भी आंखों से ओ?ाल नहीं होने देना चाहता था.
दफ्तर से बारबार फोन करता. रोज बालों के लिए गजरा, उपहार लाता. गोलमटोल शिशुओं की तसवीरों से कमरा जगमगा उठा. मां व भाई रमा को लाने गए. सासससुर ने हाथ जोड़ लिए. बेटी का सुख, मानसम्मान देख मां व भाई गद्गद हो उठे.
मां व भाई चाहते थे कि जच्चगी मायके में हो. वहीं सास, ससुर, पति पलभर के लिए बहू को आंखों से ओ?ाल नहीं होने देना चाहते थे.
रमा दोनों पक्षों के दांवपेंच पर मुसकरा उठती. रमा ने स्वस्थ सुंदर बेटे को जन्म दिया. बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया. मां बन कर रमा निहाल हो उठी. जब देखो मुन्ने को छाती से चिपकाए रहती.
घरभर का खिलौना मुन्ना अपनी बालसुलभ अदाओं से सब का मन मोह लेता. ‘रमा, बड़ा हो कर मुन्ना मेरी तरह इंजीनियर बनेगा,’ अवध की आंखें चमकने लगतीं. ‘नहीं, मैं इसे डाक्टरी पढ़ाऊंगी. लोगों की सेवा करेगा,’ रमा हंस पड़ती.
‘न डाक्टर न? इंजीनियर, यह मेरी तरह बैरिस्टर बनेगा,’ दादाजी कब पीछे रहने वाले थे. ‘कहीं नाना जैसा व्यापारी बना तो…’ नानी बीच में टपक पड़तीं. सभी होहो कर हंसने लगते. हर्षोल्लास से लबालब थे मायके और ससुराल. किस की नजर लग गई.
आज उसी मुन्ने की जननी की सुध किसी को नहीं. आखिर इस के पीछे कारण क्या है. मुन्ने के जन्म के बाद तीसरे महीने ही दीवाली का त्योहार और उस मनहूस दीवाली ने रमा व उस के मुन्ने की जीवनधारा पलट कर रख दी.
उस दिन घरबाहर खूब रंगरोगन हुआ था. नाना प्रकार के पकवान, मिठाइयां, मेवों, उपहारों का ढेर लग गया था. रेशमी साड़ी और कीमती आभूषणों से लदीफंदी रमा पति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी.
अवध देर से लौटे, साथ में एक सुंदर युवती थी. ‘रमा, यह मेरी कालेज की सहपाठी दिवा है.’ रमा ने हाथ जोड़ दिए, ‘नमस्ते.’
अवध सदा से ही अपने रखरखाव, पहनावे का विशेष ध्यान रखते थे. इधर कुछ ज्यादा ही सजग, सचेत रहने लगे हैं. हरदम खिलेखिले, प्रसन्न अपनेआप में मग्न. घर में पांव टिकते नहीं थे.
दिवा ने चुभती नजर रमा पर डाली, ‘कहां ढूंढ़ा इतनी खूबसूरत पत्नी को.’
‘अरे, तुम से कम ही,’ अवध का मजाकिया स्वभाव था.
किंतु रमा ?ोंप गई. अवध के इस बेतुके मजाक ने सीधे उस के दिल को टीस दी. दिवा जितनी देर रही, अवध से चिपकी रही. सुंदर वह थी ही, उस की दिलकश अदाएं, बात करने का अंदाज, बेवजह खिलखिलाना रमा को जरा भी नहीं सुहाया.
हंसीमजाक, शोरशराबा, भोजनपानी करतेकरते आधी रात बीत गई.
‘अब, मैं चलूंगी,’ दिवा बोली थी.
‘चलो, मैं तुम्हें छोड़ आता हूं,’ अवध की आंखों की चमक रमा आज तक भूल नहीं पाई है. अगर वह पुरुष मनोविज्ञान की ज्ञाता होती तो कभी भी अपने पति को उस मायावी के संग न भेजती.
… पति जब तक घर लौटे, वह मुन्ने को सीने से चिपकाए सो गई थी. फिर तो अवध रमा और मुन्ने की ओर से उदासीन होता चला गया. उस की शामें दिवा के साथ बीतने लगीं.
पत्नी से उस की औपचारिक बातचीत ही होती. मुन्ने में भी खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी उस की. भोली रमा पति के इस परिवर्तन को भांप नहीं पाई. दिनरात मुन्ने में खोई रहती. वह मुन्ने को कलेजे से लगाए सुखस्वप्न में खोई थी.
एक दिन उस की सहेली ने फोन पर जानकारी दी, ‘आजकल तुम्हारे मियांजी बहुत उड़ रहे हैं.’
‘क्या मतलब?’
‘अब इतनी अनजान न बनो. तुम्हारे अवध का दिवा के साथ क्या चक्कर चल रहा है, तुम्हें मालूम नहीं? कैसी पत्नी हो तुम? दोनों स्कूटर पर साथसाथ घूमते हैं, सिनेमा व होटल जाते हैं और तुम पूछती हो, क्या मतलब,’ सहेली ने स्पष्ट किया.
‘देख, मु?ो ?ाठीसच्ची कहानियां न सुना, वह अवध के साथ पढ़ती थी,’ रमा चिहुंक उठी.
‘पढ़ती थी न, अब अवध के साथ क्या गुल खिला रही है? मु?ा पर विश्वास नहीं है, पूछ कर देख ले. फिर न कहना, मु?ो आगाह नहीं किया. तुम इन मर्दों को नहीं जानतीं. लगाम खींच कर रख, वरना पछताएगी,’ सहेली ने फोन रख दिया.
अब रमा का दिल किसी काम में नहीं लग रहा था. मुन्ना भी आज उसे बहला नहीं सका. वह छटपटा उठी. सहेली की बात किस से कहे- मांजी से, पिताजी से… न…न… उस की हिम्मत जवाब दे गई. वह सीधे अपने पति से ही बात करेगी, अवध ऐसा नहीं है.
अवध सदा से ही अपने रखरखाव, पहनावे का विशेष ध्यान रखते थे. इधर कुछ ज्यादा ही सजग, सचेत रहने लगे हैं. हरदम खिलेखिले, प्रसन्न अपनेआप में मग्न. घर में पांव टिकते नहीं थे. भूल कर भी रमा को कहीं साथ घुमाने नहीं ले गए. मुन्ना एक अच्छा बहाना था. रमा को कोई शिकवा भी नहीं था. वह अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त थी. जहां उस का प्यारा पति एवं जिगर का टुकड़ा मुन्ना था, वहीं उस की खुशियों में उस की सहेली ने सेंधमारी की थी. वह बेसब्री से अवध की राह देखने लगी.
रात गए अवध लौटा, गुनगुनाता, सीटी बजाता बिलकुल आशिकाने मूड में.
‘खाना,’ रमा ने पूछा तो उसे अपने इंतजार में देख उसे आश्चर्य हुआ.
‘खा लिया है,’ वह बेफिक्री से कोट का बटन खोलने लगा.
रमा ने लपक कर कोट थाम लिया. लेडीज परफ्यूम का तेज भभका.
रमा को यों कोट थामते, अपने लिए जागते देख अवध चौंका. क्योंकि मुन्ने के जन्म के बाद से वह बच्चे में ही खोई रहती. वह रात में लौटता, उस समय वह मुन्ने के साथ गहरी नींद में खर्राटे लेती मिलती. आज ऐसे तत्पर देख आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है.
परफ्यूम की महक ने रमा को दीवाली की रात की याद दिला दी. यही खुशबू दिवा के कपड़ों से उस दिन आ रही थी. सहेली ठीक कह रही थी. रमा उत्तेजित हो उठी, ‘कहां खाए?’
‘पार्टी थी.’‘कहां?’
‘होटल में, कुछ क्लांइट आए थे.’
‘सच बोल रहे हो?’
‘तुम कहना क्या चाहती हो?’
‘यही कि तुम दिवा के साथ समय बिता कर, खा कर आ रहे हो.’
अवध का चेहरा क्षणभर के लिए फक पड़ गया. फिर ढिठाई से बोला, ‘तुम्हें कोई आपत्ति है, मेरी बातों का विश्वास नहीं?’
‘दिवा के साथ गुलछर्रे उड़ाते तुम्हें शर्म नहीं आती एक बच्चे के पिता हो कर. छि,’ रमा क्रोध से कांपने लगी.
‘दिवा पराई नहीं, मेरी पहली पसंद है. वह तो मां ने तुम्हारे नाम की माला न जपी होती, तुम्हारी जगह पर दिवा होती.’
‘उस ने मेरे चलते विवाह नहीं किया. वह आज भी मु?ो उतना ही चाहती है जितना कालेज के दिनों में. फिर मैं उस का साथ क्यों न दूं. एक वह है जो मेरे लिए पलकें बिछाए रहती है और एक तुम हो जिसे अपने बच्चे से फुरसत नहीं है,’ पति बेहयाई पर उतर आया.
रमा के पांवतले जमीन खिसक गई. आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला चलने लगा.
अवध का कहना था, ‘तुम्हें खानेपहनने की कोई दिक्कत नहीं होगी. जैसे चाहो, रहो लेकिन मैं दिवा को नहीं छोड़ सकता. तुम पत्नी हो और वह प्रेमिका.’
‘क्या केवल खानापहनना और पति के अवैध रिश्ते को अनदेखा करना ही ब्याहता का धर्म है?’ रमा इस कठदलीली को कैसे बरदाश्त करती. खूब रोईधोई. अपने सिंदूर, मुन्ने का वास्ता दिया. सासससुर से इंसाफ मांगा. उन्होंने उसे धैर्य रखने की सलाह दी. बेटे को ऊंचनीच सम?ाया, डांटा, दुनियादारी का हवाला दिया.
लेकिन अवध पर दिवा के रूपलावण्य का जादू चढ़ा हुआ था. रमा जैसे चाहे, रहे. वह दिवा को नहीं छोड़ेगा.
एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. रमा को प्यारविश्वास का खंडित हिस्सा स्वीकार्य नहीं.
पतिपत्नी का मनमुटाव, विश्वासघात शयनकक्ष से बाहर आ चुका था. जब रमा पति को सम?ाने में नाकामयाब रही तब एक दिन मुन्ने को गोद में ले मायके का रास्ता पकड़ा.
सासससुर ने सम?ाया. ‘बहू, अपना घर पति को छोड़ कर मत जाओ. अवध की आंखों से परदा जल्दी ही उठेगा. हम सब तुम्हारे साथ हैं.’
किंतु रमा का भावुक हृदय पति के इस विश्वासघात से टूट गया था. व्यावहारिकता से सर्वथा अपरिचित वह इस घर में पलभर भी रुकने के लिए तैयार न थी, जहां उस का पति पराई स्त्री से संबंध रखता हो. उस की खुद्दारी ने अपनी मां के आंचल का सहारा लेना ही उचित सम?ा, भविष्य की भयावह स्थिति से अनजान.
‘बहू, मुन्ने के बगैर हम कैसे रहेंगे?’ सासुमां ने मनुहार की.
‘पहले अपने बेटे को संभालिए, मैं अपने बेटे पर उस दुराचारी पुरुष की छाया तक नहीं पड़ने दूंगी.’
‘उसे संभालना तो तुम्हें पड़ेगा बहू. तुम उस की पत्नी हो, ब्याहता हो. इस प्रकार मैदान छोड़ने से बात बिगड़ेगी ही.’
‘मु?ो कुछ नहीं सुनना. मु?ा में इतनी सामर्थ्य है कि अपना और अपने मुन्ने का पेट भर सकूं.’
रमा एक ?ाटके में पतिगृह छोड़ आई. मां ने जब सारी बातें सुनीं तो सिर पीट लिया. फूल सी बच्ची पर ऐसा अत्याचार. उन्होंने बेटी को सीने से लगा लिया, ‘मैं अभी जिंदा हूं, जेल की चक्की न पिसवा दी तो कहना.’
भाइयों ने दूसरे दिन ही कोर्ट में तलाकनामा दायर करवा दिया. भाभियां भी खूब चटखारे लेले कर ननदननदोई के ?ागड़ों का वर्णन सुनतीं. रमा अपना सारा आक्रोश, अपमान, कुंठा नमकमिर्च लगा कर बयान करते न थकती.
शुरुआती दिनों में सभी जोशखरोश से रमा का साथ देते. मुन्ने का भी विशेष खयाल रखा जाता. फिर प्रारंभ हुई कोर्टकचहरी की लंबी प्रक्रिया. तारीख पर तारीख. वकीलों की ऊंची फीस. ?ाठीसच्ची उबाऊ बयानबाजी. एक ही बात उलटफेर कर. जगहंसाई. रमा और मुन्ने का बढ़ता खर्चा. निर्णय की अनिश्चितता.
घरवाले उन सामानों को हिकारत से देखते. यह नफरत का बीज उस का ही बोया हुआ है. रमा सबकुछ छोड़छाड़ भागी न होती, उस की गृहस्थी यों तहसनहस न होती.
भाइयों में ?ां?ालाहट बढ़ने लगी. भाभियां जैसे इसी मौके की तलाश में थीं. वे रमा और मुन्ने को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने न देतीं.
बूढ़ी होती मां सिहर उठतीं, ‘मेरे बाद इस लाड़ली बेटी का क्या होगा? बेटेबहुओं का रवैया वे देख रही थीं. उन का चिढ़ना स्वाभाविक था क्योंकि सब की घरगृहस्थी है, बालबच्चे हैं, बढ़ते खर्चे हैं. इस भौतिकवादी युग में कोई किसी का नहीं. उस पर परित्यक्ता बहन और उस का बच्चा जो जबरन उन के गले पड़े हुए हैं.
कानूनी लड़ाई में ही महीने का आखिरी रविवार कोर्ट ने मुन्ने को अपने पिता से मिलने का समय मुकर्रर किया था. मुन्ने को इस दिन का बेसब्री से इंतजार रहता. बाकी दिनों की अवहेलना को वह विस्मृत कर देता.
अवध बिना नागा आखिरी रविवार की सुबह आते. रमा मुन्ने को उन के पास पहुंचा देती. दोनों एकदूसरे की ओर देखते अवश्य, लेकिन बात नहीं होती. मुन्ना हाथ हिलाता पापा के स्कूटर पर हवा हो जाता.
अवध ने मुन्ने को अपने संरक्षण में लेने के लिए कोर्ट से गुहार लगाई है बच्चे के भविष्य के लिए. ठीक ही है पापा के पास रहेगा, ऊंची पढ़ाई कर पाएगा, सुखसुविधाएं पा सकेगा. वह एक प्राइवेट स्कूल की टीचर, 2 हजार रुपए कमाने वाली, उसे क्या दे सकती है.
कोर्ट के आदेश से कहीं मुन्ना उस से छिन गया, अपने पापा के पास चला गया तब वह किस के सहारे जिएगी. किसी निर्धन से उस की पोटली गुम हो जाए, तो जो पीड़ा उस गरीब को होगी वही ऐंठन रमा के कलेजे में होने लगी. ‘न, न, मैं बेटे को अपने से किसी कीमत पर अलग नहीं होने दूंगी. वह सिसकने लगी. स्वयं से जवाबसवाल करते उसे ?ापकी आ गई.
आंखें खुलीं, तो पाया मुन्ना आ चुका है. हर बार की तरह खिलौने, मिठाइयां उस के पसंद की चौकलेट से लदाफंदा.
घरवाले उन सामानों को हिकारत से देखते. यह नफरत का बीज उस का ही बोया हुआ है. रमा सबकुछ छोड़छाड़ भागी न होती, उस की गृहस्थी यों तहसनहस न होती. वह डाल से टूटे पत्ते के समान धूल नहीं चाट रही होती.
‘‘मम्मी, तुम्हारे लिए…’’
‘‘क्या?’’
लाल पैकेट में 2 जोड़ी कीमती चप्पलें. रमा भौचक, ‘‘यह क्या, तुम ने पापा से कहा?’’
‘‘नहीं, नहीं, पापा ने अपने मन से खरीदा. पापा अच्छे हैं, बहुत अच्छे. मम्मा, हम लोग पापा के साथ क्यों नहीं रहते?’’
रमा निरुत्तर थी. रमा ने चप्पलों की जोड़ी ?ाट से छिपा दी. अगर पहनती है तो घर वालों की कटूक्तियां और न पहने तब मुन्ने की जिज्ञासा.
दीवाली का त्योहार आ गया. भाईभाभी सपरिवार खरीदारी में व्यस्त. वह सूखे होंठ, गंदे कपड़ों में घर की सफाई में लगी थी.
दरवाजे की घंटी बजी. शायद, घर वाले लौट आए. इतनी जल्दी…
रमा ने दरवाजा खोला, सामने अवध. रमा स्तब्ध. घर में कोई नहीं था. उस की जबान पर जैसे ताला लग गया.
‘‘भीतर आने के लिए नहीं कहोगी?’’ अवध के प्रश्न पर वह संभल चुकी थी.
‘‘हां, हां, आइए परंतु इस समय घर में कोई नहीं है.’’
‘‘मुन्ना कहां है? ’’
‘‘वह अपनी नानी के साथ पार्क गया है.’’
‘‘अच्छा, दीवाली की सफाई हो रही है.’’
रमा सम?ा नहीं पा रही थी, वह क्या कहे. इस विषम परिस्थिति के लिए वह कतई तैयार न थी. जिस व्यक्ति पर कभी उस ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया था, उस के बच्चे की मां बनी थी, उस से ऐसी ?ि?ाक. थोड़ी सी बेवफाई और कानूनी दांवपेंच ने दोनों के बीच गहरी खाई खोद दी थी.
‘‘रमा, तुम मु?ा से बहुत नाराज हो, होना भी चाहिए. मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिए. दिवारूपी मृगतृष्णा के पीछे भागता रहा. अपनी पत्नी के निश्चछल प्रेम के सागर को पहचान नहीं पाया. अब मैं तुम्हें और मुन्ने को लेने आया हूं. मु?ो माफ कर दो.’’
‘‘मैं आप के साथ कैसे जाऊंगी, दिवा के साथ नहीं रह सकती. मु?ो मेरे हाल पर छोड़ दीजिए,’’ आक्रोश आंखों से बह निकला.
‘‘दिवा… दिवा से मेरा कोई लेनादेना नहीं है, मैं ने उस से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. पहले ही काफी देर हो चुकी है, अब अपनी पत्नी और बच्चे से दूर नहीं रह सकता.’’
‘‘किंतु मेरी मां, भाई, कोर्टकचहरी…’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.
‘‘मां, भाई को क्यों एतराज होगा. अपनी पत्नी और बेटे को लेने आया हूं. और रहा कोर्टकचहरी, लो तुम्हारे सामने ही सारे कागजात फाड़ फेंकता हूं. जब मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी.’’
‘‘पर, मैं कैसे विश्वास करूं?’’
‘‘विश्वास तुम को करना ही पड़ेगा. भरोसा एवं प्यार पर ही दांपत्य की नींव टिकी होती है. तुम ने मु?ा पर पहले ही अपना अधिकार जता बांहों का सहारा दे अपने पास खींच लिया होता तो मैं दिवा में अपनी खुशियां नहीं तलाशता. सच है कि मैं भटक गया था. किंतु यह न भूलो, भटका हुआ मुसाफिर भी कभी न कभी सही राह पा लेता है,’’ अवध ने अपनी बांहें फैला दीं.
परिस्थितियों की मार से आहत रमा इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से अचंभित अपने पति के हृदय से जा लगी.
अवध, रमा और मुन्ने दीवाली के दिन जब अपने घर पहुंचे, एकसाथ लाखों दीये जल उठे. दीवाली की खुशी द्विगुणित हो गई. उन का उजड़ा संसार दीवाली की रोशनी में आबाद हो चुका था.