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बनारस में तवायफों ने की बाबा श्मशान नाथ गर्भगृह में पूजा, जलती चिताओं के बीच किया विहंगम नृत्य

ग़ाज़ीपुर न्यूज़ टीम, वाराणसी. बनारस के विश्व प्रसिद्ध श्मशान घाट पर जलती चिताओं के बीच नगर वधुओं (तवायफों) का विहंगम डांस किया। मणिकर्णिका घाट स्थित बाबा मसाननाथ के मोक्ष स्थल पर चिता-भस्म माथे पर लगाकर 10-15 तवायफों ने नृत्य की शुरूआत की जो करीब 5 घंटे से अधिक समय तक चली। 'बात मोरी मान भोले बाबा, मोर जोगिया के मनाय दा भोले नाथ' गाकर हर हर महादेव का जयघोष किया तो लोग मुग्ध हो गए।

पांव में घुंघरू की छम-छम, हाथ में चूड़ियों और कंगन की खनक से मशान की छवि ही बदल गई। गणिकाओं ने परदेसिया ये सच है पिया, ये कहती हूं तुमको दिल दे दिया और भोजपुरी गानों पर पूरा मसान घाट झूमा दिया है। आंखों में अगले जनम में वेश्यावृत्ति से मुक्ति की चाह लिए ये नगर वधुओं ने नृत्य किया।

कहा जाता है कि अगले जनम में वेश्यावृत्ति से दूर शिव सेवक बनने की कामना के लिए ये नगर वधुएं मसान घाट पर आती हैं। बाबा की आरती के बाद शास्त्रीय, भोजपुरी और तांडव गीतों पर अपने लटके-झटके दिखाती हैं।

बाबा मसाननाथ के श्रृंगार के बाद 10-15 नगर वधुओं ने नित्यांजली किया। बड़ी संख्या में लोग इनके लटके-झटके देखने के लिए उमड़ पड़े थे। कहा जाता है कि ये नगर वधुएं साल में बस इसी एक दिन भगवान से कोई कस्टमर नहीं, बल्कि मुक्ति मांगतीं हैं। अगले जन्म में महादेव की सेवक बनने की कामना लेकर ये तवायफ नृत्य करती हैं।

श्मशान घाट पर नगर वधुओं का नृत्य।

इसे अश्लीलता वाली नजरों से देखने के बजाय धर्म से जोड़कर समझा-परखा जाता है। समाज इन्हें खुद नाचने के लिए आमंत्रित करता है। आज की रात बाबा की भक्ति में घुंघरू और पायल छनकाते हुए पूरी रात नाचीं।

चैत्र नवरात्रि के पांचवें दिन से बाबा महा श्मसान नाथ का तीन दिवसीय वार्षिक श्रृंगार महोत्सव शुरू हो जाता है। पहले दिन बाबा मसाननाथ का शास्त्रोक्त विधि से पूजा, रुद्राभिषेक और आरती उतारी जाती है। दूसरे दिन भव्य भंडारा किया जाता है और रात में जागरण का कार्यक्रम होता है। वहीं, तीसरे दिन तांत्रोक्त विधि विधान से बाबा मसाननाथ का पूजन और अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के बाद नगर वधुओं की नित्यांजली दी।

जनश्रुति है कि अकबर के सेनापति राजा मान सिंह ने काशी में ही इस प्रथा की शुरुआत कराई थी। इतिहास के अनुसार, राजा मानसिंह ने मणिकर्णिका घाट पर बाबा मसाननाथ का मंदिर बनवाया था। यहां पर जलती चिताओं को देख कोई भी कलाकार भजन और नृत्य के लिए आने को तैयार नहीं हुआ। तो फिर नगर वधुओं को बुलाकर बाबा की साधना में भजन-कीर्तन कराया गया था। उसी के बाद से ये प्रथा बन गई।

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