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कहानी: पुनर्विचार

रविवार की तरह आज भी पूर्वा को सुबह जल्दी विपिन के घर पहुंचना था, पर तैयार होते-होते देर हो गई. एक तो सुबह नौकरानी ही देर से आई, उससे सारा काम करवाया, तैयार हुई तो घड़ी नौ बजा रही थी. फिर सड़क पर सवारी के इंतज़ार में आधा घंटा निकल गया. विपिन ने आठ बजे आने को कहा था. पिछले कुछ रविवार से यह एक नियम सा बन गया था. पूर्वा छुट्टी का पूरा दिन विपिन के यहां गुज़ारती.

विपिन अपनी सात वर्षीया बेटी को भी हॉस्टल से ले आते. फिर खाना वगैरह बनता, शाम को कहीं बाहर घूमने चले जाते और फिर शाम तक वह घर लौटती.

"बस कुछ दिनों की बात है पूर्वा, शादी होते ही हम सोना को घर ले आएंगे. अभी इसकी उम्र हॉस्टल में रहने की थोड़ी ही है. वह तो मेरी मजबूरी थी, उसे अकेली नौकर के पास भी तो नहीं छोड़ा जा सकता, इसलिए हॉस्टल में डाल आया." अब विपिन की गहरी आंखों में ढेर सारे सपने लहराने लगे थे और पूर्वा को भी लगता कि वह भी उन्हीं सपनों में डूबने-उतराने लगी है. विपिन से शादी… उसके साथ घर बसाना… बस हर वक़्त इन्हीं ख़्वाबों को बुनती रहती वह और एक सुखद एहसास उसे चारों तरफ़ से घेरने लगता.

आठ-दस महीने पहले जब उसने यह ऑफिस ज्वाइन किया था तब उसने कहां सोचा था कि एक दिन वह इसी ऑफिस के बॉस के इतने क़रीब आ जाएगी. यूं भी वह प्रारंभ से ही अंतर्मुखी और अपने आप में ही खोई रहने वाली लड़की रही थी. बचपन से ही घर में माता-पिता को छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते देखा था, पिता का ग़ुस्सैल स्वभाव, मां की चिड़चिड़ाहट जैसे-तैसे बड़ी बहन का विवाह हुआ, तो उसका भी वैवाहिक जीवन अधिक सुखद नहीं रहा.

इतने लेन-देन के बाद भी ससुराल पक्ष की नित नई मांग बनी ही रही. फिर लंबी बीमारी के बाद पिता का निधन हो गया और उसे यहां मीलों दूर आकर नौकरी करनी पड़ी. पूर्वा मां को भी यहीं लाना चाहती थी, पर वे ज़िद करके अब तक मामा के पास ही रह रही थीं.

यहां भी आकर तब कितना अजीब लगा था- नया शहर, नई नौकरी, नया माहौल सभी कुछ अजनबी था. चुपचाप वह अपने कार्य में लीन रहती. कहने को तो वह विपिन की सेक्रेटरी थी, पर फिर भी जहां तक हो, वह उससे कम ही बोलती थी. पता नहीं इस दुबली-पतली, सांवली सी लड़की पूर्वा में विपिन को क्या दिखा था कि अक्सर उसके मुंह से उसके लिए प्रशंसा के बोल फूट पड़ते, "पूर्वा तुम बहुत इंटेलिजेंट हो, बहुत जल्दी तरक़्क़ी कर सकती हो, बस थोड़ा और ध्यान दो."

वह अपनी बड़ी-बड़ी झुकी पलकें उठाकर उसकी तरफ़ देखने लगती. पहली ही नज़र में उसे विपिन और पुरुषों से कुछ भिन्न लगा था. शांत, गंभीर, बहुत कम बोलनेवाला. फिर भी धीरे-धीरे उसने अपने बारे में सब कुछ बता दिया था. कैसे उसका अपनी पत्नी प्रीति से तलाक़ हुआ, व्यवसायी परिवार की धनी लड़की प्रीति विपिन की नौकरी से संतुष्ट नहीं थी, वह चाहती थी कि विपिन भी उसके भाइयों के साथ फैक्ट्री लगाए या कोई और व्यवसाय प्रारंभ करे. नौकरी की सीमित तनख़्वाह से क्या होता है. यही उसके आए दिन के तर्क होते, पर विपिन इसके लिए तैयार न था.

सोनाली के जन्म के बाद तो ये झगड़े और भी बढ़ गए और नतीज़ा हुआ तलाक़, अब प्रीति अपने भाइयों के साथ रह रही है, सोनाली हॉस्टल में और विपिन…

जब पूर्वा ने मां को विपिन के बारे में बताया, तो वे कितनी नाराज़ हुई थीं. एक तलाक़शुदा व्यक्ति से शादी के पक्ष में वे बिल्कुल नहीं थीं. पर जब यहां आकर विपिन से मिलीं, तो उनकी राय ही बदल गई. अब तो सब कुछ तय हो गया है.

अगले ही महीने साधारण तरीक़े से विवाह संपन्न होगा. गिने-चुने रिश्तेदार ही उसमें शामिल होंगे और शादी के बाद वह नौकरी छोड़ देगी. नौकरी के लिए वह उत्सुक थी भी नहीं, अब तक तो मन लगाने के लिए कुछ करना था, इसलिए कर रही थी. पर अब उसकी ज़रूरत भी नहीं रह गई थी. जब से विपिन से रिश्ता तय हुआ है, उसने ऑफिस भी बदल दिया. अब तो बस रविवार को ही विपिन से मिलना हो पाता है, इसलिए रविवार की वह बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करती रहती है.

वहां पहुंचकर अकेले श्यामलाल को देखकर आश्चर्य हुआ. इस समय विपिन कहां जा सकता है.

"साहब तो आज सुबह-सुबह ही कहीं चले गये हैं."

श्यामलाल ने घर की सफ़ाई करते-करते ही सूचना दी थी.

"अच्छा! कहां?"

"पता नहीं, कहा तो कुछ भी नहीं, कोई फोन आया था, उसके बाद चले गए."

"अच्छा…" पूर्वा ने मेज पर पड़ा अख़बार उठा लिया. कुछ देर यूं ही पन्ने पलटे. अख़बार तो वह आज सुबह ही पढ़ चुकी थी. फिर क्या करे. विपिन को कुछ बता कर तो जाना था. उसे ही पड़ोस में फोन करके सूचना दे देता.

"आपके लिए चाय बनाऊं?"

श्यामलाल अब तक सफ़ाई का काम निपटा चुका था.

"नहीं, पहले साहब को आने दो."

"ठीक है, मैं तब तक बाज़ार से सब्ज़ी वगैरह ले आता हूं."

श्यामलाल बाहर गया, तो वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई. तभी दूर से स्कूटर पर विपिन आता हुआ दिखाई दिया.

"अरे, तुम कब आई?"

अंदर आते ही उसका स्वर गूंजा था.

"काफ़ी देर हो गई, कहां चले गए थे? आज सोना को लेने नहीं चलना है क्या?"

"हां, सोना के पास ही गया था."

विपिन सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया.

कुछ देर वह चुप रहा. पूर्वा भी समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे.

"तो फिर सोना आई नहीं आज."

कुछ देर बाद प्रश्न कौंधा दिमाग़ में.

"हां… आं… आज प्रीति के साथ चली गई है. असल में सुबह ही प्रीति का फोन आ गया था. आजकल यहां अपनी मौसी के यहां आई हुई है. सोना से मिलना चाहती थी, इसलिए उसने कहा अच्छा हो, मैं भी साथ चलूं, इसलिए जाना पड़ा."

"ओह!"

पूर्वा एकदम चुप हो गई. प्रीति का नाम सुनकर फिर कुछ बोलने का मन ही नहीं हुआ.

"तुमने चाय वगैरह पी या नहीं?"

विपिन ने ही कुछ देर बाद पूछा.

"नहीं, सोच रही थी कि तुम आ जाओ, तब साथ पीएंगे."

"अच्छा, तो फिर देर कैसी, अभी चाय आती है. श्यामलाल…"

विपिन ने श्यामलाल को आवाज़ दी.

"श्यामलाल तो अभी बाज़ार गया हुआ है, मैं ही बनाती हूं."

कहते हुए पूर्वा अंदर किचन में चली गई. वह इस समय विपिन के सामने से हटना चाह रही थी और कोई दिन होता, तो वह हंसती-गुनगुनाती हुई किचन में काम करती रहती, पर आज चुपचाप चाय बना कर विपिन के सामने रख दी उसने.

"अरे, तुम तो एकदम से चुप हो गईं." विपिन से उसकी चुप्पी छिपी नहीं रही.

"चलो अब खाना बाहर ही खाएंगे, आज सोना भी नहीं है, तुम्हें खालीपन लग रहा होगा."

शायद विपिन कुछ भांप नहीं पाया हो, पूर्वा ने भी सामान्य होने का प्रयास किया. अपनी तरफ़ से उसने कुछ नहीं पूछा, पर फिर विपिन बोलता ही रहा.

"असल में प्रीति बहुत दिनों से सोना से मिली नहीं थी. फिर यहां उसकी मौसी भी रहती है. सोना भी इतने दिनों से मां को मिस कर रही थी."

"अब तो वे यहीं रहेंगी?"

"कौन… प्रीति?"

"पूछा नहीं मैंने… पर शायद रुकेगी…"

पूर्वा ने भी फिर कुछ नहीं पूछा. इधर-उधर की ही बातें होती रहीं. यूं भी हफ़्तेभर बाद ही मिलना हो पाता. वैसे बीच-बीच में वह फोन पर बात कर लेती थी, पर पता नहीं क्यों, इस बार फोन करने का भी मन नहीं हुआ उसका. प्रीति शायद वहीं हो, फिर रविवार को ही सुबह-सुबह विपिन का फोन आया.

"पूर्वा, सोना ज़िद कर रही है कि वह मुझे और प्रीति को लेकर पिकनिक पर जाएगी. क्या करूं, मजबूर हूं, तुम कल ज़रूर मिलना. मैं छुट्टी लेकर घर पर ही रहूंगा."

पूर्वा ने चुपचाप फोन रख दिया. पिछले आठ दिनों से वह एक अजीब-सी छटपटाहट अपने भीतर महसूस कर रही थी.

क्या विपिन अब उससे छिन जाएगा? अब इस मोड़ पर… जबकि वह बिना उसके जीने की कल्पना भी नहीं कर पा रही थी. यूं विपिन पिछली बार भी पूरे अपनत्व से मिला था, पर पता नहीं क्यों, उसे लगता है कि वह कुछ दरक-सा गया है, क्या करे वह?

रविवार का पूरा दिन कितने अरसे बाद उसने अकेले ही बिताया था. सोमवार को भी छुट्टी लेने का मन नहीं हुआ उसका. पर विपिन से कह चुकी थी, इसलिए जाना था.

"ठीक है, बच्ची है, फिर उसका भी मन होता है मां के साथ…"

शब्द फिर ज़ुबान पर आते-आते रुक गए थे.

उधर विपिन के मुंह से भी निकल ही गया था, "प्रीति में इतना बदलाव आ जाएगा, मैं तो सोच भी नहीं सकता था. कहां तो पहले दो मिनट भी सोना के लिए नहीं थे उसके पास, और अब देखो, पूरा दिन उसके साथ गुज़ार दिया, वह भी हंसी-ख़ुशी में."

"सोना भी तो ख़ुश होगी?"

"और क्या… उसने प्रीति से वादा भी ले लिया है कि अगले रविवार को उसे चिड़ियाघर ले जाना है."

ज़ाहिर है विपिन को भी जाना होगा. पूर्वा के दिमाग़ में कौंधा, शायद विपिन ने भी भांपा हो, तभी तो उसके मुंह से निकला था, "पूर्वा यह कोई ज़रूरी थोड़े है कि तुम रविवार को ही आओ. तुम तो कभी भी आ सकती हो. यूं भी तुम्हें नौकरी छोड़नी ही है."

"हां, वह तो है." पूर्वा ने धीरे से कहा.

घर आकर फिर मन देर तक उदास रहा. उसे कोई निर्णय ले लेना है. पता नहीं क्यों, उसे रह-रहकर लग रहा था कि प्रीति का ज़िक्र आते ही विपिन कुछ कहते-कहते रुक जाता है. शायद प्रीति के प्रति उसकी कड़वाहट अब कुछ कम हो गई है और प्रीति… वह भी तो रुकी हुई है… तलाक़ हो गया तो क्या हुआ? पर पुरानी स्मृतियां तो होंगी ही… और हो सकता है कि अब अपने किए पर पछतावा भी हो उसे.

जो भी हो, सोना के लिए भी तो…

पर वह… वह कहां जाएगी. मन एकदम से छटपटा उठता था, शायद उसकी छटपटाहट को भांपकर ही विपिन कुछ खुलकर कह नहीं पाता हो… पर वह…

एकाएक उसने निर्णय ले लिया, लंबी छुट्टी लेकर घर जाने का. ठीक है, इतने दिन उसके लिए त्रासदी भरे भले ही हों, पर वह जल्दबाज़ी में कोई निर्णय नहीं लेगी.

शायद… शायद विपिन को भी हक़ है, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का… और यही ठीक भी होगा.

पनीली आंखों के आंसू सूख चुके थे… पर अपने रिक्त होते हृदय को वह अभी भी समझा नहीं पा रही थी.- क्षमा चतुर्वेदी

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