Today Breaking News

कहानी: बदलते मौसम

औफिस के गेट पर सारा सीनियर स्टाफ उन का स्वागत करने के लिए खड़ा था. आज वे महीने भर बाद औफिस आए थे.

औफिस के गेट पर सारा सीनियर स्टाफ उन का स्वागत करने के लिए खड़ा था. आज वे महीने भर बाद औफिस आए थे. जैसे ही वे कार से उतरे, गार्ड ने तुरंत व्हीलचेयर दरवाजे के पास लगा दी. कितने ही लोग उन की मदद करने के लिए आगे बढ़े पर उन्होंने हाथ से मना कर दिया. ड्राइवर ने थोड़ा सहारा दिया और वे व्हीलचेयर पर बैठ गए. व्हीलचेयर आराम से ऊपर जा सके, इस के लिए सीढि़यों के पास रैंप बना दिया गया था.


मेहुलजी ने आगे बढ़ कर उन के गले में फूलमाला डालते हुए कहा, ‘‘वैलकम, सर.’’


‘‘अरे मेहुलजी, आप कब से ऐसी औपचारिकताओं में विश्वास करने लगे. अपने ही तो औफिस में आया हूं. बस, आया 1 महीने बाद हूं, फिर क्यों मुझे पराया बना रहे हैं?’’ उन्होंने थोड़ा मजाकिया अंदाज में कहा तो मेहुलजी मुसकरा उठे, ‘‘सर, तमाम मुश्किलों के बीच भी हंसीमजाक सिर्फ आप ही कर सकते हैं, वरना…’’


‘‘मेहुल, काम तो ठीकठाक चल रहा है न?’’ उन्होंने बीच में ही उन की बात काट दी.


‘‘जी सर, सब आप के आदेशानुसार चल रहा है,’’ मेहुल अब थोड़ा खिसिया गए थे और अपनी भूल का भी उन्हें एहसास हो गया था कि इस तरह की बात उन्हें नहीं करनी चाहिए थी.


रिसैप्शन पर नई रिसैप्शनिस्ट और नए पीबीएक्स बोर्ड को देख उन्होंने राजन साहब की ओर प्रश्नभरी निगाहों से देखा तो वे तुरंत बोले, ‘‘सर, पुराना सिस्टम खराब हो गया था, इसलिए नया पीबीएक्स खरीदा है और यह लड़की इस सिस्टम को औपरेट करने में माहिर है, इसलिए इसे अपौइंट किया है, लेकिन पुरानी रिसैप्शनिस्ट नेहा को नौकरी से हटाया नहीं है, सर. हमें पता है कि आप किसी को भी नौकरी से निकालना पसंद नहीं करते हैं, इसलिए उसे दूसरे डिपार्टमैंट में शिफ्ट कर दिया गया है.’’


‘‘कितने में आया नया पीबीएक्स? ठीक तो है न यह?’’ ऐसे ही कितने सवाल करते वे लिफ्ट की ओर बढ़े तो लिफ्टमैन ने उन्हें सलाम ठोंका, ‘‘बहुत खुशी हो रही है, साहब, आप को देख कर.


‘‘कैसे हो, रामदीन? अरे यह क्या, लिफ्ट में कितने जाले लगे हैं. कब से सफाई नहीं की तुम ने? शायद ध्यान नहीं गया होगा, चलो कोई बात नहीं. पर आज सफाई कर देना,’’ उन्होंने बहुत ही नरमाई से कहा.


लिफ्ट से बाहर निकलते ही उन की निगाह दीवार पर लगी पेंटिंग्स पर गई. कुछ पेंटिंग्स टेढ़ी लगी थीं, तो कुछ पर धूल चमक रही थी, उस ओर संदीपन का ध्यान दिलाते हुए वे आगे बढ़े तो पाया कि उन का सारा स्टाफ, जिस की संख्या 500 से कम न थी, उन से मिलने के लिए लालायित खड़ा है.


उन्हें देख कर सब के चेहरों पर रौनक आ गई थी. वे केबिन तक जातेजाते सब से हालचाल पूछते जा रहे थे. एक से पूछा कि तुम्हारा बेटा अब कैसा है, 1 महीने पहले वह बीमार था न? किसी से उस के परिवार के बारे में पूछा तो किसी से तबीयत के बारे में. मानो वे हर किसी का हाल, उन के परिवार के बारे में जानते हों और चिंता भी करते हों.


असल में ऐसा था भी. फिर भी आज सब को हैरानी हो रही थी. भौचक्के से खड़े सब अपने मालिक को देख रहे थे, जो इस हाल में भी, जबकि वह स्वयं 25 दिनों तक अस्पताल में थे, अपने स्टाफ को ले कर इतने उत्सुक थे. उन्हें नियति ने जितने घाव दिए थे, उस के बाद तो कोई भी आदमी टूट सकता था, पर उन की जिंदादिली में कोई अंतर नहीं आया था. उन के काम के प्रति कमिटमैंट के तो सब कायल थे.


वे औफिस को एकदम साफ व व्यवस्थित रखना भी पसंद करते थे और इस के लिए वे स्वयं आगे बढ़ कर दिलचस्पी लेते थे. स्टाफ की हर समस्या को धैर्य से सुनते थे और उस का समाधान करते थे. यहां तक कि उन की पारिवारिक परेशानियों में भी हरसंभव सहायता करते थे, फिर चाहे वह आर्थिक हो या मनोबल बढ़ाने की. यही वजह थी कि काम के प्रति लापरवाही न बरतने और सख्त होने के बावजूद उन का स्टाफ उन की बहुत इज्जत करता था और लगन व ईमानदारी से काम भी.


केबिन में प्रवेश करते हुए उन्होंने राजन साहब से फाइलें लाने को कहा. केबिन में चारों ओर उन्होंने नजरें दौड़ाईं. सब कुछ यथास्थान व व्यवस्थित था, जैसा कि वे पसंद करते हैं. करीने से हर चीज लगी हो, ऐसा ही निर्देश वे अपने स्टाफ को देते हैं. अपनी बड़ी सी आयताकार टेबल पर लगे शीशे पर उन्होंने उंगली घुमाई. धूल का एक कण तक न था. कमरे की चारों दीवारों पर नामी चित्रकारों की पेटिंग्स लगी हुई थीं.


शुरू से ही उन के अंदर कलात्मक चीजों के प्रति रुचि रही है. हमेशा से वे यही मानते रहे हैं कि जिंदगी को खुल कर और नफासत के साथ जीना चाहिए. उतारचढ़ाव तो जीवन के अभिन्न अंग हैं, उन से घबराने के बजाय उन का मुकाबला करना चाहिए. विडंबना तो देखो कि जिंदगी तो उन के साथ निरंतर खेल खेलती आई है और वह…


टेबल पर रखी फैमिली फोटोग्राफ को देख उन की आंखें नम हो आईं. उन्हें देख कर हर कोई कहता था, ‘हैप्पी फैमिली’, ‘परिवार हो तो आदित्य साहब जैसा’, ‘हम दो हमारे दो…आदित्य साहब ने सच में इसे अपनाया है,’ यह कहने वाले कहते थकते नहीं थे. वैसे भी उन के जिंदादिल स्वभाव और हर समय खुश रहने की आदत की वजह से उन के दोस्त और परिचितों की कतार बहुत लंबी थी. जीवनसंगिनी मिली तो वह भी वैसी ही थी.


कितना सुखी था उन का जीवन. शायद उन की अपनी ही नजर लगी होगी, वरना क्या सबकुछ इस तरह बिखरता? इतना बड़ा कारोबार, दिल्ली के एक पौश इलाके में आलीशान कोठी और 2 प्यारे बेटे. सारी सुखसुविधाएं और आपसी प्यार का लहराता समुद्र…सबकुछ अच्छा था. जीवन बहुत ही सहज गति से चल रहा था. लोग उन के परिवार की मिसालें दिया करते थे कि पतिपत्नी हों तो ऐसे, बेटे हों तो आदित्य साहब के जैसे. मानो कोई परी कथा सी हो उन की जिंदगी…


केबिन के दरवाजे पर दस्तक हुई तो झट से आदित्य ने अपनी नम हो आई आंखों को पोंछ डाला. अपनी चेयर पर पीठ टिकाते हुए बोले, ‘‘प्लीज कम इन.’’


पिछले 1 महीने की सारी प्रोग्रैस रिपोर्ट, फाइनैंशियल स्टेटमैंट, ट्रांजैक्शंस, सब देखे. तसल्ली इस बात की थी कि उन के न होने पर भी सबकुछ ठीक ढंग से हुआ था.

राजन साहब फाइलें ले कर आए थे और लगभग 1 घंटे तक वे दोनों उन में डूबे रहे. पिछले 1 महीने की सारी प्रोग्रैस रिपोर्ट, फाइनैंशियल स्टेटमैंट, ट्रांजैक्शंस, सब देखे. तसल्ली इस बात की थी कि उन के न होने पर भी सबकुछ ठीक ढंग से हुआ था.


‘‘राजन साहब, नो डाउट, आप का मैनेजमैंट बहुत अच्छा है. हर काम बखूबी संभाला हुआ है आप ने. जहां आप जैसे ईमानदार व भरोसेमंद लोग हों वहां कंपनी कभी घाटे में जा ही नहीं सकती,’’ आदित्य ने उन्मुक्त ढंग से उन की प्रशंसा की.


‘‘सर, यह तो आप का बड़प्पन है कि आप गलतियों को भी नजरअंदाज कर देते हैं और सामने वाले को मौका देते हैं कि वह अपनी गलती सुधार ले. वैसे भी यह सब आप के मार्गदर्शन से ही संभव हो पाया है. वैसे, अभी आप कैसा फील कर रहे हैं? कमजोर तो हो ही गए हैं आप? रिकवर होने में समय लग जाएगा. अभी आप को थोड़ा और आराम करना चाहिए था.’’


‘‘मैं ठीक हूं, राजन साहब. कमजोरी भी भर जाएगी. बाकी अब इस बात के लिए घर पर तो बैठा नहीं जा सकता है. आप तो जानते ही हैं कि काम के बिना छटपटाहट होने लगती है मुझे. और फिर घर में मन ही कहां लगता है,’’ कहतेकहते वे अचानक चुप हो गए. इस तरह से किसी के सामने वे अपनी तकलीफों व दुखों का पिटारा खोल कर बैठना पसंद नहीं करते थे, इसलिए तुरंत अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर वे बोले, ‘‘जातेजाते गोपाल को भेज दीजिएगा.’’


गोपाल को कौफी लाने को कह वे फिर काम में डूब गए.


गोपाल कौफी ले आया था.


‘‘गोपाल, तुम्हारी बेटी की पढ़ाई कैसी चल रही है? 12वीं की परीक्षा देगी न इस बार? तुम्हारे पिताजी रिटायर होने वाले होंगे, तुम किसी बात की चिंता मत करना. बेटा पढ़ाई पूरी कर लेगा तो यहीं औफिस में लगा देंगे उसे.’’


गोपाल हाथ जोड़ कर उन के सामने नतमस्तक हो गया, ‘‘साहब, आप बड़े दयालु हैं. सब की दुखतकलीफ को ले कर चिंतित रहते हैं, फिर भी न जाने क्यों…’’ कहतेकहते वह चुप हो गया. क्या बोलने जा रहा था वह, मालिक के सामने उन के ही जख्मों को छीलने की हिमाकत कर रहा था.


‘‘ठीक है गोपाल, और कुछ चाहिए होगा तो बुला लूंगा,’’ आदित्य ने ही उसे उलझन से बाहर निकाला.


आखिर गोपाल की या किसी और की गलती भी क्या है. जो भी उन्हें जानता है, वह उन के आघातों से भी परिचित है. फिल्मी जीवन में जैसे एक के बाद एक घटनाएं घटित होती हैं, ऐसी असल जिंदगी में हों तो आश्चर्य


व नियति के खेल पर अचंभा होना स्वाभाविक ही है. फैमिली फोटोग्राफ में मुसकराती उन की पत्नी शेफाली और उन के दाएंबाएं 2 मजबूत खंभों की तरह खड़े उन के बेटे. शेफाली एक आम गृहिणी, पति खुश, बच्चे खुश और कोई चाह नहीं. हमेशा खिलखिलाती रहती. वे कभी परेशान होते तो झट उन के कंधों को दबा, बिना कुछ कहे जता देती कि फिक्र मत करना, मैं सदा तुम्हारे साथ हूं. न कभी किसी चीज का उलाहना दिया न शिकायत की.


विवाह के आरंभिक दिनों में उन का कारोबार नया था. तब बहुत पैसे नहीं थे उन के पास. फिर मांबाप, भाईबहन की जिम्मेदारी थी. तब भी शेफाली ने कभी पैसों की तंगी का रोना नहीं रोया. न ही पैसा आने के बाद वह सातवें आसमान में उड़ने लगी. एक प्रवाह में बहते हुए वह हर समय खुश रहा करती थी. तब किसे पता था कि एक दिन उस के होंठों से हंसी गायब हो जाएगी.


दरवाजे पर खटखट हुई.


‘‘सर, लंचटाइम हो गया है. खाना लगा दूं?’’ गोपाल ने पूछा.


खाना खातेखाते कमरे की खिड़की के बाहर खड़े पीपल के पेड़ पर उन की नजर गई. आज सुबह से ऐसी व्यस्तता थी कि उसे देखा ही नहीं था. कैसी तो हिम्मत आती है उसे देख कर. एक भव्यता और विस्तार का एहसास देता है, मानो किसी संबल से कम न हो. कितनी अडिगता से खड़ा रहता है यह पेड़ क्योंकि जानता है कि सुखदुख तो आतेजाते रहते हैं. गरमियों में उस की छांव को लोग पसंद करते हैं तो सर्दियों में उस के पत्ते झड़ते ही लोग उस से दूर भागते हैं.


सौरभ, उन के बड़े बेटे को भी कितना पसंद था यह पेड़. जब भी आता उस के पत्तों को अवश्य सहलाता. बीते दिन उन के मानसपटल पर छाने लगे थे. उस समय 16 बरस का था वह जब अचानक उस की तबीयत बिगड़ने लगी, हमेशा गला खराब रहता. शरीर में कमजोरी रहने लगी. पहले तो सोचा कि वैसी ही मौसमी बीमारी होगी. बाजार का उलटासीधा खाते हैं बच्चे, इसलिए गले में इन्फैक्शन हो गया होगा. पर जब इन्फैक्शन लगातार बना रहा तो टैस्ट कराने पर पता चला कि उसे गले का कैंसर है. शेफाली और वे दोनों ही सकते में आ गए थे. पर वे शेफाली को समझाते, ‘चिंता क्यों करती हो, शेफाली. आजकल टैक्नोलौजी इतनी एडवांस हो गई है कि इलाज संभव है. वरना विदेश में इलाज कराएंगे. तुम हिम्मत रखो.’ इलाज तो उन्होंने बहुत कराए पर सब व्यर्थ गया. उस की मौत ने तब पहली बार उन की खुशियों पर प्रहार किया था.


बेटे की मौत का गम शेफाली के लिए बरदाश्त करना संभव न था. वे तो दिनभर काम में डूबे रहते थे, इसलिए मन लग जाता था, पर शेफाली तो जैसे काठ की हो गई थी. दिनरात बस बेटे को याद कर रोती रहती. कहती, ‘सौरभ को जाना था तो वह आया ही क्यों था. पहले की तरह पैदा होते ही मर जाता तो कम से कम प्यार तो नहीं पनपता. क्यों सपने दिखाने के बाद यों इस तरह छोड़ कर चला गया.’



आदित्य उस के दर्द से भीगे चेहरे को हथेली में थाम उसे दिलासा देने की कोशिश करते. उन के एक बेटे की मृत्यु पैदा होते ही हो गई थी क्योंकि उस के दिल में छेद था. सौरभ की पैदाइश के समय भी बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, लेकिन वह स्वस्थ पैदा हुआ था. फिर गौरव के जन्म के समय औपरेशन करना पड़ा था. शेफाली एक बेटे को खोने के बाद दोनों बेटों को ले कर बहुत ही पजैसिव हो गई थी.


मि. जय ने आदित्य की ओर देख सहमति में सिर हिलाया. गे्रशर्ट और ब्लैक टाई में उन का व्यक्तित्व निखर रहा था.

सौरभ का चले जाना उसे शरीर के साथ मानसिक तौर पर भी आघात दे गया.


इंटरकौम बजा, ‘‘सर, फ्री हों तो आ सकता हूं?’’ मि. जय थे.


‘‘आइए, मि. जय, आ जाइए.’’


‘‘सर, ये 3 कांट्रैक्ट आप की अनुपस्थिति में साइन किए गए थे. इन्हें देख लीजिए.’’


कांट्रैक्ट पर नजर डालते हुए वे बोले, ‘‘मि. जय, ध्यान रखिएगा कि कांट्रैक्ट की शर्तों का पूरा पालन हो. मुझे क्लाइंट्स से कोई शिकायत सुनने को न मिले.’’


मि. जय ने आदित्य की ओर देख सहमति में सिर हिलाया. गे्रशर्ट और ब्लैक टाई में उन का व्यक्तित्व निखर रहा था. गोल्डन फ्रेम का चश्मा उन को बहुत सूट करता है. कौन कहेगा कि उन की उम्र 55 वर्ष है. 40 से ज्यादा के नहीं लगते हैं. स्मार्टनैस और लुक इंसान के नेक विचारों से भी आते हैं. होंठों पर हमेशा मुसकान खिली रहती है और चेहरे पर एक अजीब सी शांति. उन के पास आ कर लगता मानो हर तरफ जीवन हिलोरें ले रहा हो. इतनी जीवंतता…आखिर कैसे वे दुखों के साथ यों सामान्य रह पाते हैं?


‘‘एनी थिंग ऐल्स, मि. जय? बाई द वे, आप की बेटी के लिए कोई लड़का मिला? देखिए, जल्दबाजी मत करिएगा, आप की बेटी पढ़ीलिखी है, अच्छी नौकरी कर रही है. उपयुक्त साथी ही उसे मिलना चाहिए.’’


‘‘थैंक्स, सर,’’ मि. जय इतना ही बोल पाए. जिस इंसान की खुद की जिंदगी वीरान हो वह दूसरों की हर छोटी बात याद रखे तो उस के लिए मन में सम्मान के सिवा और कुछ आ ही नहीं सकता है.


3 बज रहे थे. आदित्य को अब थोड़ी थकान महसूस होने लगी थी. ऐक्सिडेंट हुए 1 महीना हो चुका था, पर अभी डाक्टर ने चलनेफिरने से मना किया था. गोपाल की मदद से वे कमरे में रखे दीवान पर लेट गए. लेटे तो बंद आंखों ने फिर से बीती यादों को सामने ला खड़ा किया. शेफाली गुमसुम रहने लगी थी. यहां तक कि गौरव के प्रति भी उदासीन हो गई थी. कमरे में अकेले बैठी रहती. वे कहीं चलने को कहते तो वह मना कर देती. अंदर की घुटन फिट्स के रूप में बाहर आने लगी. उसे मिर्गी के दौरे पड़ने लगे. जबतब चक्कर खा कर गिर जाती. किसी चीज की सुधबुध नहीं रहती थी. हंसना तो मानो भूल गई थी. जब उसे हार्टअटैक आया तो उन के होश ही उड़ गए थे. बेटे का जाना और फिर शेफाली का लगातार बीमार रहना… बेशक वे परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने पर विश्वास नहीं करते थे, पर दर्द तो उन्हें भी होता था.


लोगों ने सलाह दी कि गौरव की शादी कर दो, बहू आ जाएगी तो शेफाली का तो मन लगा रहेगा. वे नहीं चाहते थे कि गौरव की शादी इतनी जल्दी हो. वह एमबीए कर रहा था और अभी उसे कारोबार संभालने की समझ भी नहीं थी. इस से उस की पढ़ाई पर भी असर पड़ सकता था, पर शेफाली की मनोदशा देख वे मोना को बहू बना कर ले आए. कुछ समय के लिए परिवर्तन की लहर देखी थी उन्होंने शेफाली के अंदर. मोना उस का बहुत खयाल रखती थी. उसे जबरदस्ती बाहर घुमाने ले जाती. लेकिन सब बेकार ही गया. इधर, उन का कारोबार निरंतर बढ़ रहा था इसलिए गौरव पढ़ाई छोड़ कर उन की मदद करने लगा.


यह सब सोच ही रहे थे कि उन की टांगों में दर्द महसूस हुआ. दवा का समय भी हो गया था. हिम्मत कर वे खुद व्हीलचेयर पर बैठ गए. वे तो चाहते थे कि कोई सपोर्ट ले कर वे चलें, पर डाक्टर ने ही उन्हें कुछ समय ऐसा न करने की हिदायत दी थी. गोपाल ने आ कर दवा दी और ए सी के टैंप्रेचर को धीमा किया. कमरा कुछ ज्यादा ही ठंडा हो गया था. वापस चेयर पर आ कर बैठ गए. वे सोचने लगे कि कितना पेंडिंग वर्क पड़ा है…यों लेटने से काम नहीं चलेगा.


तभी मोबाइल बजा, ‘‘आदित्य, यह मैं क्या सुन रहा हूं. अभीअभी औफिस पहुंचा तो असिस्टैंट ने बताया कि तुम वसीयत में कुछ बदलाव करना चाहते हो? कितनी बार वसीयत बदलवाते रहोगे?’’ दूसरी ओर रंजन थे. आदित्य के वकील और गहरे मित्र भी.


‘‘यार, मैं वसीयत नहीं बदलवाऊंगा तो तुम्हारी कमाई कैसे होगी?’’ दोनों के ठहाके फोन पर गूंज उठे, ‘‘शेफाली के शेयर्स भी हैं, उन्हें भी ट्रांसफर करना है. ऐसा करो, शाम को औफिस चले आओ. गप्पें भी मार लेंगे और कुछ काम भी हो जाएगा. वैसे भी सारा दिन यहांवहां घूमते रहते हो, मोबाइल तक नहीं उठाते, इस बहाने कुछ काम ही कर लोगे,’’ आदित्य ने मजाकिया अंदाज में रंजन को छेड़ा.


‘‘आता हूं, पर शाम को बढि़या सा नाश्ता मंगा कर रखना.’’


वे दोनों कालेज के जमाने के दोस्त थे, इसलिए हंसीमजाक की उन दोनों के बीच कभी कोई सीमा न रही. दोनों जब साथ बैठते हैं तो तीसरे की उपस्थिति का भी भान नहीं रहता है. शादी के बाद जब भी शेफाली उन के साथ बैठती तो कुछ देर बाद ही उठ कर चली जाती थी और रंजन को छेड़ती थी, ‘क्या भाईसाहब, आप आते हैं तो मेरा पति पराया हो जाता है. आप शादी करने की गलती मत करना, मैं तो बरदाश्त कर लेती हूं, पता नहीं आप की पत्नी करेगी या नहीं.’ पर वे बहुत पहले की बातें हैं. बेटे के सदमे और बीमारी के कारण वे इतनी चिड़चिड़ी हो गई थीं कि उसे रंजन का आना तक अखरता था, एक तो आप के पास वैसे ही टाइम नहीं रहता है, उस पर से इसे घर पर बुला लेते हो. औफिस में ही अपनी महफिल जमाया कीजिए.


बहुत दिन तक शेफाली जीवित नहीं रही थी. पोता निकुंज उस समय 6 महीने का था, जब वह उन्हें छोड़ कर चली गई. रिक्तता पसर गई थी हर ओर, पर कहते हैं न कि सांसें जब तक हैं, इंसान को जीने के लिए जद्दोजहद करनी ही पड़ती है, इसलिए वे भी एक बार फिर से उठ खड़े हुए थे. अपनी व्यस्तता बढ़ा दी थी. आज तो सुबह से कोई न कोई उन के पास आ ही रहा था. जब उन्हें पता चला कि नए लड़के रोहित की वजह से उन्हें नया टैंडर मिला है तो उन्होंने उसे बुलाया, ‘‘रोहित, हालांकि मेरा और तुम्हारा परिचय ज्यादा नहीं है, पर तुम्हारी तारीफ राजन साहब से बहुत सुन चुका हूं. मैं चाहता हूं कि तुम ही इस प्रोजैक्ट को संभालो. आज से तुम्हें प्रोजैक्ट हेड बनाया जाता है.’’


आज तक जितना सर के बारे में सुना था उस से कहीं ज्यादा नरम दिल और अंडरस्टैंडिंग हैं वे तो.

‘‘थैंक्यू सर, पर दिक्कत यह है कि कुछ दिनों बाद मेरी बहन की शादी है


और मुझे छुट्टी लेनी पड़ेगी,’’ रोहित ने हिचकते हुए कहा.


‘‘कोई बात नहीं, प्रोजैक्ट साल में नहीं, डेढ़ साल में खत्म हो जाएगा. चिंता मत करो और अपनी बहन की शादी में बुलाना मत भूलना. एडवांस चाहिए तो ले लेना.’’


अवाक् रोहित सिर हिलाते हुए चला गया. आज तक जितना सर के बारे में सुना था उस से कहीं ज्यादा नरम दिल और अंडरस्टैंडिंग हैं वे तो. कैसे बिना कहे दूसरों की तकलीफों को समझ लेते हैं.


तभी फिर रंजन का फोन आया. ‘‘आदित्य, मोना के पति के नाम तुम ने जो वसीयत की थी, उसे भी तो बदलना होगा न? उस के भी कागज तैयार कर लाऊं?’’


‘‘हां, सब चीजें सैटेल हो जाएं तो मुझे तसल्ली हो जाएगी. निकुंज के नाम पर भी जमीनजायदाद करनी है. आएगा तो बताता हूं.’’


पोते का जिक्र आते ही एक बार फिर से वे जिंदगी के उन टुकड़ों को बटोरने की कोशिश करने लगे जो पीछे छूट गए थे. शेफाली के जाने के बाद गौरव, मोना और निकुंज में ही वे अपनी खुशियां तलाशने लगे. तब कोई 3 साल का होगा निकुंज, गौरव काम से जयपुर गया था. रात को हाइवे पर एक ट्रक ने ऐसी टक्कर मारी कि उस की कार 3-4 बार उलटती गई. गौरव की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. इस से ज्यादा भयानक और क्या हो सकता है कि एक पिता अपने दोनों बेटों को खो दे और जवान बहू व नन्हे पोते को धीरज बंधाने को मजबूर हो. आदित्य को ऐसा करना पड़ा. मोना के वे पिता बन गए.


गोपाल शाम की चाय टेबल पर रख गया था. गोपाल के पीछेपीछे पुराना चपरासी रघुवीर भी चला आया. ‘‘साहब, आप के लिए एक जानेमाने बाबा की भभूत और प्रसाद लाया हूं. इन्हें ले लें, शायद कुछ फर्क पड़े. वैसे भी अगर आप कहें तो मैं उन बाबा से आप को मिलवा सकता हूं. वे चेहरा देख कर बता देते हैं कि क्या होगा. न हो तो आप घर पर हवन करवा लें.’’


‘‘रघुवीर, ये बाबा, पंडित कुछ कर पाते तो क्या जो हुआ वह न होता. ये सब केवल मूर्ख बनाते हैं. तुम्हें क्या लगता है इस भभूत को लगाने या प्रसाद खाने से सब ठीक हो जाएगा. ऐसा होता तो तुम्हारी बेटी को लकवा क्यों मारता? उस के लिए तो तुम रोज ही पूजा करते हो न? इन्हें तुम बाहर ले जाओ. मेरे औफिस में इन पाखंडों की कोई जगह नहीं है.’’


चाय पीतेपीते उन्हें याद आया कि निकुंज ने आज केक ले कर आने को कहा है. औफिस से सीधे उसी के पास चले जाएंगे. वैसे भी एक हफ्ता हो गया है उसे देखे. मोना की उम्र और अकेलापन उन्हें डराता रहता है. वैसे भी इस समाज में जवान बहू ससुर के साथ अगर रहे तो कई सवाल उठ खड़े होते हैं. मोना के लाख मना करने पर भी उन्होंने उस की दूसरी शादी कर दी और निकुंज को अपने पास रख लिया.


राज समझदार लड़का था और घर में केवल मां थीं. दोनों उन से और निकुंज से मिलने आते और जब निकुंज राज से घुलमिल गया तो वे उसे अपने साथ ले गए. वे चाह कर भी न रोक पाए, एक बेटे को मां से अलग करना मुमकिन नहीं था. पर नियति तो शायद उन की परीक्षाएं लेने को आतुर थी, इसलिए तो विवाह के 8 महीने बाद राज के अचानक सीने में दर्द उठा और अस्पताल पहुंचने से पहले ही उस ने दम तोड़ दिया.


मोना वापस नहीं लौटी क्योंकि वह अपनी सास को नहीं छोड़ना चाहती थी. कुछ नहीं कर सके वे. अब तो निकुंज भी 5 साल का हो गया है. अपने दादू पर जान छिड़कता है. उस के जन्मदिन पर मिलने जा रहे थे कि सड़क पर भागते एक बच्चे को बचाने के प्रयास में ड्राइवर का संतुलन बिगड़ गया और कार साइड रेलिंग से टकरा गई. वे बाहर जा गिरे और एक पत्थर से टकराने से उन की टांगों में गहरी चोट आई. ड्राइवर को एक खरोंच तक नहीं आई. 20 दिन अस्पताल में रहे.


इस बीच, दरवाजा खुला तो देखा रंजन है. उसे देख उन के होंठों पर मुसकान थिरक उठी, ‘‘आ गया, मुझे चूना लगाने. बता, कितने कागज तैयार किए हैं. पैसे ऐंठने हैं तो कैसा भागाभागा आ गया.’’


‘‘यह देख, जो तू ने राज के नाम वसीयत की थी उसे बदल कर मोना के नाम कर दिया है और भाभी के शेयर्स और ज्वैलरी भी तू मोना को देना चाहता है. बिजनैस और घर निकुंज के नाम लिखा है, पर तेरे बाद उस की गार्जियन मोना.’’


‘‘हां ठीक है,’’ आदित्य ने पेपर पर साइन करते हुए कहा.


‘‘आदित्य, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि तू कैसे इतने सारे जख्मों को सहता आ रहा है. कभी टीस नहीं हुई? कभी हताशा नहीं उपजी मन में?


मौत कैसा तांडव करती रही है तेरी जिंदगी में.’’


‘‘कैसी हताशा, रंजन? जख्म हैं, दुख है, पर मौत से क्या हारना. उस से क्या डरना. ऐसा तो नहीं है कि जीवन में हमेशा सुख ही रहेगा. हम आखिर ऐसी गारंटी ले कर चलते ही क्यों हैं कि दुख हमारे पास फटकेगा नहीं और सुख हमेशा बांहें फैलाए खड़ा रहेगा.


‘‘वह पीपल का पेड़ देख रहे हो न. इस वक्त कैसा हराभरा है. उस के मुलायम पत्ते हवा में लहरा रहे हैं, क्योंकि अभी वह खिल रहा है, वह सुख के हिंडोले में झूल रहा है. जब मौसम बदलेगा तो इसी पेड़ के पत्ते सूख कर गिर जाएंगे. वह कितना खाली हो जाएगा. तो क्या वह जीना छोड़ देगा? नहीं न. मौसम बदलेगा तो यह फिर हराभरा हो जाएगा. यह जीवन भी ऐसा ही है, तब मौत के सामने घुटने क्यों टेकें?’’


आदित्य व्हीलचेयर पर बैठे, रंजन ने उन की चेयर को पुश करना चाहा पर उन्होंने रोक दिया. स्वयं से चलाते हुए वे केबिन के बाहर आ गए. शाम के 7 बज रहे थे. ड्राइवर को केक शौप पर गाड़ी ले जाने को कह उन्होंने निकुंज को फोन मिलाया.


‘‘नमस्ते दादू,’’ निकुंज की मासूमियत से भरी चहकती आवाज सुन उन्हें लगा कि हरियाली और साफ मौसम की खुशबू दूर से भी महसूस की जा सकती है. उन्हें लगा कि निकुंज की नन्ही बांहें नई कोंपलों की तरह उन से लिपटी हुई हैं.

'