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कहानी: हमसफर

 लालाजी अपनी विधवा बहू की शादी कराने के लिए परेशान रहते थें.

मेरा और ममता का दर्द एक ही था. हम दोनों ही विधुर थे. हमारे बेहद नजदीकी लोगों ने चाहा भी कि हम दोनों एक कश्ती में सवार हो कर हमसफर बन जाएं पर अपनेअपने दर्द की चादर ओढ़े हम दोनों जीवन के भंवर में फंसे जीते रहे. हमें क्या पता था कि अपनी राह चलने वाला मुसाफिर कभी एक राह का हमसफर भी बन जाता है…


मैं ध्यान से मामाजी की बातें सुन रहा था. वे जो कुछ बता रहे थे, सचमुच लाजवाब था. कोई आदमी इतना महान हो सकता है, मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. लाला हनुमान प्रसाद सचमुच बेजोड़ थे. मामाजी ने बताया था कि लालाजी कभी खोटी चवन्नी भी भीख में नहीं देते थे, लेकिन समाजसेवा में पैसा जरूर खर्च कर देते थे. कितने लोगों को इज्जत से रोजी कमाने लायक बना दिया था और पढ़ाईलिखाई को बढ़ावा देने के लिए कितना पैसा व समय वे खर्च करते थे. लालाजी इन सब बातों का न तो खुद ढिंढोरा पीटते थे और न ही किसी लाभ उठाने वाले को ये बातें बताने की इजाजत देते थे. हालांकि मामाजी लालाजी से उम्र में लगभग 15 साल छोटे थे, लेकिन लालाजी के साथ मामाजी की गहरी दोस्ती थी. पर जिस बात ने लालाजी को मेरी नजर में महान बना दिया था वह कुछ और ही थी.


लालाजी का एक ही बेटा था. 3 साल पहले उस का विवाह हुआ था. उस की एक नन्ही सी बेटी भी थी. पिछले साल आतंकवादियों द्वारा किए गए एक बम विस्फोट में अनायास ही वह मारा गया था. लालाजी इस घटना से टूट से गए थे. लेकिन वे अपने गम को सीने में कहीं गहरे दफन कर मामाजी से यह कहने आए थे कि कहीं लायक लड़का देखें, जिस से वे अपनी विधवा बहू की शादी कर सकें.


मामाजी बता रहे थे कि लालाजी की बहू किसी भी हाल में शादी को तैयार नहीं थी, लेकिन लालाजी का कहना था कि लायक लड़का मिल जाए तो वे बहू को मना लेंगे.


‘‘मैं तो कहूंगा कि राजेश, तुम्हीं ममता से विवाह कर लो’’, मामाजी ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा.


मैं चौंक पड़ा, ‘‘नहीं मामा, आप तो जानते ही हैं…’’


‘‘मैं जानता हूं कि तुम सुरुचि के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकते. तुम्हारी ही तरह ममता भी गोपाल की जगह किसी को अपनी जिंदगी में नहीं लाना चाहती. लेकिन मैं लालाजी की ही बात दोहराऊं तो जैसेजैसे तुम्हारी उम्र बढ़ेगी, तुम अकेले पड़ते जाओगे. फिर विपुल भी एक दिन अपना घर बसा लेगा. राजेश, तुम खुद को धोखा दे रहे हो.’’


मैं चुप रहा. मैं जानता था कि हमारे प्यार को मामाजी भी महसूस करते थे. मामा यों तो मुझ से 12 साल बड़े थे, लेकिन हमारे बीच दोस्तों जैसा ही संबंध था. सुरुचि के जाने के बाद विपुल को मामाजी ने ही पाला था.


‘‘अगर मुझे ठीक न लगता तो मैं कभी न कहता, क्योंकि मैं ममता को भी जानता हूं और तुम को भी. तुम दोनों एकदूसरे का घाव भर सकोगे. साथ ही विपुल और नेहा को भी मांबाप का प्यार मिल सकेगा.’’


आज से पहले मामाजी ने कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं रखा था. मेरे कई रिश्तेदार मेरी दोबारा शादी की असफल कोशिश कर नाराज हो चुके थे. लेकिन मामाजी ने कभी ऐसा जिक्र नहीं किया था. बल्कि मेरे साथ उन्हें भी बदनामी झेलनी पड़ रही थी कि वे मेरा अहित चाहते हैं. लेकिन मामाजी मेरे साथ बने रहे थे. आज मामाजी ने मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं ने इनकार तो किया, लेकिन लालाजी के व्यक्तित्व के प्रभाव से दबादबा सा महसूस कर रहा था.


आखिरकार, मामाजी ने मुझे तैयार कर ही लिया. फिर उन्होंने लालाजी से बात की. लालाजी ने मेरे बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद अपनी सहमति दी. इस के बाद मामाजी और लालाजी ने बैठ कर एक योजना बनाई, क्योंकि ममता शादी के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए योजना यह थी कि मैं लालाजी के घर में आनाजाना बढ़ाऊं और धीरेधीरे ममता का दिल जीतूं. हालांकि मुझे यह सब पसंद नहीं था, लेकिन मैं इन दोनों को मना न कर सका.


योजनानुसार अगले रविवार को मैं लखनऊ लालाजी की कोठी पर पहुंच गया. पहले से योजना थी, इसलिए लालाजी नदारद थे. नौकरानी ने मुझे एक बड़े से ड्राइंगरूम में बैठा दिया. मैं नर्वस हो रहा था. मेरे मन में एक अजीब सी कचोट थी. ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोई बुरा काम करने जा रहा हूं. शर्म, खीझ, लाचारी और अनिच्छा की अजीब सी उथलपुथल मेरे मन को झकझोर रही थी.


‘‘नमस्कार,’’ मेरे कानों में एक मधुर स्त्रीस्वर पड़ा तो मैं ने सिर उठा कर देखा.


मेरे सामने एक 25-26 साल की सुंदर युवती खड़ी थी. उस के चेहरे पर वीरानी छाई हुई थी, लेकिन फिर भी एक सुंदरता थी. उस ने बहुत साधारण फीके से रंग की साड़ी पहनी हुई थी, लेकिन वह भी उस पर भली लग रही थी. मैं समझ गया कि यही ममता है.


मैं उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया.


‘‘बैठिए’’, वह बोली, ‘‘मैं लालाजी की बहू हूं. वे तो अभी घर में नहीं हैं.’’


‘‘उन्होंने मुझे मिलने को कहा था. अगर आप को एतराज न हो तो मैं इंतजार कर लूं.’’


एक पल को ममता के चेहरे पर असमंजस का भाव झलका, लेकिन दूसरे ही क्षण वह सामान्य हो गई.


‘‘आप का परिचय?’’


‘‘क्षमा कीजिएगा, मेरा नाम राजेश


है. मैं कानपुर में सैंडोज का एरिया


मैनेजर हूं.’’


‘‘लालाजी ने कभी आप का जिक्र नहीं किया.’’


‘‘दरअसल, लालाजी मेरे मामा के दोस्त हैं. उन का नाम राजेंद्र लाल है. शायद उन्हें आप जानती हों.’’


‘‘चाचाजी को अच्छी तरह जानती हूं’’, ममता एक क्षण को चुप हुई, फिर बोली, ‘‘आप विपुल के पिता तो नहीं?’’


‘‘जी…जी हां.’’


‘‘चाचाजी आप की बहुत तारीफ करते हैं.’’


‘‘वे मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’


तभी एक सांवली सी लड़की एक ट्रे में कुछ मिठाई व पानी का गिलास और जग ले कर आई. ममता  ने मिठाई की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी. मैं ने चुपचाप एक टुकड़ा ले कर मुंह में डाल लिया.’’


‘‘और लीजिए.’’


‘‘बस’’, कह कर मैं ने पानी का गिलास उठा कर पानी पिया और गिलास मेज पर रख दिया.


‘‘कम्मो, चाय बना ले.’’


‘‘जी, बहूजी.’’


मैं चाह कर भी चाय के लिए मना न कर सका. हमारे बीच चुप्पी बनी रही.


‘‘मैं आप को डिस्टर्ब नहीं करना चाहता. आप अपना काम करें. मैं अकेले ही इंतजार कर लूंगा,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.


विपुल देहरादून के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा था. अक्तूबर में उस का वार्षिकोत्सव था. मैं अपनी व्यस्तता के कारण भूल चुका था.

‘‘मुझे ऐसा कोई खास काम नहीं करना है,’’ ममता सहजता से बोली.


मैं चुप हो गया. मुझे अचानक ममता के साथ धोखा करने का गहरा अफसोस हुआ.


‘‘मैं आप के साथ हुए हादसे से वाकिफ हूं. आप तो जानती हैं कि मैं भी कमोबेश ऐसी ही परिस्थिति का शिकार हूं. यद्यपि यह मेरा बेवजह दखल ही है, इसलिए मैं कहूंगा कि आप का इतना अधिक दुख में डूबे रहना कि दुख आप के चेहरे पर झलकने लगे, आप के और आप की बेटी दोनों के लिए अच्छा नहीं है,’’ मैं ने बातचीत शुरू कर दी.


ममता चुप रही. जैसे मेरी बात को तौल रही हो. फिर बोली, ‘‘मुझे चाचाजी ने आप के बारे में बताया था. सच कहूं तो आप के बारे में जान कर मुझे बड़ा सहारा मिला. चाचाजी ने मुझे बताया कि आप ने दोबारा शादी करने से इनकार कर दिया है. आप के इस फैसले से मुझे कितना भरोसा मिला, मैं बता नहीं सकती,’’ कह कर ममता एक पल को रुकी, फिर बोली, ‘‘मुझे आप की बात से कोई विरोध नहीं, लेकिन मैं क्या करूं? उन को मैं भूल नहीं सकती. मेरे सुख तो वही थे. बच्ची के साथ रहती हूं तो हंस जरूर लेती हूं, लेकिन मन से नहीं. सच तो यह है कि हंसी आती ही नहीं और न ही ऐसी कोई इच्छा बची है.’’


‘‘मेरे साथ भी ऐसा ही है,’’ मैं ने स्वीकार किया.


मैं और ममता दोनों ही चुप हो गए. दोनों के एहसास एक से थे. आखिरकार, मैं ने तय किया कि ममता को धोखा देना ठीक न होगा. न मैं शादी कर सकता था और न ममता. इसलिए ठीक यही था कि ममता को सब बता दिया जाता.


तभी कमला चाय ले आई. ममता ने चाय का प्याला मुझे दिया. बिस्कुट लेने से मैं ने इनकार कर दिया तो ममता ने ज्यादा इसरार नहीं किया. चाय के घूंट भरने के बाद मैं ने अपनी बात शुरू की.


‘‘मैं, दरअसल यहां पर जबरदस्ती भेजा गया हूं, क्योंकि मामाजी और लालाजी दोनों ही इतने भले इनसान हैं कि मैं उन से इनकार नहीं कर पाया.’’


ममता ध्यान से सुन रही थी.


‘‘आप तो जानती ही हैं कि लालाजी आप की शादी कर देना चाहते हैं. उन्होंने मामाजी से अपनी इच्छा बताई तो मामाजी ने मुझ से कहा. हालांकि, मामाजी भी अच्छी तरह जानते हैं कि मैं दूसरी शादी की सोचता भी नहीं. अब न तो मैं राजी था, न आप राजी थीं, इसलिए दोनों ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि मैं यहां आनाजाना शुरू करूं और आप से मेलजोल बढ़ाऊं. मुझे यह भी निर्देश है कि मैं यह सब आप को कतई न बताऊं. लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, मैं न आप को धोखा दे सकता हूं न खुद को. जिस तरह हम लोग अपनेअपने दिवंगत जीवनसाथियों से जुड़े हैं, ऐसा कुछ हो पाना नामुमकिन है. इन लोगों की बात रखने के लिए मैं 2-1 बार यहां आऊंगा और फिर इन से कहूंगा कि ऐसा हो पाना संभव नहीं है.’’


मेरे चुप होते ही ममता का सिर इनकार में हिलने लगा. वह उठ कर खड़ी हो गई. मैं भी खड़ा हो गया.


‘‘आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे. मैं आप की आभारी हूं कि आप ने सच बता कर मुझे इस घृणित प्रस्ताव से बचा लिया. मैं आप से गुजारिश करना चाहती हूं कि अब आप आइंदा कभी इस घर में मत आइएगा. न ही मुझ से, कहीं पर भी, मिलने की कोशिश कीजिएगा’’, ममता ने हाथ जोड़ दिए.


मैं ने हाथ जोड़ कर उसे नमस्कार किया और वापस कानपुर लौट आया.


मेरी खुद विवाह करने की कोई इच्छा नहीं थी. इसलिए मैं ने खुद को हलका महसूस किया. मामाजी से मैं ने सिर्फ इतना बताया कि ममता राजी नहीं है. मामा ने कुछ नहीं पूछा. मैं ने अनुमान लगाया कि मेरे स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ मामाजी ने यह अनुमान लगा लिया होगा कि मैं ने ममता को सच बता दिया है.


समय बीतता रहा. मेरा तबादला कानपुर से लखनऊ हो गया. लेकिन मेरी फिर कभी न तो लालाजी से और न ही ममता से मुलाकात हुई. वर्षों गुजर गए.


विपुल देहरादून के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा था. अक्तूबर में उस का वार्षिकोत्सव था. मैं अपनी व्यस्तता के कारण भूल चुका था कि मुझे वहां जाना है. उत्सव के 2 दिनों पहले विपुल का फोन आया तो मैं हक्काबक्का रह गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘मैं आ रहा हूं.’’


स्टेशन फोन करने पर पता चला कि यहां से चलने वाली दोनों गाडि़यों में लंबी वेटिंग लिस्ट चल रही है. सो, रेल में धक्के खाने के बजाय मैं ने अपनी टू सीटर कार से ही देहरादून जाना तय किया.


मैं सही समय पर स्कूल पहुंच गया. मुझे कार से आया देख कर विपुल बहुत खुश था. 3 दिन यों ही गुजर गए. कार्यक्रम बहुत सफल रहा. रात में अभिभावकों का सामूहिक भोज था. वहां पर अनायास ही मेरी मुलाकात ममता से हो गई. ममता ने मुझे नमस्कार किया. मैं ने भी नमस्कार किया. ममता के बालों में सफेदी झकलने लगी थी. लेकिन अपने सादा लिबास में वह बहुत भली लग रही थी. हम लोग अधिक बात नहीं कर पाए. उस की बेटी नेहा भी उसी स्कूल में थी.


अगले दिन सुबह सभी विदा हो रहे थे, लेकिन इस इलाके में उत्तराखंड आंदोलन की वजह से चक्का जाम था. 3 दिन का बंद था. रेलें तक स्थगित हो गई थीं. मजबूरन सभी को रुकना पड़ा. दूसरे दिन प्राइवेट गाडि़यों को जाने की छूट मिली. जिन लोगों के पास अपनी गाडि़यां थीं, उन्होंने अपने रास्ते के लोगों से लिफ्ट की पेशकश की. मैं ने भी लखनऊ तक के लिए किसी एक आदमी को लिफ्ट देने की पेशकश की.


ममता यह जान कर कुछ असमंजस में पड़ी कि उसे मेरे साथ अकेले जाना पड़ेगा. लेकिन फिर वह तैयार हो गई.


मैं बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन सही मौका नहीं मिल पा रहा था. मैं एक द्वंद्व में फंस गया था.

ममता का रेल टिकट स्कूल स्टाफ को सौंप कर हम लोग सुबह पौ फटने से पहले ही निकल पड़े. इतनी सुबह चलने का कारण यह भी था कि हम आंदोलन वाले इलाके से सुबह जल्दी निकल जाएं. सुबह 6 बजे से पहले हम हरिद्वार में थे. एक रिसोर्ट में रुक कर फ्रैश हुए, फिर चल पड़े.


रेलवे स्टेशन से पहले एक बढि़या सा रैस्तरां देख कर मैं ने कार रोकी. नाश्ते के दौरान भी हम चुप ही रहे. 15-20 मिनट में नाश्ते से निबट कर हम फिर चल पड़े.


‘‘अब आप लखनऊ में रहते हैं?’’ ममता ने ही चुप्पी तोड़ते हुए पूछा.


‘‘हां, 9 साल हो गए. अब लखनऊ कुछ भाने लगा है. सोचता हूं, यहीं बस जाऊं.’’


‘‘कानपुर में तो शायद आप का अपना मकान था?’’


‘‘नहीं, किराए का था. यहां महानगर में जरूर एक डूप्लैक्स ले लिया है.’’


‘‘चलिए, अच्छा है. अपना घर तो होना ही चाहिए.’’


‘‘घर तो नहीं है, मकान जरूर है’’, मैं ने निराशाभरे स्वर में कहा.


‘‘आप ने अभी तक…?’’ ममता ने बात अधूरी छोड़ दी.


मैं फीकी हंसी हंसा, ‘‘और आप ने…?’’ कुछ देर बाद मैं ने पूछा.


उस ने भी एक फीकी सी हंसी हंस दी.


फिर हम काफी समय तक चुप रहे. कार में भर उठी उदासी को दूर करने के मकसद से मैं ने पूछ लिया, ‘‘आप कुछ कर रही हैं क्या?’’


‘‘हां, टाइम काटने के लिए एक बुटीक खोला है.’’


‘‘सचमुच? कहां पर?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.


‘‘हजरतगंज में.’’


‘‘अप्सरा तो नहीं?’’ मैं ने ममता की ओर देखा.


‘‘जी’’, उस ने सिर हिला कर कहा.


अप्सरा 2 वर्ष पहले ही शुरू हुआ था और आज की तारीख में लखनऊ में फैशनपसंदों की पहली पसंद है.


‘‘अप्सरा तो लखनऊ की शान है.’’


‘‘लोगों की मेहरबानी है?’’


‘‘लालाजी कैसे हैं?’’


‘‘ठीक ही हैं’’, ममता के स्वर में गहरी निराशा थी.


‘‘क्या बात है?’’ मैं पूछे बिना न रह सका.


ममता मौन रही. जैसे सोच रही हो कि इस बारे में कुछ बात करे या नहीं. आखिरकार, उस ने मौन तोड़ा, ‘‘आप तो जानते ही हैं कि पापाजी मुझ से क्या चाहते हैं. अब कहते तो कुछ नहीं लेकिन मैं जानती हूं कि दिनोंदिन मेरी चिंता में घुलते जा रहे हैं,’’ उस की आवाज नम हो गई.


मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहूं.


‘‘कभीकभी तो लगता है कि उन का कहना न मान कर मैं गलती कर रही हूं,’’ थोड़ी देर के बाद ममता ने कहा.


मैं बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन सही मौका नहीं मिल पा रहा था. मैं एक द्वंद्व में फंस गया था. एक ओर मेरी भावनाएं थीं, तो दूसरी ओर मेरे अनुभव. शायद ममता के मन में भी ऐसा ही कुछ चल रहा था. हम कुछ कह नहीं पा रहे थे. मैं खामोशी से कार चलाता जा रहा था.


नजीबाबाद आ गया था. यहां की चाय मशहूर है. मैं ने एक घूंट गले में उतार कर बात शुरू की.


‘‘तुम कह रही थीं कि कभीकभी लगता है कि गलत कर रही हो.’’


ममता ने आश्चर्य से मुझे देखा. मैं कब और कैसे आप से तुम पर आ गया था, पता नहीं चला.


‘‘मुझे तो लगता है,’’ मैं ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘बल्कि यह कहना चाहिए कि विश्वास होता जा रहा है कि हम गलत कर रहे हैं. मैं अपनी बात बताता हूं, आज भी सुरुचि मेरे मन में वैसे ही बसी हुई है. उस की यादें मुझे जीने नहीं देतीं. मैं सामान्य नहीं रह पाता. कहने को घर जरूर है, लेकिन मैं कभीकभी 2 बजे रात से पहले घर नहीं लौटता, कभी घर के किचन में खाना नहीं बनता. जानबूझ कर आधी रात तक काम करता रहता हूं.


‘‘थक कर चूर हो कर घर लौटता हूं, लेकिन घर आने को दिल नहीं करता. घर जैसे काटने को दौड़ता है. बिस्तर पर लेटता हूं तो नींद नहीं आती. उठ कर बैठता हूं तो सूनापन जैसे रोमरोम में सुईयां चुभोने लगता है. दोस्तों ने कहा कि शादी नहीं करते न करो, यों ही इधरउधर कुछ कर लो. तुम से… क्या बताऊं… एक बार एक दोस्त ऐसी भी जगह ले गया. चला तो गया, लेकिन वहां जा कर ऐसा अफसोस हुआ कि क्या बताऊं.


‘‘मैं वापस लौट आया. मुझ से उस गंदगी में…’’ मैं थोड़ी देर चुप रहा. फिर बोलने लगा, ‘‘उस दिन घर आ कर बहुत रोया. बस, एक ही संतोष था कि गिरतेगिरते बच गया था. दोस्तों ने सलाह दी, शराब पियो, सब भूल जाओगे. लेकिन संस्कार कुछ ऐसे हैं कि कभी पी नहीं सकता,’’ फिर एक पल को चुप हुआ. चाय के कुछ घूंट भरे.


‘‘होटलों में खाता हूं, क्योंकि खाना बनाना नहीं आता. पहले एक नौकर रखा तो वह घर में उलटेसीधे लोगों को ले आता था. उसे निकाला तो एक लड़की रखी. उसे घर से ज्यादा मेरी देखभाल की फिक्र थी. निकाल दिया तो सुनता हूं कि पड़ोसियों से कह गई कि मैं उस पर बुरी नजर रखता था. विश्वास करोगी, लेकिन यह सच है कि मैं ने आज तक किसी को बुरी नजर से नहीं देखा.’’


ममता कुछ न बोली.


‘‘अब नौकर रखते हुए डरता हूं. अड़ोसपड़ोस में शायद ही कोई मुझे शरीफ आदमी समझता हो. कोई न मुझे अपने यहां बुलाता, न कोई मेरे यहां आता है. मैं खुद भी न तो किसी के यहां जाना चाहता हूं न किसी को बुलाना चाहता हूं.’’


ममता ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी.


‘‘मैं क्या करूं? शादी मैं करना नहीं चाहता और दूसरा कोई रास्ता बचता नहीं जिस से मेरा सूनापन, जो मुझे दिनोंदिन खाए जा रहा है, खत्म हो सके. तुम अगर लालाजी की बात मान लो तो उस का अच्छा परिणाम होगा.’’


ममता मेरे इस सीधे हस्तक्षेप पर चुप न रह सकी. वह बोली, ‘‘लेकिन हमें अपना ही सुख तो नहीं सोचना चाहिए. हमारे बच्चे भी तो हैं. उन पर क्या असर पड़ेगा? क्या वे इसे स्वीकार कर पाएंगे? आप खुद तैयार नहीं हैं और मुझे कह रहे हैं, जबकि आप के लिए तो यह सब आसान है. सामाजिक तौर पर एक आम बात है.


‘‘नहीं…नहीं, मैं आप पर आक्षेप नहीं कर रही हूं. आप की तो मैं इज्जत करती हूं. आप तो महान हैं. मैं तो आम बात कर रही हूं. हमारे समाज में मर्द की दूसरी शादी आम बात है. लेकिन विधवा, वह भी बच्चे वाली विधवा और ऊपर से एक लड़की की मां, का विवाह तो असाधारण नहीं वरन घृणित माना जाता है. एक क्षण के लिए मान लीजिए मैं विवाह कर भी लूं तो मेरी तो जो दुर्गति होनी है होगी ही, कल मेरी बेटी की शादी किसी ठीक लड़के से होनी मुश्किल हो जाएगी.’’


ममता की बातों ने मुझे कहीं गहरे झकझोर दिया और मैं जो कुछ आज तक सोचता आया था, उस के विपरीत विचारों में उलझ गया.


‘‘चलिए, काफी समय हो गया,’’ मुझे विचारों में उलझा देख कर ममता ने कहा.नजीबाबाद की ऊबड़खाबड़ सड़कों से निकल कर जब हम थोड़ी अच्छी सड़क पर पहुंचे तो मैं ने फिर बात शुरू की.


‘‘मैं आप की बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हूं. मैं मानता हूं कि समाज एक विधवा का विवाह आज भी सहजता से नहीं लेता, लेकिन समाज है क्या? आज इस समाज में एक भी भ्रष्टाचारी, दुराचारी आदमी का विरोध करने का दम है? आज सब जगह धन और बल की पूजा हो रही है. ऐसे समाज पर हम


अपना जीवन क्यों न्योछावर करें, जिसके न कोईर् सिद्धांत रह गए हैं न कोई जीवन मूल्य.


हमें जीने के लिए एक ही जीवन मिलता है अगर हम समाज के डर से इसे भी दूर हो जाएं तो सब बर्बाद हो जाएगा.

‘‘क्या है यह समाज? मुझे देखिए, सुरुचि के अलावा मैं ने शायद ही किसी औरत को ढंग से देखा हो. लेकिन ज्यादातर लोग मुझे चरित्रहीन समझते हैं. मुझे चरित्रहीन का फतवा सुनाने वालों में कई ऐसे हैं, जो अपनी बेटी या बहन का रिश्ता ले कर आए थे. अगर आज मैं उन के यहां शादी को हां कर दूं तो मैं ठीक हूं, उन्हें शादी से कोई एतराज नहीं. वरना मैं चरित्रहीन हूं. और…बुरा मत मानिएगा, आप को भी लोगों ने बख्शा नहीं होगा,’’ मैं उत्तेजित हो गया था.


‘‘आप ठीक कहते हैं. मुझ पर… तो पापाजी के साथ लांछन लगाया गया है,’’ ममता कंपकंपाते स्वर में बोली थी.


‘‘फिर भी आप समाज का रोना रो


रही हैं?’’


‘‘तभी तो और सोचना पड़ता है.’’


‘‘नहीं, ऐसा सोचना गलत है. हमें जीने के लिए एक ही जीवन मिला है. अगर हम इसे इस समाज के भय से बरबाद कर दें तो हम से बड़ा मूर्ख कोई नहीं. फिर इस समाज को लालाजी से अधिक तो हम समझ नहीं सकते. अगर वे गलत नहीं समझते तो समाज जाए भाड़ में.’’


ममता चुप रही. मुझे अपनी उत्तेजना पर काबू पाने में समय लगा. न जाने कब से यह सब घुमड़ रहा था. आज गुबार निकला तो कुछ सुकून मिला.


‘‘बच्चों की बात जरूर सोचने वाली है,’’ मैं फिर बोला, ‘‘बच्चों पर पड़ने वाले असर के बारे में हमें जरूर सोचना चाहिए लेकिन अगर हमारा आचरण गरिमामय हो, उन के प्रति स्नेहमय हो, उदार हो तो बच्चों पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़ेगा. अगर हमारा परिपक्व व्यवहार हो तो उलटा बच्चों के लिए फायदेमंद ही होगा. फिर कुछ सालों बाद वे निश्चय ही अपना संसार बसाएंगे. तब हम लोग और अधिक अकेले पड़ जाएंगे. मैं तो डरता हूं, कहीं मैं खुद ही अपने बेटे के सुखों से ईर्ष्या न करने लगूं. मैं ने ऐसा होते देखा है.’’


मैं ने एक सिहरन महसूस की.


‘‘ज्योंज्यों बुढ़ापा आएगा हमें एक सच्चे साथी की उतनी ही अधिक दरकार होगी. मैं मानता हूं कि जरूरी नहीं कि विवाह से बुढ़ापे तक का साथ मिल ही जाए, लेकिन आमतौर पर तो ऐसा ही होता है. और फिर, अगर आदमी अपनी जवानी में संतुष्ट हो जाता है तो उसे बुढ़ापे में कोई मलाल नहीं रहता. अपनी संतानों का हंसनाबोलना उसे गुदगुदाता है, दुखी नहीं करता.’’


‘‘इतना कुछ सोचते हैं, फिर भी आप ने शादी नहीं की?’’


‘‘कहां सोचता हूं इतना कुछ. यह तो, बस, आप के सामने न जाने कैसे एक गुबार सा निकल पड़ा. वरना सोचता तो मैं भी वही हूं जो आप सोचती हैं. पर अब इतना कह कर, इसे मैं प्रतिक्रिया कहूं, अनुभव कहूं या समय का असर कहूं, समझ नहीं पा रहा क्या कहूं, दरअसल, मैं आप से तर्क नहीं कर रहा था, बोल कर सोच रहा था इतना सोच कर अब यों लगता है जैसे हम लोग जरूरत से ज्यादा भावना के अधीन हो गए हैं. ऐसी भावना जो कभी ठोस नहीं हो सकती.’’


‘‘भावना न हो तो पशु और मानव में अंतर क्या रहा?’’


‘‘पशुओं में भावना नहीं होती, यह आप से किस ने कहा?’’


‘‘क्या शादी जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं?’’ ममता कुछ नाराज सी हो गई थी.


‘‘मैं भी यही मानता रहा हूं कि शादी जन्मजन्मांतर का बंधन है, लेकिन यह सच नहीं हो सकता. शादी शरीर की होती है और शरीर तो नष्ट हो जाता है.’’


‘‘तो एक मनुष्य, जो नहीं रह जाता, उस से कोई संबंध भी शेष नहीं रह जाता?’’


‘‘सारे संबंध शरीर से होते हैं. शरीर नष्ट हो जाने पर संबंध भी नष्ट हो जाते हैं. मैं अब सुरुचि का पति नहीं हूं. तुम भी बुरा मत मानना, तुम गोपालजी की पत्नी नहीं हो. मैं सुरुचि का विधुर हूं, तुम गोपालजी की विधवा हो. पतिपत्नी का रिश्ता तो तब तक ही है जब तक शरीर है. समाज तो इतना भी नहीं मानता. अगर पतिपत्नी शरीर के जीवित रहते भी एकदूसरे को त्याग दें तो संबंध समाप्त हो जाता है.’’


‘‘मजे की बात देखिए, मरने वाले का सामाजिक संबंध तो वैसे ही शेष रहता है, जैसे मरने से पहले था. मां, पिता, पुत्र, ननद, भाभी, देवर, जेठ कोई भी संबंध अपना नाम नहीं बदलता. केवल पतिपत्नी का ही विधुरविधवा में परिवर्तन हो जाता है. इस से भी यही सिद्ध होता है कि विवाह जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं है.


ममता गहरी सोच में डूब गई. सड़क काफी खराब थी. भीड़ भी बढ़ रही थी. मैं चुपचाप कार चलाता रहा. बरेली में मारवाड़ी भोजनालय में हम ने लंच किया. फिर छिटपुट बातें चल पड़ीं. मामाजी के बारे में काफी समय तक बातें होती रहीं. लखनऊ आने पर मैं ने ममता को उस के घर के सामने उतार दिया.


‘‘अंदर नहीं आओगे?’’ ममता ने अजीब से स्वर में कहा.


‘‘अभी नहीं. कभी मेरे घर आना’’, मैं ने यों ही कह दिया.


‘‘जरूर आऊंगी’’, ममता ने कहा तो मैं चौंक पड़ा.


‘‘सुबह ही मिलता हूं मैं’’, मैं ने कहा.


वह हंस दी. मैं ने सलाम की मुद्रा में हाथ उठाया और कार आगे बढ़ा दी.


सुबह घंटी की आवाज से मेरी नींद खुली. रात को मैं काफी देर से


घर लौटा था. अभी मेरी नींद पूरी नहीं हुई थी. एक बार फिर घंटी बजी.


‘कौन हो सकता है इतनी सुबह’, मैं बड़बड़ाया. मेरी नजर घड़ी की ओर उठ गई. साढ़े 8 बजे थे. घंटी फिर बजी. मैं गाउन की डोरियां कसते हुए स्लीपर में पांव फंसाने लगा. तब तक 3 बार घंटी बज चुकी थी.


मैं ने दरवाजा खोला. सामने ममता को खड़ी देख मेरी नींद गायब हो गई. मैं ने आंखें मलीं, सोचा, सपना तो नहीं देख रहा. जरूर सपना था.


मैं हड़बड़ा कर एक ओर हट गया. ममता अंदर आ गई और ठिठक कर घर का मुआयना करने लगी. अब मुझे अपने ड्राइंगरूम के फूहड़पन का एहसास हुआ. लेकिन जहां कभी कोई आता ही न हो, उस का और कैसा हाल होगा, मैं ने खुद को आश्वस्त किया. लेकिन आश्वस्त न हो सका. सो, शरमाता हुआ बोला, ‘‘बैठो, वो क्या है कि मैं अभी सो रहा था. आज रविवार है न. अभी राजू आएगा, ठीक करेगा सब.’’


ममता कुछ न बोली. एक सोफे पर बैठ गई. मैं कुछ देर यों ही खड़ा रहा. फिर बोला, ‘‘मैं चाय बनाता हूं’’, मन ही मन सोच रहा था कि रसोई में


कुछ होगा भी या सिर्फ चाय पर गुजर करनी पड़ेगी.


‘‘तुम फ्रैश हो लो, मैं चाय बनाती हूं’’, ममता उठते हुए बोली.


‘‘नहींनहीं’’, मैं सकपका गया. रसोई की हालत तो और बुरी थी. मैं खुद ही रसोई की ओर लपकते हुए बोला, ‘‘तुम मेहमान हो. तुम बैठो, मैं चाय बनाता हूं.’’


लेकिन ममता मेरे पीछेपीछे ही जब किचन की ओर चल पड़ी, तो मुझे कुछ न सूझा. एक क्षण को सोचा, मैं भी साथ जाऊं, पर हिम्मत न पड़ी. मन ही मन मैं यह सोचते हुए, ‘अब जरूर पिएगी यह चाय’, मैं ऊपर को लपक लिया.


टौयलेट से निबट कर जब मैं नीचे आया, तो डायनिंग टेबल पर टीसैट के साथ हौटकेस देख कर चौंका.


‘‘कितनी चीनी लोगे?’’


‘‘दो.’’


ममता ने हौटकेस खोल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. वह चाय बनाने लगी. मैं ने चुपचाप 2 टोस्ट प्लेट में रख लिए और हौटकेस ममता की ओर बढ़ा दिया.


‘‘यह तो घर में नहीं था’’, मैं टोस्ट कुतरते हुए बोला.


‘‘मोड़ पर ही तो दुकान है’’, ममता ने सहज स्वर में कहा.


एकाएक मेरे गले में टोस्ट फंस गए. मैं ने खुद को संभाला, पर मेरी आंखें डबडबा आईं.


‘‘क्या हुआ?’’ मेरे चेहरे के भाव ममता से छिपे न रह सके. पानी का गिलास बढ़ाते हुए उस ने पूछा.


‘‘कुछ नहीं’’, परेशानी दिखाते हुए मैं ने कहा.


फिर हम चुपचाप चाय पीते रहे. चाय के बाद ममता चाय का सामान समेटने लगी, तो मैं हड़बड़ा कर बोल पड़ा, ‘‘न…न…क्या करती हो? मैं करता हूं.’’


‘‘रहने दो’’, ममता ने मुसकरा कर कहा और अपना काम करती रही. मैं कुछ न कर पाया.


किचन से वह लौटी तो बोली, ‘‘घर नहीं दिखाओगे अपना?’’


‘‘घर?…हां. वो…क्यों नहीं’’, मैं ने उठते हुए कुछ हकलाते हुए कहा.


मैं ने उसे नीचे का बैडरूम दिखाया. फिर पिछले बरामदे से पीछे उसे झाड़झंखाड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘किचन गार्डन.’’


‘‘सामने का आलीशान लौन तो तुम देख ही चुकी हो’’, मैं ने व्यंग्य से कहा, ‘‘यह उसी परंपरा का विस्तार है.’’


‘‘लेकिन इस बैडरूम से तो ऐसा नहीं लगता कि तुम इस में रहते हो?’’ बैडरूम से बाहर निकलती हुई ममता बोली.


‘‘मैं ऊपर रहता हूं.’’


‘‘वह नहीं दिखाओगे?’’


‘‘वो…वहां कुछ नहीं है, वहां.’’


‘‘वहां कोई दूसरी औरत नहीं जा सकती न?’’


‘‘नहीं…नहीं…ऐसा कुछ नहीं. तुम से किस ने कहा. तुम चलो’’, मैं ने हड़बड़ा कर कहा.


‘‘रहने दो’’, ममता बोली.


‘‘नहीं, चलो, देख लो. वरना मेरे मन में कचोट रह जाएगी’’, मैं ने मनुहार की.


मैं ममता को ऊपर ले आया. ममता कमरे को देखती रही, फिर वह सुरुचि की तसवीर के सामने जा खड़ी हुई.


‘‘इस कमरे में घुसने के कारण ही तुम ने उस लड़की को निकाल दिया था न?’’


‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.


‘‘वह लड़की अब मेरे पास काम करती है. उसी ने मुझे बताया कि तुम कितने अकेले हो. तुम ने उसे गलत समझा था. वह तुम्हारी देखभाल जरूर करना चाहती थी, लेकिन सुरुचिजी का स्थान लेने के लिए नहीं. तुम से प्रभावित हो कर, सुहानुभूतिवश. उस दिन जब तुम मुझे उतार कर गए तो उस ने तुम्हें देखा था. बाद में वह मुझ से पूछने लगी कि मुझे तुम ने कार में कैसे बैठा लिया. वह कहती है कि तुम कार में किसी औरत को भी कभी नहीं बैठाते. सच?’’


‘‘मैं ने मुसकरा कर टालने की मुद्रा में सिर हिला दिया.’’


‘‘उसी ने मुझे बताया कि तुम बहुत अच्छे आदमी हो. वह तुम्हारी बहुत इज्जत करती है. कहती है कि तुम अकेले आदमी मिले हो जिस ने उसे कभी मैली नजर से नहीं देखा.’’


‘‘तब तो मैं ने उस के साथ बड़ी नाइंसाफी की. उस से कह देना कि मैं शर्मिंदा हूं.’’


‘‘कोई बात नहीं.’’


‘‘कैसी अजीब दुनिया है. उस बेचारी ने किसी से कुछ भी नहीं कहा. लोगों ने खुद ही गढ़ लिया कि मैं उस पर बुरी नीयत रखता था. ओह…तभी’’, मेरे मुंह से निकला.


‘‘क्या हुआ?’’


‘‘काम वह बहुत अच्छा करती थी. दीवाली के पहले का समय था, उस ने घर की सफाई में बड़ी मेहनत की. मैं खुश हो कर उसे 100 रुपए देने लगा, तो एकदम से दूर हट गई और कहने लगी, यह तो मेरी ड्यूटी है, मुझे पैसा नहीं चाहिए. मैं ने कहा भी कि मैं खुश हो कर दे रहा हूं तो भी उस ने लिए नहीं. बस, हाथ जोड़ दिए. हालांकि मुझे बुरा भी लगा, लेकिन फिर उस पर मैं ने अधिक गौर नहीं किया. आज समझ में आया कि वह क्या समझी होगी’’, मैं हंसने लगा.


ममता भी हंस पड़ी.


‘‘यहां तो बैठने को भी कुछ नहीं. आओ, नीचे चलते हैं.’’


‘‘अभी मैं इस कमरे को और देखना चाहती हूं. इस पलंग पर बैठ जाऊं?’’


मजबूर हो कर मुझे भी उस के साथ पलंग पर बैठना पड़ा. ममता बड़े आराम से घुटने मोड़ कर बैठ गई थी. काफी समय तक बातचीत के बाद मैं ने लंच के लिए कहा, तो वह बोली, ‘‘घर में बने तो जरूर.’’


उस के बाद उस ने मुझे जरूरी सामान की सूची बना कर दी. मैं बाजार से सामान लाया. खाना उस ने ही बनाया. राजू की आज बड़ी मशक्कत हुई, लेकिन वह खुश नजर आ रहा था. ‘दीदी, दीदी’, मुसकराते हुए वह जीजान से जुटा रहा और उस ने ड्राइंगरूम, बाथरूम, रसोईघर सब चमका डाले. मैं नहाने चला गया. कपड़े धोने के बाद राजू न जाने कहां से एक तलवार और फावड़ा ले आया था. सामने का लौन बिलकुल दुरुस्त कर के वह पीछे के किचन गार्डन में जुट गया.


मौन और भरेदिल से मैं ने खाना खाया. खाना बहुत अच्छा बना था, लेकिन जाने क्यों मेरे गले में नहीं उतर रहा था. राजू को खाना खिला कर ममता ने 50 रुपए दिए. राजू लेने में आनाकानी करने लगा, तो उस ने उस की कमीज की जेब में डाल कर उस के सिर पर एक चपत लगा दी.


‘‘आप रोज आओगी दीदी?’’


‘‘क्यों?’’


‘‘आप आई हो न, तो बड़ा अच्छा लग रहा है.’’


‘‘आऊंगी.’’


राजू बरतन साफ कर के रसोई घर को व्यवस्थित कर के चला गया. राजू के जाने के बाद हम बात न कर सके. कुछ देर बैठी रहने के बाद ममता रसोई में चली गई. वह थोड़ी देर बाद लौटी तो उस के हाथों में 2 कप थे. कौफी की सुगंध दूर से ही मेरी नाक में समा गई. मैं खुद को रोक न पाया और फफक कर रो पड़ा.


ममता ने कुछ नहीं कहा. जब मैं खुद को रोक न सका, तो बाथरूम जा कर हाथमुंह धो आया. वापस आ कर नजरें नीची किए मैं कौफी पीता रहा. माहौल में एक अजीब सा खालीपन, बोझिलता फैल गई. चुप्पी छाई रही.


‘‘आज का दिन बहुत अच्छा गुजरा.’’ ममता कौफी के कप रसोई में रख आई थी. एकाएक बोली, ‘‘अब इजाजत दो, चलूंगी. शाम ढल रही है.’’


मैं ने सिर उठा कर ममता की ओर देखा. जो कहना चाहता था उसे जबान पर लाने की हिम्मत न हुई. वह मुसकराई.


‘‘अच्छा’’, वह उठ खड़ी हुई.


मैं भी थकाथका सा उठ खड़ा हुआ. दरवाजे से बाहर आ कर मुझे लगा कि ममता अपनी गाड़ी नहीं लाई है.


‘‘तुम जाओगी कैसे?’’


‘‘टैक्सी मिल जाएगी.’’


‘‘नहीं, ठहरो, मैं तुम्हें छोड़ कर


आता हूं.’’


‘‘क्यों तकल्लुफ करते हो.’’


‘‘2 मिनट रुको, मैं चाबी उठा लूं.’’ उस की बात अनसुनी करते हुए मैं ने कहा और अंदर चला गया. 3 मिनट में मै ने कपड़े बदले और बाहर आ गया. वह बरामदे में मोढ़े पर बैठी थी. मैं ने देखा कि पड़ोस की एकदो औरतें उसे बड़े गौर से देख रही थीं.’’


‘‘चलें’’, मैं ने कहा.


वह उठ खड़ी हुई. रास्ते में हम दोनों चुप ही रहे. मैं ने कार ममता के घर के गेट के सामने रोकी. ममता ने कार का दरवाजा खोलने को हाथ बढ़ाया.


‘‘ममता’’, मैं ने उसे पहली बार नाम से पुकारा.


उस ने पलट कर मेरी ओर देखा.


‘‘मत जाओ, ममता’’, मैं ने उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा.


एकाएक वह पत्ते सी कांप उठी. मैं ने पास सरक कर उस का कंधा थपथपाया. वह अपने को रोक न सकी. मेरे कंधे पर सिर रख कर थरथर कांपती फूटफूट कर रो पड़ी.


अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश में थरथराता मैं यह नहीं देख पाया कि कब निर्मला बाहर निकली और हमें यों एकदूसरे की बांहों में देख कर अंदर गई और शरारत से मुसकराती हुई लालाजी को बाहर बुला लाई. लालाजी ने उस के सिर पर एक चपत लगाई और मुसकराते हुए खुद अंदर चले गए और उसे हमें बुलाने को कह गए.


भीतर जा कर मैं ने लालाजी के पांव छूने चाहे तो वे पीछे हट गए. ‘‘न…न भई, क्यों नरक में ढकेलते हो. तुम ब्राह्मण

हो, मैं कायस्थ हूं, मुझे तुम्हारे पैर छूने चाहिए.’’


‘‘बेटा तो पिता के पैर छुएगा न?’’ मैं ने कहा.


‘‘बेटा?’’ लालाजी असमंजस में बोले.


‘‘ममता आप की बहू है. उस का हाथ तो मैं तभी थाम सकता हूं जब आप मुझे अपना बेटा बना लें.’’


लालाजी की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने झुक कर उन के पैर छुए तो अनायास ही वे मेरे सिर को सहलाने लगे. फिर उन्होंने झुक कर मेरे कंधे पकड़े और मुझे अपने सीने से लगा लिया. बहुत देर तक वे मुझे यों ही सीने से लगाए रहे. उन के आंसू मेरे कंधे को भिगोते रहे. मुझे यों लग रहा था जैसे तपती धूप से निकल कर किसी ठंडी हवा वाली जगह पर आ गया हूं. मन की वर्षों की सिसिजाहट जाने कहां गायब हो गई. विश्वास से मन भीग उठा. 

ऐसा भी होता है मेरे बहनोई रोटरी क्लब के प्रैसिडैंट हैं. अकसर उन की टीम अस्पतालों, अनाथालयों व दूसरी ऐसी ही जगहों पर जाती है. वहां वे मुफ्त दवाएं, कंबल आदि चीजें जरूरतमंदों में बांटते हैं.


एक बार वे ढेर सारी चीजें ले कर अनाथालय गए. वहां उन्होंने वे चीजें बच्चों को दीं. सभी बच्चे उछलउछल कर खुश हो रहे थे. आइए उन्हीं की जबानी सुनते हैं, ‘‘जीजी, मैं ने देखा कि एक बच्चा घने बरगद के साए तले उदास बैठा हुआ था. वह मेरे पास नहीं आया,  न ही उस ने कोई चीज ली. मैं ने उसे गोद में उठा कर पूछा, ‘बेटा, तुम्हें कुछ नहीं चाहिए?’


‘‘वह उदास स्वर में बोला, ‘मुझे सिर्फ बैटबौल चाहिए. सर, क्या आप मुझे वह ला देंगे. मेरे पापा कह कर गए थे कि वे जरूर मेरे लिए बैटबौल लाएंगे मगर मैं रोज उन का इंतजार करता हूं. रोज इस बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाता हूं. उन की राह ताकता रहता हूं लेकिन वे नहीं आते.’ यह कह कर वह खामोश हो गया. उस की आंखों में गजब का दर्द था.


‘‘‘बेटा, अगली बार जरूर ला दूंगा,’ ‘‘कह कर मैं वहां से वापस आ गया और वक्त के साथ यह बात भूल भी गया. बात आईगई हो गई. इत्तफाक से नए साल पर मुझे वहां फिर जाना पड़ा.


‘‘मैं ने देखा, वह मासूम उसी तरह बैठा है. मुझे देखते ही वह भाग कर आया और अपने छोटेछोटे हाथ मेरी तरफ बढ़ कर बोला, ‘सर, मेरा सामान लाए हैं?’


‘‘मेरे जेहन में बिजली सी कौंधी. मैं शर्मिंदा हुआ. उस की दर्दभरी आंखों में एक उम्मीद सी जगी. वह मुझ से बोला, ‘मैं तब से आप का इंतजार कर रहा हूं.’ मैं उसी वक्त पलटा, कार स्टार्ट की और मार्केट जा कर वहां से सब से बढि़या बैटबौल ला कर उसे दिया.


‘‘मैं सच कह रहा हूं इतनी खुशी मैं ने कभी भी किसी के चेहरे पर नहीं देखी. उस की आंखों की चमक के आगे तो चांदतारों की चमक भी फीकी थी. और मैं तो इतना खुश जिंदगी में कभी भी नहीं हुआ जितना कि उसे खुश देख कर हुआ.’’

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