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कहानी: दुनियादारी

सुधा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी कि टैलीफोन की घंटी बज उठी. बाल बनातेबनाते उस ने रिसीवर हाथ में लिया. उधर से आवाज आई, ‘‘सुधा, मैं माला बोल रही हूं.’’

‘‘नमस्ते जीजी.’’


‘‘खुश रहो. क्या कर रही हो? प्रोग्राम बनाया अजमेर आने का?’’


‘‘जी, अभी तो बस स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी.’’


‘‘स्कूल में ही उलझी रहोगी या अपने परिवार की भी कोई फिक्र करोगी. तुम्हारे ससुर अस्पताल में भरती हैं, उन की कोई परवा है कि नहीं तुम्हें?’’


‘‘पर जीजी, उन की देखभाल करने के लिए आप सब हैं न. जेठजी, जेठानीजी व मामाजी, सभी तो हैं.’’


‘‘हांहां, जानती हूं, सब हैं, पर तुम्हारा भी तो कोई फर्ज है. दुनिया क्या कहेगी, कभी सोचा है? वह तो यही कहेगी न, कि बूढ़ा ससुर बीमार है और बहू को अपने स्कूल से ही फुरसत नहीं है.’’


‘‘पर जीजी, आप तो जानती ही हैं कि अभी परीक्षा का वक्त है और ऐसे में छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल है. फिर मेरी कोई जरूरत भी तो नहीं है वहां. समीर वहां पहुंच ही गए हैं. वैसे भी बाबूजी को कोई गंभीर बीमारी नहीं है. सही इलाज मिल गया तो वे जल्दी ही घर आ जाएंगे. 2-4 दिनों में स्कूल के बच्चों की परीक्षा हो जाएगी तो मैं भी आ जाऊंगी.’’


‘‘भई, समीर तो अपनी जगह मौजूद है, पर तुम भी तो बहू हो. लोगों की जबान नहीं पकड़ी जा सकती. मेरी मानो तो आज ही आ जाओ. समाज के रीतिरिवाज और लोकदिखावे के लिए ही सही.’’


‘‘ठीक है जीजी, मैं देखती हूं,’’ कह कर सुधा ने फोन रख दिया और तैयार हो कर स्कूल के लिए चल पड़ी.


रास्तेभर वह सोचती रही कि जीजी ठीक ही कह रही हैं, मुझे वहां जाना ही चाहिए. चाहे यहां बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाए. पराए बच्चों के लिए मैं परिवार को तो नहीं छोड़ सकती.


तभी अंतर्मन से कई और आवाजें आईं, ‘छोड़ने के लिए कौन कह रहा है, 2-4 दिनों बाद चली जाना, वहां ज्यादा भीड़ लगाने से क्या होगा.


‘चाहे कुछ भी हो मुझे जाना ही चाहिए. वे मेरे पिता जैसे हैं, मेरा भी कुछ दायित्व है. स्कूल के प्रति कोईर् फर्ज नहीं? बच्चों के भविष्य के प्रति कोई दायित्व नहीं? बीमार व्यक्ति के प्रति दायित्व अधिक होता है और यदि वह ससुर हो तो और भी. वरना लोग कहेंगे कि पराया खून तो पराया ही होता है,’ सुधा का विवेक आखिरकार सुधा के सामाजिकदायित्व के आगे नतमस्तक हो गया.


अगले दिन सुधा सीधे अस्पताल पहुंची, ‘‘नमस्ते जीजी,’’ सुधा ने जीजी के पैर छूते हुए कहा.


‘‘खुश रहो, अच्छा किया आ गईं, बीमार आदमी का क्या भरोसा, कब हालत बिगड़ जाए. कुछ हो जाता तो मन में अफसोस ही रह जाता.’’


‘‘अच्छाअच्छा बोलो जीजी, ऐसे क्यों कह रही हो,’’ जीजी की बात सुन कर सुधा अंदर तक कांप उठी. उस का भावुक मन इस सचाई को स्वीकार नहीं कर पाता था कि इंसान का अंत निश्चित है और जीजी जितने सहज भाव से यह कह रही थीं, उस की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.


‘‘थक गई होगी, थोड़ा आराम कर लो. फिर कुछ खापी लेना.’’


‘‘पहले एक नजर बाबूजी को देख लेती.’’


‘‘देख लेना. वे कुछ बोल तो सकते नहीं. वैंटिलेटर पर हैं. तुम पहले नहाधो लो,’’ फिर समीर को आवाज लगा कर बोली, ‘‘जा, कुछ नाश्ता ले आ हमारे लिए. आज कचौड़ी खाने का मन हो रहा है, पास में ही गरमागरम कचौडि़यां उतर रही हैं.


5-7 कचौडि़यां और मसाले वाली चाय मंगा ले, बड़ी जोरों की भूख लगी है,’’ कह कर जीजी वहीं पालथी मार कर बैठ गईं.


सुधा हतप्रभ हो कर जीजी को देखने लगी. उसे अस्पताल में ऐसे वातावरण की उम्मीद न थी. जिस तरह जीजी फोन पर उसे नसीहत दे रही थीं उस से तो यह प्रतीत हो रहा था कि मामला बड़ा गंभीर है और वातावरण बोझिल होगा. यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. खैर, भूख तो उसे भी लग रही थी और कचौडि़यां उसे भी पसंद थीं.


‘‘सुधा अब जरा पल्लू सिर पर डाल कर रखना. सब मिलनेजुलने वाले आएंगे. यही समय होता है अपने घर की इज्जत रखने का.’’ नाश्ता करते ही जीजी ने सुधा को सचेत कर दिया जिस से सुधा को वातावरण की गंभीरता का एहसास फिर से होने लगा.


अस्पातल में मिलनेजुलने वालों का सिलसिला चल पड़ा. मौसीमौसाजी, छोटे दादाजी, मामाजी, उन के साले, बेटेबहू और न जाने कौनकौन मिलने आते रहे और जीजी सिसकसिसक कर उन से बतियाती रहीं. सुधा का काम था सब के पैर छूना और चायकौफी के लिए पूछना. वैसे भी, उस की कम बोलने की आदत ऐसे वातावरण में कारगर सिद्ध हो रही थी.


3-4 दिनों बाद बाबूजी की अचानक हालत बिगड़ने लगी. डाक्टर ने सलाह दी, ‘‘अब आप लोग इन्हें घर ले जाइए और सेवा कीजिए. इन की जितनी सांसें बची हैं, वे ये घर पर ही लें तो अच्छा है.’’


डाक्टर की बात सुनते ही सुधा बिलखबिलख कर रोने लगी पर जीजी सब बड़े शांतमन से सुनती रहीं और फिर शुरू हो गए निर्देशों के सिलसिले.


‘‘समीर, भाभी से कहना गंगाजल, तुलसीपत्र, आदि का इंतजाम कर लें. जाते समय रास्ते से धोती जोड़ा, गमछा, नारियल लेने हैं,’’ आदि जाने कितनी बातें जीजी को मुंहजबानी याद थीं. वे कहती जा रही थीं और सब सुनते जा रहे थे.


 


घर लाने के 3-4 घंटे बाद ही बाबूजी इस संसार से विदा हो गए. सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस समय बाबूजी के मृत्युशोक में निशब्द हो जाए या जीजी की तरह आगे होने वाले आडंबरों के लिए कमर कस ले.


सब काम जीजी के निर्देशानुसार होने लगे. आनेजाने वालों का तांता सा बंध गया. सुबह होते ही घर के सभी पुरुष नहाधो कर सफेदझक कुरता पायजामा पहन कर बैठक में बैठ जाते. बहू होने के नाते सुधा व उस की जेठानी भी बारीबारी स्त्रियों की बैठक में उपस्थित रहती थीं.


‘‘सुधा देख तो इस साड़ी के साथ कौन सी शौल मैच करेगी,’’ रोज सुबह जीजी का यही प्रश्न होता था और इसी प्रश्न के साथ वे अपना सूटकेस खोल कर बैठ जाती थीं.


सूटकेस है या साडि़यों व शौलों का शोरूम और वह भी ऐसे समय. सुधा अभी यह विचार कर ही रही थी कि जीजी बोलीं, ‘‘ऐसे समय में अपनेपरायों सब का आनाजाना लगा रहता है, ढंग से ही रहना चाहिए. यही मौका होता है अपनी हैसियत दिखाने का.’’


जीजी ने सुधा को समझाते हुए कहा तो उस का भावुक मन असमंजस में पड़ गया. वह तो बाबूजी की बीमारी की बात सुन कर 2-4 घरेलू साडि़यां व 1-2 शौल ही ले कर आई थी. उस ने सोचा था, ऐसे समय में किसे सजधज दिखानी है, माहौल गमगीन रहेगा. पर यहां तो मामला अलग ही था. जीजी तो थीं ही सेठानी, घर की अन्य स्त्रियों के भी यही ठाट थे. नहाधो कर बढि़या साडि़यां पहन कर बतियाने में ही सारा दिन बीतता था. घरेलू काम के लिए गंगाबाई और खाना बनाने के लिए सीताबाई जो थीं.


‘‘जीजी, आज खाने में क्या बनेगा?’ सीताबाई ने पूछा तो जीजी ने सोचने की मुद्रा बनाई और बोलीं, ‘‘बाबूजी को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे, गट्टे की सब्जी और मिस्सी रोटी भी बना लो. दही, सब्जी, चावल तो रहेंगे ही. सलाद भी काट लेना. हां, जरा ढंग से ही बनाना. जाने वाला तो चला गया पर ये जीभ निगोड़ी न माने. ऐसीवैसी चीज न भाएगी किसी को.’’


‘‘हां जीजी, देखना ऐसा स्वादिष्ठ खाना बनाऊंगी कि ससुराल जा कर भी याद करेंगी.’’


सुधा मुंहबाए कभी जीजी की ओर देखती तो कभी सीताबाई की ओर. अभी तो बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए थे और यह मंजर.


खैर, बहती गंगा में हाथ धोने के अलावा चारा भी क्या था. सुधा भी वैसे ही करती जैसे अन्य सभी.


अचानक से बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई तो सभी चौंक पड़े.


‘‘अरे गोरखपुर वाले चाचाचाचीजी आए हैं. जा सुधा, जा कर बैठक में बैठ जा. हां, पल्लू सिर पर रखना. अभी बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए हैं. ज्यादा कचरपचर मत करना. चाची थोड़ी चालाक हैं. घर के अंदर की बात उगलवाना चाहेंगी. ध्यान रखना कुछ उलटासीधा मत बक देना.’’


सुन कर सुधा हक्कीबक्की रह गई. वही जीजी जो अभी तक परिधानों व पकवानों का चुनाव कर रही थीं, अचानक यों गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगी, सोचा भी न था उस ने.


सिर पर पल्लू ओढ़ कर सुधा चाचीजी के पास बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद चाचीजी से रहा न गया. वे पूछ ही बैठीं, ‘‘क्यों सुधा, बंटवारा तो कर गए न भाईजी, जायदाद तो काफी थी उन के नाम.’’


सुधा अब तक इस बेमौसम की बरसात की आदी हो चुकी थी, बोली, ‘‘चाचीजी, वह सब तो भाई लोग जानें. मैं तो अपने काम में इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन सब बातों के विषय में सोचने का भी समय नहीं मिलता.’’


अब तक चाचीजी की नजर सुधा के हाथों पर पड़ चुकी थी, ‘‘अरे, यह क्या, सोने की पुरानी चूडि़यां पहन रखी हैं. तेरे पास हीरे की चूड़ी है न. ऐसे मौके पर नहीं पहनेगी तो कब काम आएंगी?’’


जीजी तो जीजी, चाचीजी भी. सुधा हैरान थी. ये सब एक थैली के चट्टेबट्टे हैं या शायद दुनिया की यही रीत है.


उसे अब शर्मिंदगी महसूस होने लगी थी. अपनी नादानी पर भला उस के पास क्या कमी थी गहनों व साडि़यों की जो यों ही मुंह उठा कर चली आई. उस ने अपने हाथों के साथसाथ साड़ी को छिपाने की भी नाकामयाब कोशिश की. उसे लगा कि बिना किसी सजधज के आना उस की भावुकता नहीं, उस की मूर्खता की निशानी है.


उधर अंदर जीजी कीमती पशमीना शौल ओढ़े बतिया रही थीं. जब से बाबूजी की बीमारी की खबर सुनी, एक निवाला गले से न उतरा. दो साड़ी ले दौड़ी आई मैं तो. आखिर बाप था, कोई दूसरा थोड़े था. अरे कुछ जिम्मेदारी भी तो होती है बड़ों की. भाभियां तो मेरी भोली हैं, दुनियादारी नहीं जानतीं. सुधा, जीजी की इस बात से सहमत थी.


वह तो अब इस  सोच में थी कि जिस धूमधाम से बारहवें दिन की तैयारी करवाई जा रही थी, उस से तो निश्चित ही था कि बड़ी संख्या में मेहमान रहेंगे. सुधा ने एक नजर फिर अपनी साड़ी व चूडि़यों पर डाली. बारहवें दिन भी पहनने के लिए उस के पास इस से बेहतर विकल्प नहीं था और उस दिन चाचीजी जैसी कई और महान हस्तियों का आगमन हो सकता था.


वह बड़ी उलझन में पड़ गई. एक मन तो यह कह रहा था कि ऐसे वक्त में ऐसी सजधज दिखावा ठीक नहीं, दूसरी ओर वही मन उसे समझा रहा था, ‘तुझे भी उस दिन के लिए अच्छी साड़ी व चूडि़यों की व्यवस्था कर लेनी चाहिए क्योंकि यही दुनिया की रीत है और तू भी इसी दुनिया में रहती है.’

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