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कहानी: गृहप्रवेश

सभी लोग पार्टी में मस्ती कर रहे थें लेकिन मैं घबराई मन से उज्जवल की तरफ देख रही थी.

पीड़ा और विश्वासघात या तो पराजित कर देते हैं या एक शक्ति प्रदान करते हैं. और वह शक्ति वेदना को प्रेरणा की दृष्टि प्रदान कर देती है. आज सोचती हूं तो लगता है, किन परिस्थितियों में मैं ने अपने स्वप्नों की मृत्यु को होते देखा और फिर अपनी बुझती जीवनज्योति को फूंकफूंक कर कुछ देर और जीवित रखने की चेष्टा करती रही.


मैं बचपन से ही साहसी रही हूँ. मेरे मम्मीपापा मेरा विवाह विनय से करना चाहते थे. शूरू में मुझे भी विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी. मेरे एमएड पूरा होने के बाद हमारा विवाह होना तय हुआ. सरल स्वभाव का विनय मेरा अच्छा मित्र था. किंतु हमारे मध्य प्रेम जैसा कुछ नहीं था. उस समय मेरा मानना था कि मित्रता, विवाह के पश्चात प्रेम का रूप खुद ही ले लेगी. परंतु तब मैं कहां जानती थी कि प्रेम एक ऐसी वृष्टि का नाम है जो अबाध्य है. जब उज्ज्वल नाम का एक बादल मेरे तपते जीवन में ठंडक ले कर आया, मैं पिघलती चली गई थी.


मेरा बंजर ह्रदय उज्ज्वल के प्रेम की वर्षा में भीग गया और मम्मीपापा के निर्णय के खिलाफ़ जा कर मैं ने उज्ज्वल से विवाह कर लिया था. हमारे विवाह के समय तक मेरी नौकरी एडहौक टीचर के रूप में एक प्राइवेट कालेज में लग गई थी. उज्ज्वल चार्टर्ड अकाउंटेंट था. थोड़े से विरोध के बाद दोनों परिवारों ने हमारा रिश्ता मंजूर कर लिया. हम प्यार में थे, खुश थे.


परिवर्तन एक दैनिक प्रक्रिया है. हमारा जीवन भी बदला. विवाह के 12 वर्ष सपनों की नदी पर नंगेपैर चलते हुए पार हो गए.


उज्ज्वल के नाम और काम दोनों में बढ़ोतरी हुई. उस ने   अपना कर्मस्थल लखनऊ से बदल कर इंदौर कर लिया. और मैं ! मेरे वर्क प्रोफाइल में भी परिवर्तन आया था. पार्टटाइम शिक्षिका के स्थान पर अब मैं फुलटाइम प्रशिक्षक बन गई थी. मैं मां भी बन गई थी.


स्त्री के भीतर एक मां का जन्म कोई सामान्य घटना नहीं होती. एक बालिका जब एक युवती, बनती है और जब यही युवती एक प्रेयसी बनती है, तो उस का हृदय अनेक भावनात्मक परिवर्तनों से हो कर गुजरता है. हृदय और शरीर में संघर्ष होता है, और फिर इन की इच्छाओं व संवेदनाओं का परस्पर मिलन हो जाता है.


किंतु जब प्रेयसी मां बनती है तो परिवर्तनों के एक अथवा दो नहीं, बल्कि अनेक स्याह गुफाओं  से हो कर आगे बढ़ती है. गर्भावस्था के प्रथम प्रहर में एक प्रेयसी खुद को मां के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाती. फिर शरीर में आ रहे परिवर्तन उसे एक नवजीवन का, खुद के भीतर अनुभव प्रदान करते हैं. मातृत्व की यह भावना शब्दों के परे होती है. मात्र शिशु को जन्म दे देने से कोई महिला मां नहीं बन जाती, खुद के भीतर मातृत्व का जन्म होना आवश्यक है.


मेरे बेटे स्नेह का जन्म हुआ और मुझे लगा, मेरी जीवन की बगिया में वसंत खिल रहा हो. किंतु, मैं अपनी बगिया के अंतिम कोने में छिप कर बैठे पतझड़ को देख ही नहीं पाई, और जब देखा, वसंत जा चुका था.


हर घर की एक गंध होती है. किंतु, इसे ववह ही पढ़ सकता है, जिस ने घर की दीवारों और वस्तुओं से ले कर, रिश्तों को भी सजाने व संवारने में अपने सौरभ बिखेरा हो. इसलिए, अपने घर में उस अनाधिकार प्रवेश करने वाली अजनबी गंध को मैं ने भांप लिया था.


कुछ दिन इसे अपनी भूल समझ, मैं ने स्वीकार नहीं किया. लेकिन जब यह जिद्दी गंध अपनी उपस्थिति उज्ज्वल की कमीज पर छोड़ने लगी, तो मैं चुप न रह सकी.


‘तुम कोई नया परफ्यूम लगा रहे हो?’


‘नहीं तो, क्यों?’


गालों पर शेविंग क्रीम लगी होने के कारण चेहरे के भाव स्पष्ट नहीं थे, अलबता आंखें कुछ चुगली कर रही थीं. मैं उस की आंखों के संदेश को पढ़ने का प्रयास कर ही रही थी कि उज्ज्वल अपने गीले चेहरे को मेरे गालों पर मलते हुए बोला – ‘हमारी सांसों में तो आज भी आप महकती हैं. जिस के पास बगीचा हो वह कागज के फूलों में खुशबू क्यों ढूंढेगा’


मेरा मुखमंडल लज्जा से अरुण हो आया. प्यार से ‘धत…’ कह कर मैं ने उसे धकेल दिया और रसोई में नाश्ता बनाने चली गई थी.


अचानक मेरा हृदय कागज के फूल सा हलका हो कर उज्ज्वल के प्रति असीम कृतज्ञता से छलक उठा था. कैसी मूर्ख थी मैं, इतना प्यार करने वाले पति पर अविश्वास किया.


मेरी बुद्धि मेरे विश्वास को एक गुमनाम पत्र लिख चुकी थी. सबकुछ ऊपर से सामान्य नजर आ रहा था, लेकिन मेरे भीतर कुछ दरक गया था. मेरी नजरें जैसे कुछ तलाशती रहतीं. एक मालगाड़ी की तरह बिना किसी स्टेशन पर रुके, चोरों की भांति उज्ज्वल को निहारते, मैं जी रही थी. कभीकभी खुद के गलत होने का अनुभव भी होता.


फिर जब एक दिन ऐसा लगने लगा कि मैं इधरउधर से आई पटरियों के संगम पर हताश खड़ी हूँ,  तो दूर किसी इंजन की सर्चलाइट चमकी थी.


हम ने स्नेह के 10वें जन्मदिन पर शानदार पार्टी का आयोजन किया था. शाम होते ही मेहमान आने लगे थे. मैं और उज्ज्वल एक अच्छे होस्ट की तरह सभी का स्वागत कर रहे थे. तभी जैसे उज्ज्वल की आंखों में एक सुनहरी पतंग सी चमक गई, और उस के होंठों ने गोलाकार हो कर एक नाम पुकारा – ‘मो…’


मैं नाम तो नहीं सुन नहीं पाई लेकिन उस सुनहरी पतंग की डोरी को थामे उस चेहरे तक अवश्य पहुंच गई थी, जिस के हाथों में मांझा था. वहां मोहिनी मजूमदार खड़ी थी. उज्ज्वल के बचपन के दोस्त दीपक मजूमदार की पत्नी. उस की बेटी सारा, स्नेह की क्लास में ही पढ़ती थी.


अपने अंदर की शंका के सर्प को मैं ने डांट कर सुला दिया और अतिथियों के स्वागत में व्यस्त हो गई थी. केक कटा, गेम्स हुए और फिर खाना लगा.


कभीकभी नारी ही नारी के लिए जटिल पहेली बन जाती है, तो कभीकभी उस पहेली का हल भी. शंका के जिस विषम सर्प को मैं ने सुला दिया था, मोहिनी ने उसे जगा दिया. मैं ने देखा,  गिलास थामने के साथसाथ मोहिनी की कांपती उंगलियां उज्ज्वल की उंगलियों को थाम कर दबा दे रही थीं. मैं ने वह भी देखा, खाने की मेज पर आमनेसामने बैठते ही मोहिनी के कोमल पैरों में उज्ज्वल के बलिष्ठ पंजों का बंदी बन जाना, परदे की आड़ का बहाना बना, जानबूझ कर उन का टकरा जाना, और फिर ‘सौरीसौरी’ कह एकदूसरे को देख चुपके से चुंबन उछाल देना.


मैं यह सब देख रही थी. सहसा मेरी तरफ देख कर मोहिनी ने एक आंख मूंद ली. तब मैं ने जाना कि वह चाहती थी कि मैं देखूं. उस की आंखों में जलते घमंड और वासना की ज्वाला ने मेरे वर्षों के प्रेम और समर्पण को भस्म कर दिया था.


मैं उज्ज्वल से कुछ पूछ ही नहीं पाई. शायद मैं डर रही थी कि मैं पूछूं और वह झूठ बोल दे या उस से भी बुरा, अगर वह सच बोल दे.


मैं ने एक बनावटी जीवन जीना आरंभ कर दिया. बनावटी जीवन एक समय बाद आप को ही परेशान करने लगता है. जब तक आप इस बात को समझ कर गंभीर होते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, क्योंकि तब आप की वास्वतिक भावनाएं न तो कोई देखना चाहता है और न ही आप खुद उन्हें समझ पाते हैं.


न कोई आरोप, न आंसू, न क्रोध. उज्ज्वल खामोश मुझे देखता रहा था. जहां तूफान की आशंका हो, वहां अश्रुओं की रिमझिम का भी अभाव रहा.

मैं शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी कमी को देखने का प्रयास करती. मुझे लगता कि मेरी ही किसी भूल के कारण उज्ज्वल मुझ से दूर हो गया था. मैं मोहिनी से खुद की तुलना करती. खुद को उस से बेहतर बनाने का प्रयास करती. उज्जवल को हर संभव सुख देने का प्रयास करती. हमारे अंतरंग पलों को जीना, मैं ने कब का छोड़ दिया था. मेरा प्रयास मात्र उज्ज्वल का आनंद रह गया था. अपनी भावनाओं को दबा कर मैं खुद के प्रति इतनी कठोर हो गई थी कि  हमेशा खुद को जोखिमभरे कामों में उलझा कर रखते लगी. मानो ये सब कर के मैं उसे मोहिनी के पास जाने से रोक लूंगी.


मैं यह भूल गई कि एक रिश्ता ऐसा भी होता है जिस की डोर आप से इतनी बंधी होती है कि आप के मन की दलदल में उन का जीवन भी फिसलने लगता है. वह रिश्ता होता है, एक माँ और  संतान का. इस का अनुभव होते ही मैं समाप्त होने से पहले जी उठी.


एक शाम जब मैं विवाहेतर संबंध क्यों बनते हैं, पर आर्टिकल पढ़ रही थी, स्नेह मेरे निकट आ कर बैठ गया.


‘मां!’


‘हम्म,’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना पूछा था.


‘आई मिस यू.’


मैं ने चौंक कर स्नेह को देखा, बोली, ‘क्यों बेटा?’


‘आप खो गई हो, अब हंसती भी नहीं. मैं अलोन हो गया हूं.’


दर्द के जिन बादलों को मैं ने महीनों से अपने भीतर दबा रखा था, वे फट पड़े और आंखें बरसने लगीं. जिस आदमी ने मेरे विश्वास और प्रेम को कुचलने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, उस के लिए मैं अपने बच्चे और खुद के साथ कितना सौतेला व्यवहार करने लगी थी. मेरा मृतप्राय आत्मविश्वास जीवित हो उठा. मैं ने उस दिन मात्र स्नेह को ही नहीं, अपने घायल मैं को भी गले लगा लिया था.


मैं ने पूरी रात सोच कर एक निर्णय लिया और अगले दिन सुबह ही दीपक मजूमदार को फोन कर दिया था.


2 दिनों बाद दीपक और मोहिनी मेरे लिविंगरूम में मेरे सामने बैठे थे. रविवार था, तो उज्ज्वल भी घर पर ही था. सारा को मैं ने स्नेह के कमरे में भेज दिया.


कमरे का तापमान गरम था. वहां की खामोशी में सभी की सांसों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी. मैं और उज्ज्वल अलगअलग कुरसियों पर बैठे थे. मोहिनी और दीपक सोफ़े पर एकसाथ बैठे थे. सभी एकदूसरे से नजरें चुरा रहे थे.


‘इस रिश्ते का क्या भविष्य है?’ उज्ज्वल की तरफ देख कर बात मैं ने ही शूरू की.


‘बताओ मोहिनी,’ दीपक ने कहा.


उन के बीच बात हो गई थी. 2 दिनों पहले जब मैं ने दीपक को फोन किया था, तब दीपक ने मुझे उज्ज्वल और मोहिनी को रंगेहाथ पकड़ने की बात बताई थी. अपने और मोहिनी के मनमुटाव के बारे में भी बताया. मैं ने जब उन दोनों को घर आ कर बात करने को कहा, तो दीपक ने स्वीकार कर लिया था.


उस रात मोहिनी ने उज्ज्वल को फोन भी किया. लेकिन उज्ज्वल ने मुझ से कुछ नहीं पूछा. और मैं, मैं तो उस के कुछ कहने का इंतजार ही करती रह गई. मैं तो उस का परस्त्री के प्रति आकर्षण भी स्वीकार कर लेती, लेकिन यह छल और अनकहा अपमान मुझे स्वीकार्य नहीं था.


इसलिए जब उस दिन उज्ज्वल ने कहा- ‘मैं जानता हूँ, जो हुआ ठीक नहीं हुआ, लेकिन प्रेम वायु है. उसे न तो सहीगलत की परिभाषा रोक सकती है और न समाज के बनाए नियम. प्रेम तो वह नदी है, जिस पर बनाए गए हर बांध को टूटना ही होता है. मैं और मोहिनी प्रेम में हैं, और सदा रहना चाहते हैं.’ उस की स्वीकारोक्ति सुन कर मेरी आंखें छलछला आई थीं.


मैं एक बार उज्ज्वल को देखती और फिर मोहिनी को, फिर उन दोनों को. पागल सी हो रही थी, पर मैं रोई नहीं, बहुत रो जो चुकी थी. विवाह के शुरूआती दिवसों की मधुर स्मृतियां, विवाहपूर्व उस सरल उज्ज्वल का प्रथम अनाड़ी चुंबन मुझे व्याकुल कर रहा था. उन दिनों वह मुस्तफा जैदी  की एक शायरी मेरी आंखों को चूमते हुए कहता –


‘इन्ही पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ,


मेंरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है’.


आज कहां गया वह अनुरोध, वह प्रेम, वह आलिंगन. न चाहते हुए मेरी नजर मोहिनी के लंबे काले बालों पर चली गई. न जाने कितनी बार ये केश मेरे जीवनसहचर के नग्न वक्षस्थल पर लहराए होंगे. मैं ने घबरा कर नजरें नीची कर ली थीं.


‘हम सोलमेटस हैं,’ मोहिनी ने कहा था.


‘प्रेम थोपा तो जा नहीं सकता. जैसा कि मैं कल कह चुका हूं, अलग हो जाना सही विकल्प है,’ दीपक ने इतना कह कर मेरी तरफ देखा. तीन जोड़ी आंखें मुझ पर ठहर गई थीं.


‘मैं अभी आर्थिक रूप से उज्ज्वल पर निर्भर हूं. जब शादी घरवालों की इच्छा के विरुद्ध की, तो इस का परिणाम उन पर क्यों थोपूं. मुझे नौकरी ढूंढने के लिए कुछ समय चाहिए. तब तक स्नेह के साथ मेरी भी जिम्मेदारी उज्जवल को उठानी होगी. इस घर में हम दोनों का पैसा लगा है, तो शीघ्र ही उज्ज्वल को मेरा हिस्सा भी देना होगा. स्नेह तो खैर इन की जिम्मेदारी हमेशा रहेगा. उम्मीद करती हूँ, तुम ने मात्र जीवनसाथी के पद से इस्तीफा दिया है, पिता तुम आज भी हो.’


न कोई आरोप, न आंसू, न क्रोध. उज्ज्वल खामोश मुझे देखता रहा था. जहां तूफान की आशंका हो, वहां अश्रुओं की रिमझिम का भी अभाव रहा. मेरी इस उदासीनता के लिए उज्ज्वल प्रस्तुत नहीं था. हमारे बीच एक छोटी सी बात अवश्य हुई, लेकिन मैं ने उज्ज्वल पर क्रोध नहीं किया. क्रोध तो वहां आता है जहां अधिकार हो, एक अपरिचित पर कैसा अधिकार.


उज्ज्वल और मोहिनी साथ रहने लगे थे. दीपक ने मोहिनी की जिम्मेदारियों से हाथ खींच लिया, जो सही भी था. वैसे सारा की जिम्मेदारियों से उस ने कभी इनकार नहीं किया. तलाक के पेपर कोर्ट में डाले जा चुके थे, जिस पर सालभर में फैसला आने की उम्मीद थी.


4-5 महीने की भागदौड़ और कुछ दोस्तों की सहायता से मुझे एक प्राइवेट कालेज में परमानेंट नौकरी मिल गई थी. स्नेह और सारा का स्कूल 3 बजे समाप्त हो जाता था. बसस्टैन्ड से मोहिनी दोनों बच्चों को अपने घर ले जाती. उज्ज्वल चाहता था कि स्नेह मोहिनी को अपना ले हालांकि मोहिनी और स्नेह दोनों ही इस प्रबंध से नाखुश थे. शाम को कालेज से लौटते हुए मैं स्नेह को अपने साथ ले आती थी.


परिवर्तन इस बार भी सभी के जीवन में आया था. अपनी पीड़ा को पीछे छोड़ कर मैं स्वावलंबी हो रही थी. मोहिनी को अब 2 बच्चों को संभालना पड़ रहा था, जो उस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. दीपक की कंपनी ने उस का स्थानांतरण स्पेन कर दिया था. और उज्ज्वल, उस के ऊपर तो अब 3 घरों की जिम्मेदारी आ गई थी.


स्नेह और मोहिनी के अतिरिक्त, इकलौता बेटा होने के कारण उस के ऊपर अपनी मां की जिम्मेदारी भी थी. पति की मृत्यु के बाद  उज्ज्वल की मां मेरठ में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहती थीं. लेकिन छुट्टियों में उन का इंदौर आनाजाना लगा रहता था. उज्ज्वल के इस निर्णय से वे भी खुश नहीं थी. वैसे, इस के पीछे का कारण  मेरे प्रति कोई लगाव नहीं, बल्कि वर्षों पुराना रोग कि ‘क्या कहेंगे लोग’ था.


किसी भी प्रेम और रिश्ते से ऊपर होता है मनुष्य का खुद के प्रति सम्मान और प्रेम. इसीलिए हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए. समय और रिश्ता बदलते देर नहीं लगती.

लेकिन इस सब में सब से अधिक नुकसान दोनों बच्चों का हुआ था. उन की तो पूरी दुनिया बदल गई थी. उन की बालसुलभ जिज्ञासा को उत्तर ही नहीं मिल रहा था. जहां सारा को उज्ज्वल का उस के घर रहना पसंद नहीं था, वहीं स्नेह को मोहिनी के घर जाना.


मैं स्नेह की उधेड़बुन समझ रही थी. धीरेधीरे मैं ने उसे परिस्थिति से अवगत कराना शुरू किया. अपने पिता से अलगाव उस के लिए सरल नहीं था. लेकिन मेरा बेटा मुझ से भी अधिक समझदार था. वह घटनाओं को देखने के साथसाथ समझने लगा और उन का आकलन भी करने लगा था. अब इस विषय पर हमारे बीच खुल कर बातें होने लगी थीं.


प्रेम मात्र शरीर का समर्पण नहीं है, बल्कि भावनाओं के समंदर में निस्वार्थ भाव से खुद को समर्पण करने का नाम भी है. प्रेम में एक साथी की कमी को दूसरा साथी पूर्ण करता है. प्रेम शक्ति का स्त्रोत है और मोह व दुर्बलता का सागर. प्रेम स्वतंत्रता का भाव है जबकि मोह उलझनों से भरा हुआ बंदिश का स्वरूप. प्रेम कुछ मांगता नहीं है और मोह मांगना छोड़ता नहीं है. प्रेम का कोई अस्तित्व मिल नहीं सकता जबकि मोह का कोई अस्तित्व होता ही नहीं.


मोहिनी उज्ज्वल से मोहित थी. लेकिन अभावग्रस्त सम्मोहन के साथ जीने के लिए समर्पित नहीं थी. उस की गलती भी नहीं थी. वह एक धनी परिवार की बेटी थी. विवाह के पश्चात भी उस का जीवन सुखसुविधाओं से पूर्ण रहा था. दीपक की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी. मोहिनी ने उज्ज्वल से भी यह ही अपेक्षा की थी. एक प्रेमी के रूप में सुदर्शन उज्ज्वल उस के हृदय के सिंहासन पर बैठ गया था, लेकिन जब उसी प्रेमी की कमजोर पौकेट का उसे पता चला, प्रेम भाप बन कर उड़ने लगा.


उज्ज्वल की हालत भी इस से भिन्न नहीं थी. प्रेयसी के नखरे उठाने का आनंद उस की जेब पर भारी पड़ रहा था. अब वह समझ रहा था जिस मुसकान और जिंदादिल व्यक्तित्व से वह अपनी प्रेमिका के हृदय पर शासन कर पाया था, उस के पीछे का कारण उस की पत्नी का समर्पण था. मैं ने जिस चतुराई से घर को संभाल रखा था, उसी ने उज्ज्वल को एक तनावरहित जीवन प्रदान किया था. समय के साथ उन दोनों का मोहभंग होना शुरू हो गया था. उन की लड़ाइयां बढ़ गई थीं.


मैं ने कालेज के नजदीक एक घर किराए पर ले लिया और स्नेह को किसी अप्रिय परिस्थति से बचाने के लिए उस का उज्ज्वल के घर जाना बंद करा दिया था.


मैं ने यों तो पुराने जीवन की कड़वी यादों को उस मकान के साथ ही त्याग दिया था लेकिन अब भी कुछ शेष था. इसलिए, मेरा शरीर तो इस घर में आ गया, लेकिन मेरा मन पुरानी चौखट पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था.


“आप सो गईं मम्मी?”


कुछ पता ही नहीं चला यादों की गाड़ी पर सवार हो कर कितनी दूर निकाल आई थी. स्नेह पुकारता नहीं, तो कुछ देर यों ही यादों की सैर करती रहती.


“नहीं बेटा, बस आंखें बंद कर कुछ सोच रही थी. क्या हुआ,  तुम तो बाहर खेल रहे थे?”


“बाहर पापा खड़े हैं.”


“पापा?”


“हम्म.”


“तुम अपने कमरे में टॉयस लगाओ, मैं पापा से मिल कर आती हूं”


एक साल दो महीने पाँच दिन और चार घंटे के बाद उज्ज्वल मेरे सामने बैठ कर अपनी गलती की माफी मांग रहा था. उस की प्रेमिका अपने रिश्ते को एक और मौका देने अपने पति के पास स्पेन चली गई थी. पराजित प्रेमी अपनी त्यक्त पत्नी के पास वापस चला आया इस आशा के साथ कि वह इसे अपना अच्छा समय समझ उस की बांहों में समा जाएगी. भटकना पुरुष का स्वभाव है और प्रतीक्षा स्त्री की नियति. समाज भी सोचता है कि परित्यक्ता पत्नी को फिर से पति का सान्निध्य प्राप्त हो जाए, तो  उस के लिए इस से बड़ी खुशी और क्या होगी.


“अमोदिनी.”


“हम्म.”


“मुझे माफ कर दो.”


“क्यों?”


“मेरे अपराध के लिए.”


“तुम जानते हो कि तुम्हारा अपराध क्या है?”


“मैं मोहिनी के जाल में फंस गया था.”


उज्ज्वल की बात सुन कर मैं जोर से हंस पड़ी थी. वह अचंभित हो कर मुझे देखने लगा.


“इस पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए कितना सरल है स्त्री को दोषी कह देना. कदम दोनों के भटकते हैं, मन दोनों का चंचल होता है, लेकिन चरित्रहीन स्त्री हो जाती है. स्त्री को अपराधी बना  तुम खुद फिर से पवित्र हो जाते हो. मोहिनी ने तुम्हें नहीं, तुम दोनों ने एकदूसरे को छला है. प्रेम तुम दोनों का अपराध नहीं है, विश्वासघात है.”


“दीपक और मोहिनी अपने रिश्ते को एक मौका दे रहे हैं.”


“उन के रिश्ते में रिश्ता कहने लायक कुछ शेष होगा.”


“तुम अब भी मुझ से नाराज हो?”


“बिलकुल नहीं, मैं तो तुम्हारी आभारी हूं. मेरे स्वाभिमान पर, मेरे विश्वास पर मारे गए तुम्हारे एक थप्पड़ ने मेरा परिचय मेरी त्रुटियों से करा दिया. आज मैं यह समझ पाई हूं कि किसी भी प्रेम और रिश्ते से ऊपर होता है मनुष्य का खुद के प्रति सम्मान और प्रेम. इसीलिए हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए. समय और रिश्ता बदलते देर नहीं लगती. स्त्री के लिए विधा का उपार्जन और धन का संचय आवश्यक है. एक खूबसूरत सपने में  रहना अच्छा लगता है. लेकिन इतना ध्यान रहे कि सपना टूट भी सकता है. मूसलाधार प्रलय से बचने के लिए हर स्त्री को एक रेनकोट तैयार रखना ही चाहिए.”


“स्नेह के लिए.”


“हर रिश्ता प्रेम और विश्वास पर टिका होता है. प्रेम तो मैं तुम से करती नहीं. और विश्वास इस जीवन में कभी कर नहीं पाऊंगी. यदि स्नेह के लिए हम साथ होते भी हैं तो आगे चल कर यह रिश्ता कड़वाहट और छल को ही जन्म देगा. ऐसे विषैले माहौल में न हम खुश रह पाएंगे और न स्नेह.”


“अमोदिनी, काश कि मैं तुम्हारे योग्य हो पाता,” यह कह कर उस ने अपना सिर झुका लिया.


“कल सही समय पर कोर्ट पहुंच जाना,” मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.


आज मैं ने घर की चौखट लांघ गृहप्रवेश कर लिया था अपने घर में, जिस में उज्ज्वल की कोई जगह नहीं थी.

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