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कहानी: 10 साल

वृद्धों का झकपना बहुत देखा था. ऐसे में देख कर भी जो सीख न ले तो महामूर्ख ही होगा. आखिरकार अपने आनंदमयी बुढ़ापे के लिए हम ने नुसखे वाकई बहुत बढि़या अपनाए.
जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

मेरी नानी से सभी बहुत परेशान थे. मैं तो डर के मारे कभी नानी के पास जाती ही नहीं थी. मुझे देखते ही उन के मुंह से जो स्वर निकलते, वे मैं तो क्या, मेरी मां भी नहीं सुन सकती थीं. कहतीं, ‘बेटी को जरा संभाल कर रख. कमबख्त, न छाती ढकती है न दुपट्टा लेती है. क्या खजूर की तरह बढ़ती जा रही है. बड़ी जवानी चढ़ी है, न शर्म न हया.’ बस, इसी तरह वृद्धों को देखदेख कर मेरे कोमल मन में वृद्धावस्था के प्रति भय समा गया था. वृद्धों को प्यार करो तो चैन नहीं, उन से न बोलो तो भी चैन नहीं. बीमार पड़ने पर उन्हें पूछने जाओ तो सुनने को मिलता, ‘देखने आए हो, अभी जिंदा हूं या मर गया.’ उन्हें किसी भी तरह संतोष नहीं.हमारे पड़ोस वाले बाबाजी का तो और भी बुरा हाल था. वे 12 बजे से पहले कुछ नहीं खाते थे. बेचारी बहू उन के पास जा कर पूछती, ‘बाबा, खाना ले आऊं?’

‘यशवंत खा गया क्या?’ वे पूछते.

‘नहीं, 1 बजे आएंगे,’ बहू उत्तर देती.

‘अरे, तो मैं क्या उस से पहले खा लूं? मैं क्या भुक्खड़ हूं? तुम लोग सोचते हो मैं ने शायद जिंदगी में कभी खाना नहीं खाया. बडे़ आए हैं मुझे खाना खिलाने वाले. मेरे यहां दसियों नौकर पलते थे. तुम मुझे क्या खाना खिलाओगे.’ बहू बेचारी मुंह लटकाए, आंसू पोंछती हुई चली आती. कुछ दिन ठीक निकल जाते. बेटे के साथ बाबा खाना खाते. फिर न जाने क्या होता, चिल्ला उठते, ‘खाना बना कि नहीं?’

‘बस, ला रहा हूं, बाबा. मैं अभी तो आया हूं,’ बेटा प्यार से कहता. ‘हांहां, अभी आया है. मैं सब समझता हूं. तुम मुझे भूखा मार डालोगे. अरे, मैं ने तुम लोगों के लिए न दिन देखा न रात, सबकुछ तुम्हारे लिए जुटाता रहा. आज तुम्हें मेरी दो रोटियां भारी पड़ रही हैं. मेरे किएकराए को तुम लोगों ने भुला दिया है. बीवियों के गुलाम हो गए हो.’ फिर तो चुनचुन कर उन्हें ऐसी गालियां सुनाते कि सुनने वाले भी कानों में उंगली लगा लेते. बहूबेटे क्या, वे तो अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ते थे. उन के पांव दबातेदबाते बेचारी कभी ऊंघ जाती तो कयामत ही आ जाती. बच्चे कभी घर का सौदा लाने को पैसे देते तो अपने लिए सिगरेट की डब्बियां ही खरीद लाते. न जाने फिर मौका मिले कि नहीं. सिगरेट उन के लिए जहर थी. बच्चे मना करते तो तूफान आ जाता.

यह वृद्धावस्था सचमुच ही बड़ी बुरी है. मालूम नहीं लोगों की उम्र इतनी लंबी क्यों होती है? अगर उम्र लंबी ही होनी हो तो उन में कम से कम सामंजस्य स्थापित करने की तो बुद्धि होनी चाहिए? ‘अगर मेरी भी उम्र लंबी हुई तो क्या मैं भी अपने घरवालों के लिए सनकी हो जाऊंगी? क्या मैं अपनी मिट्टी स्वयं ही पलीद करूंगी?’ हमेशा यही सोचसोच कर मैं अपनी सुंदर जवानी को भी घुन लगा बैठी थी. बारबार यही खयाल आता, ‘जवानी तो थोड़े दिन ही अपना साथ देती है और हम जवानी में सब को खुश रखने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन यह कमबख्त वृद्धावस्था आती है तो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. फिर अकेली भी तो नहीं आती, अपने साथ पचीसों बीमारियां ले कर आती है. सब से बड़ी बीमारी तो यही है कि वह आदमी को झक्की बना देती है.’

इसी तरह अपने सामने कितने ही लोगों को वृद्धावस्था में पांव रखते देखा था. सभी तो झक्की नहीं थे, उन में से कुछ संतोषी भी तो थे. पर कितने? बस, गिनेचुने ही. कुछ बच्चों की तरह जिद्दी देखे तो कुछ सठियाए हुए भी.देखदेख कर यही निष्कर्ष निकाला था कि कुछ वृद्ध कैसे भी हों, अपने को तो समय से पहले ही सावधान होना पड़ेगा. बाकी वृद्धों के जीवन से अनुभव ले कर अपनेआप को बदलने में ही भलाई है. कहीं ऐसा न हो कि अपने बेटे ही कह बैठें, ‘वाह  मां, और लोगों के साथ तो व्यवहार में हमेशा ममतामयी बनी रही. हमारे परिवार वाले ही क्या ऐसे बुरे हैं जो मुंह फुलाए रहती हो?’ लीजिए साहब, जिस बात का डर था, वही हो गई, वह तो बिना दस्तक दिए ही आ गई. हम ने शीशे में झांका तो वह हमारे सिर में झांक रही थी. दिल धड़क उठा. हम ने बिना किसी को बताए उसे रंग डाला. मैं ने तो अभी पूरी तरह उस के स्वागत की तैयारी ही नहीं की थी. स्वभाव से तो हम चुस्त थे ही, इसीलिए हमारे पास उस के आने का किसी को पता ही नहीं चला. लेकिन कई रातों तक नींद नहीं आई. दिल रहरह कर कांप उठता था.

अब हम ने सब पर अपनी चुस्ती का रोब जमाने के लिए अपने काम की मात्रा बढ़ा दी. जो काम नौकर करता था, उसे मैं स्वयं करने लगी. डर था न, कोई यह न कह दे, ‘‘क्या वृद्धों की तरह सुस्त होती जा रही हो?’’ज्यादा काम करने से थकावट महसूस होने लगी. सोचा, कहीं ऐसा न हो, अच्छेखासे व्यक्तित्व का ही भुरता बन कर रह जाए. फिर तो व्यक्तित्व का जो थोड़ाबहुत रोब है, वह भी छूमंतर हो जाएगा. क्यों न कोई और तरकीब सोची जाए. कम से कम व्यक् तित्व तो ऐसा होना चाहिए कि किसी के बाप की भी हिम्मत न हो कभी हमें वृद्धा कहने की. अब मैं ने व्यायाम की कई किताबें मंगवा कर पढ़नी शुरू कर दीं. एक किताब में लिखा था, कसरत करने से वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती और काम करने की शक्ति बढ़ जाती है. गुस्सा भी अधिक नहीं करना चाहिए. बस, मैं ने कसरत करनी शुरू कर दी. गुस्सा भी पहले से बहुत कम कर दिया.पूरा गुस्सा इसलिए नहीं छोड़ा ताकि सास वाली परंपरा भी न टूटे. हो सकता है कभी इस से काम ही पड़ जाए. ऐसा न हो, छोड़ दिया और कभी जरूरत पड़ी तो बुलाने पर भी न आए. फिर क्या होगा? परंपरा है न, अपनी सास से झिड़की खाओ और ज ब सास बनो तो अपनी बहू को बीस बातें सुना कर अपना बदला पूरा कर लो. फिर मैं ने तो कुछ ज्यादा ही झिड़कियां खाई थीं, क्योंकि हमें दोनों लड़कों को डांटने की आदत नहीं थी. यही खयाल आता था, ‘अपने कौन से 10-20 बच्चे हैं. लेदे कर 2 ही तो लड़के हैं. अब इन पर भी गुस्सा करें तो क्या अच्छा लगेगा? फिर नौकर तो हैं ही. उन पर कसर तो पूरी हो ही जाती है.’

मेरे बच्चे अपनी दादी से जरा अधिक ही हिलमिल जाते थे. यही हमारी सास को पसंद नहीं था. एक उन का चश्मा छिपा देता तो दूसरा उन की चप्पल. यह सारा दोष मुझ पर ही थोपा जाता, ‘‘बच्चों को जरा भी तमीज नहीं सिखाई कि कैसे बड़ों की इज्जत करनी चाहिए. देखो तो सही, कैसे बाज की तरह झपटते हैं. न दिन को चैन है न रात को नींद. कमबख्त खाना भी हराम कर देते हैं,’’ और जो कुछ वे बच्चों को सुनाती थीं, वह इशारा भी मेरी ओर होता था, ‘‘कैसी फूहड़ है तुम्हारी मां, जो तुम्हें इस तरह ‘खुला छोड़ देती है.’’ मेरी समझ में यह कभी नहीं आया, न ही पूछने की हिम्मत हुई कि ‘खुला छोड़ने से’ आप का क्या मतलब है, क्योंकि इंसान का बच्चा तो पैदाइश से ले कर वृद्धावस्था तक खुला ही रहता है. हां, गायभैंस के बच्चे की अलग बात है.

तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

दादी बनने का हक हम ने पूरी तरह निभाया. न तो हम ने अपने कपड़ों का ध्यान रखा, न ही चश्मे का. गीता हम इसलिए नहीं पढ़ते थे कि असली गीतापाठ तो यही है, सारा परिवार हमारे कर्मों से खुश रहे. हम पूरी तरह बच्चों को संभालने में रम गए. बहुओं को यह कह कर छुट्टी दे दी, ‘‘अभी तुम लोगों के खानेपीने के दिन हैं, मौज करो, बालगोपाल को हम संभाल लेंगे.’’ हम ने इस बात का बहुत खयाल रखा कि हम बच्चों को इतना प्यार भी न दें कि वे बिगड़ जाएं और हमारे बेटों को सुनना पड़े, ‘तुम्हारी मां ने तुम लोगों को तो इंसान बना दिया था, पर हमारे बच्चों को क्यों जानवर बना डाला?’ बच्चे बड़े हुए तो बहुत डर लगा, अब तक तो सब ठीक था. अब हुआ हमारे बुढ़ापे का कबाड़ा, न चश्मा मिलेगा, न कोई किताब, न ही चप्पलें. मसलन, हमें दिनभर अपने सामान की चिंता करनी पड़ेगी. अब सास की बड़ी याद आई, जिस ने हमारे बच्चों से परेशान हो कर हमें कहा था, ‘जब तुम सास बनो तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्गति हो.’

हम ने सास के अनुभव को याद कर के बड़ा फायदा उठाया. सास बच्चों को ले कर हमें कोसती थी. लेकिन मैं ने सोचा, ‘मैं बहुओं को नहीं कोसूंगी. उन से प्यार करूंगी. वे स्वयं अपने बालगोपाल को संभाल लेंगी.’ मेरा नुस्खा कारगर साबित हुआ. मैं कहीं भी चीज रख कर भूल जाती तो बच्चों से उन की मां कहती, ‘‘देखें, दादी मां को चीज ढूंढ़ कर कौन देता है.’’ असर यह हुआ कि वे हमारी चीज बिना गुमे ही ढूंढ़ने लगते. तुतला कर पूछते, ‘‘दादी मां, तुच्छ दुमा तो नहीं. धूंध लाऊं.’’ मुझे खानेपीने में देर हो जाती तो वे हम से रूठ जाते. हमारे मुंह में बिस्कुट डाल कर कहते, ‘‘पहले हमाला बिचकत था लो, नहीं तो हम तुत्ती कल देंगे.’’ और अपना हिस्सा खुशीखुशी हमारे पोपले मुंह में डाल देते. मैं खुश हो कर सोचती, ‘अब यह वृद्धावस्था बनी ही रहे तो अच्छा है. कहीं जल्दी चली न जाए.’ अब तो विजयश्री पूरी तरह मेरे हाथ थी. छोटे से ले कर बड़े तक हमारे गुण गाते नहीं थकते थे. आतेजाते के सामने हमारी प्रशंसा होती. पतिदेव की खुशी का ठिकाना नहीं था. हमेशा याद दिलाते, ‘‘तुम्हारी बुद्धिमत्ता से अपनी वृद्धावस्था बड़े मजे में कट रही है.’’ हम ने भी बच्चों को खुश रखने का गुण सीख लिया है. रात को सोने से पहले उन्हें कहानी जरूर सुनाता हूं.

अब घर में कुछ भी आता, हमारा हिस्सा जरूर होता. सब के कपड़ों के साथ हमारे कपड़े भी बनते, जिसे हम खुशी से बहुओं में ही बांट देते. हमारे बालगोपाल तो हमारा इतना ध्यान रखते कि हमें अकेला छोड़ कर वे अपने मांबाप के साथ भी कहीं जाने को तैयार नहीं होते थे.

हम नन्हेमुन्नों को कहानियां ही ऐसी सुनाते थे कि फलां परी का पोता, अपनी दादी से इतना प्यार करता था, उस का इतना खयाल रखता था कि सब उस की तारीफ करते थे. सभी उस बच्चे को बहुत प्यार करते थे. अब बच्चों में होड़ लग जाती कि कौन हमारा सब से अधिक खयाल रखता है ताकि आनेजाने वालों के सामने उस की प्रशंसा की जाए और उसे शाबाशी मिले. दूसरा काम मैं ने यह किया कि बच्चों को यह सिखा दिया कि अपने मम्मीडैडी का सब से पहले कहना मानना चाहिए. हमें डर था कि कहीं बच्चे सिर्फ हमारा ही कहना मानते रहे तो हो सकता है, हमारे खिलाफ बगावत हो जाए और हम मोरचा हार जाएं. गजब तो उस दिन हुआ, जब इतना ज्यादा प्यार हमारे दिल को सदमा दे गया. हुआ यह कि हमारे नन्हेमुन्नों की मां एक बहुत सुंदर साड़ी लाई थी. वह हमें भी दिखाई गई. उस समय नन्हा भी मौजूद था. यह तो मैं बताना भूल ही गई कि घर में जो कुछ भी आता था, सब से पहले हमें दिखाया जाता था, क्योंकि हम ने अपनी बहुओं को बातोंबातों में कई बार जता दिया था कि हम तो अपनी सासजी को दिखाए बगैर कुछ पहनते ही नहीं थे. जब वे देख लेतीं तब हम उस वस्तु को अपनी अलमारी में शरण देते थे. सो, बहुओं की भी यह आदत बन गई थी. हमें पता था, हमारी सास तो जिंदा है नहीं, जो वे उस से वास्तविकता पूछने जाएंगी.

मैं बता रही थी न कि हमें साड़ी बहुत पसंद आई थी. नन्हा बोला, ‘‘दादी मां, यह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, बहुत अच्छी है,’’ हम ने प्यार करते हुए कहा.

‘‘तो यह तुम ले लो,’’ वह हमारे गले में बांहें डालता हुआ बोला.

‘‘मेरे तो बाल सफेद हो गए, बेटा. मैं इसे अब क्या पहनूंगी,’’ मैं ने मायूसी से कहा.

‘‘तो ऐसा करते हैं, दादी मां, इसे हम तुम्हारे लिए रख लेते हैं,’’ प्यार से बोला वह.

‘‘मेरे लिए क्यों रख लोगे?’’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘‘हम तुम्हारे ऊपर कफन डालेंगे,’’ वह भोलेपन से बोला था.

‘‘क्या बकवास कर रहा है, जानता है कफन क्या होता है?’’ मम्मी ने उसे डांटा.

‘‘हांहां, जानता हूं, सोमू की दादी मरी थी तो तुम ने डैडी से नहीं कहा था, ‘बहूबेटे ने अपनी मां पर बहुत अच्छा कफन डाला था.’ नन्हा झिड़की खा कर रोंआसा हो गया था. बस, इसी बात का सदमा मेरे मन में बैठ गया है. मैं सोचती हूं इतना प्यार भी किस काम का, जो मरने से पहले कफन भी संजो कर रखवा दे. मुन्ने ने जब से अपनी मां से साड़ी का कफन बनाने के लिए कहा था, वह साड़ी रख दी गई थी, शायद मुन्ने की मां के मन में कफन का नाम सुन कर वहम आ गया था. शायद इसीलिए उस ने उसे नहीं पहना. मेरी परेशानी का अंत नहीं है. मैं अब किस से कहूं, किस नीति का सहारा लूं? कहने से भी डरती हूं. परिवार वाले तो अलग, अपने पति से भी नहीं कह सकती कि मेरा कफन आ गया है. सोचती हूं, क्या कहेंगे, ‘कहां वृद्धावस्था आने से पहले ही मरना चाहती थी. अब जीवन से इतना मोह हो गया है कि मरना ही नहीं चाहती.’  अब तो मुन्ने पर गुस्सा कर के मन ही मन यही कहती हूं. ‘तेरा इतना प्यार भी किस काम का. काश, तू 10 साल बाद पैदा होता ताकि इतनी जल्दी मेरे कफन की व्यवस्था तो न होती.’
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